अरबी साहित्य
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अरबी साहित्य
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1 |
पृष्ठ संख्या | 226 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पाण्डेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1964 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | श्री हाफ़िज़ गुलाम मुस्ताफा |
अरबी साहित्य अरबी साहित्य की सर्वप्रथम विशेषता उसकी चिरकालिकता है। उसने अपने दीर्घ जीवन में विभिन्न प्रकार के उतार-चढ़ाव देखे और उन्नति एवं अवनति की विभिन्न अवस्थाओं का अनुभव किया, तथापि इस बीच श्रृंखालाएँ अविच्छिन्न तथा परस्पर संबद्ध रहीं और उसकी शक्ति एवं सामर्थ्य में अभी तक कोई अंतर नहीं आया।
(अ) पूर्व-पैग़्बांर - काल (आरंभ से सन् 622 ई. तक) सबसे पहला मोड़, जिससे अरबी साहित्य प्रभावित हुआ, इस्लामी क्रांति है। इस आधार पर सन् 622 ई. से उसके जीवन का एक नया युग प्रारंभ हुआ जब ईश्वर के संदेशवाहक (रसूलुल्लाह) मक्का छोड़कर मदीना चले गए। इससे पहले का काल इस्लाम की परिभाषा में 'जहालत' का युग कहलाता है और आज हमें अरबी साहित्य की जो प्राचीनतम पूँजी उपलब्ध है वह इसी युग की है। यह लगभग समस्त पूँजी पद्यों के रूप में ही है जो पांच और अधिकतर छठी शताब्दी ईसवी के अरबी कवियों द्वारा प्रस्तुत की गई है। चँकि उन दिनों अरबी के लिखित रूप का प्रचलन नहीं था, अत: वे पद्य शताब्दियों तक कवियों के कंठों में ही सुरक्षित रहे और वंश की परंपरागत मौखिक निधि बने रहे। तत्पश्चात 8वीं तथा 9वीं शताब्दियों में जब विद्या तथा कला का प्रारंभ हुआ, इनको विभिन्न प्रकार से पुस्तकों में एकत्रित कर लिया गया।
ये ही कविताएँं अरबी साहित्य के प्रारंभिक उदाहरण हैं। फिर भी ये उसकी बाल्यावस्था की परिचायक नहीं बल्कि उसकी प्रौढ़ता की सूचक हैं, गंभीर और स्वस्थ। जब विद्वान उस युग की कविता के बांकपन पर दृष्टिपात करते हैं, तब चकित रह जाते हैं और उनको मानना पड़ता है कि उनकी यह सफाई और रौनक शताब्दियों के अभ्यास एवं प्रयास के बिना प्राप्त नहीं हुई होगी। परंतु यह सब हुआ किस प्रकार, इसका वास्तविक ज्ञान अभी हमको नहीं है। फिर भी इसमें संदेह नहीं कि मुहम्मदपूर्व की कविता प्रौढ़ है। अत: प्रत्येक युग में उसके सौंदर्य, गुणों तथा विशेषताओं को स्वीकार किया गया है और आज भी उसका मान तथा गौरव मान्य हैं।
इस्लाम के अभ्युदय से पूर्व अरब में कविता अपनी जवानी पर थी। मेलों तथा बाजारों में कविसम्मेलन प्राय: हुआ करते थे। समाज में कवियों को बड़ा आदर प्राप्त था। अत: जब कोई नया कवि प्रसिद्ध होता था तब उसके कबीले की स्त्रियाँं इकट्ठी होकर उत्सव मनाती और मंगलगीत गाती थीं। दूसरे कबीले के लोग उस कवि के कबीलेवालों को बधाई देते थे, क्योंकि कवि ही कबीले के महान् कार्यों का रक्षक तथा उसकी मानमर्यादा का निरीक्षक होता था। यही कारण है कि प्राय: कवि ही कबीले का अध्यक्ष हुआ करता था। संधि एवं युद्ध और प्रसिद्धि एवं कलंक कवि के ही हाथ में होते थे। उसकी ओजपूर्ण कविताएँ मुरझाए हृदयों में उत्साह भर देती थीं और मधुर गीत आवेशपूर्ण मस्तिष्कों को सांत्वना देते थे। वह जिसकी प्रशंसा कर देता था उसकी प्रसिद्धि बढ़ जाती थी और जिसकी बुराई कर देता था उसको कहीं मुँह छिपाने को भी स्थान नहीं मिलता था।
कविता का प्रधान एवं प्रचलित रूप क़सीदा था। इसी क्षेत्र में कविगण अपना कौशलप्रदर्शन करते थे। इसका आरंभ प्राय: इस प्रकार होता है मानो कवि किसी यात्रा में कुछ पुराने भग्नावशेषों (खंडहरों) के सामने खड़ा है जहाँ उसने पहले कभी निवास किया था। यह ढंग अरब के कवियों के लिए समस्तरूपेण वास्तविक तथा समीचीन है क्योंकि अरबनिवासी सदैव खानाबदोशों की भांति चरागाहों की खोज में चलते-फिरते रहते थे। कुछ दिनों तक एक स्थान पर निवास कर चुकने के बाद वे वहाँ से कूच कर देते थे। इस अस्थायी निवासकाल में विभिन्न कबीलों में मित्रता तथा शत्रुता की असंख्य घटनाएँ घटित होती थीं। अत: जब कभी दूसरी बार उस जगह से होकर वे गुजरते थे तब पूर्वस्मृतियों का सिंहावलोकन स्वाभाविक हो जाता था। अत: उन भग्नावशेषों को देखते ही कवि की आंखों के सामने पिछली घटनाओं के चित्र आ जाते थे और वह अपनी प्रेम की घटनाओं तथा वियोग की अवस्थाओं का वर्णन स्वत: करने लगता था। इस संबंध में वह अपनी प्रेमिका के सौंदर्य तथा स्वभाव संबंधी विशेषताओं का मनोहर चित्र उपस्थित करता था। फिर मानो वह अपनी यात्रा दोबारा आरंभ कर देता था और रेतीली पहाड़ियों, टीलों तथा अन्य प्राकृतिक दृश्यों के वर्णन में लीन हो जाता था। उसी समय वह अपने घोड़े या अपनी ऊँटनी की चाल, डीलडौल तथा सहनशीलता की विशुद्ध प्रशंसा करता था। उसकी शुतुरमुर्ग, जंगली बैल या दूसरे पशु से उपमा देता था और अपनी यात्रा एवं भ्रमण तथा युद्ध एवं मारकाट का वर्णन करता था। उसके बाद अपने और कबीले के महान् कार्यों और उच्चादर्शो का वर्णन बड़े गौरव के साथ करता था। तत्पश्चात् यदि कोई विशेष उद्देश्य उसके समक्ष होता था तो वह उसका भी वर्णन करता था। इस प्रकार क़सीदा के यही अंग होते हैं जिनमें परस्पर कोई गहरा लगाव और दृढ़ संबंध नहीं होता। वह विभिझ प्रकार के छोटे बड़े मोतियों के हार के समान होता है जिसमें के कुछ मोती बड़ी सुगमता से निकालकर दूसरे हारों में पिरोए जा सकते हैं।
यह युग की कविता की प्रमुख विशेषता यह है कि वह वास्तविकता के बहुत निकट है। कवियों ने जो कुछ वर्णन किया है वह उनका यथार्थ अनुभव तथा निरीक्षण है। इसीलिए इस संबंध में यह किंवदंती है कि 'अल-शेर दीवानुल अरब' अर्थात् कविता अरब का भांडार है। प्रकट है कि इस कविता का अरब के प्राचीन इतिहास के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। उस काल के कुछ विशेष प्रसिद्ध कवियों के नाम हैं--इम्रोउल-क़ैस, जुहैर, तरफ़ह, लबीद, अम्र-बिन-कुलसूम, अंतरह, नाबिग़्हा, हारिस बिन हिलिज्ज़ा और आयशा।
(आ) पैगंबर का युग- उचित उत्तराधिकारीकाल तथा उमैय्याकाल (सन् 622 ई. से 750 तक)। इस्लाम के अभ्युदय के पश्चात् कुछ समय तक कविता के क्षेत्र में बहुत शिथिलता रही, क्योंकि अरबों का ध्यान पूर्णरूपेण इस्लामी क्रांति पर केंद्रित रहा। उनका उत्साह धर्म के प्रचार तथा देशों की विजय में लग गया। कविता के प्रति उनका उत्साह धर्म के प्रचार तथा देशों की विजय में लग गया। कविता के प्रति उनकी उपेक्षा का एक बड़ा कारण यह भी हुआ कि अब तक जो वस्तुएँ उनको विशेष रूप से प्रेरित करनेवाली थीं--जैसे जातीय पक्षपात, गोत्रीय गौरव, दोषारोपण एवं घृणा, अहंकार, मारकाट, मद्यपान, द्यूतक्रीड़ा इत्यादि-उन सबको इस्लाम ने निषिद्ध घोषित कर दिया था। इसी से इस्लाम के प्रारंभिक समय की जो संक्षिप्त कविताएँ मिलती हैं उनका विषय 'जहालत के युग' की कविताओं से भिन्न है। इनमें इस्लाम के विरोधियों की बुराई की गई है और रसूलुल्लाह की प्रशंसा तथा इस्लाम का समर्थन हुआ है। इस्लाम के सिद्धांतों एवं विचारधाराओं का प्रतिबिंब भी इनपर पर्याप्त मात्रा में दृष्टिगोचर होता है। इस काल के कवियों में हस्सान-बिन-साबित (मृ.सन् 673 ई.) का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। रसूलुल्लाह के पश्चात् उचित-उत्तराधिकारी-काल में भी कविता की यही अवस्था रही। आपके चारों उत्तराधिकारी (खलीफ़ा), विद्वान् एवं समस्त महानुभाव इस्लाम धर्म के सिद्धांतों के प्रचार तथा जनसाधारण के आचरण-सुधार में जुटे रहे। उन्होंने कविता की ओर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया।
फिर जब सन् 661 ई. में उमैय्या वंश का राज दमिश्क में स्थापित हुआ तो कुछ ऐसी परिस्थितियाँ उपस्थित हुई कि पुराना जातीय पक्षपात फिर जाग्रत हो गया। असंख्य राजनीतिक दल उठ खड़े हुए और एक दूसरे से बुरी तरह से उलझ गए। प्रयेत्क दल ने कविता के शस्त्र का प्रयोग किया और कवियों को अपनी इच्छापूर्ति का साधन बनाया। फलस्वरूप कविता का बाजार एक बार फिर गरम हो गया। परंतु इसकी सामान्य शैली लगभग वही थी जो जहालत के युग की कविताओं की थी। इतना अवश्य है कि भाषा एवं वर्णन में कुछ मिठास और शिष्टता की झलक दिखाई जाती है। इस काल का प्रत्येक कवि किसी-न-किसी दल का समर्थक था जिसकी प्रशंसा में वह अपनी पूरी कवित्वशक्ति अर्पित कर देता था। साथ ही विरोधियों पर दोषारोपण करने में भी वह कोई कसर नहीं रखता था। इसलिए इस काल की अधिकांश कविताओं के वर्ण्य प्रशंसा एवं दोषारोपण पर आधारित हैं। अख्तल (मृ. सन् 713 ई.) की गणना प्रथम कोटि के कवियों में होती है। इस युग की एक विचित्रता फ़रज्दक़ और जरीर की पारस्परिक कविताप्रतिद्वंद्विता भी है जो इतनी प्रसिद्ध थी कि युद्धक्षेत्र में सैनिक भी इन्हीं दिनों की कविता से संबंधित वादविवाद किया करते थे।
दूसरी ओर अरब में विशेष रूप से ग़्जालिया शायरी (प्रेमकविताओं) का प्रचलन था जिसमें उमर-बिन-अबी रबीआ (मृ. सन् 719 ई.)का नाम बहुत प्रसिद्ध है। कुछ प्रेमी कवि भी बहुत प्रसिद्ध है; जैसे जमील (मृ. सन् 701), जो बुसैना का प्रेमी था और मजनू जो लैला का प्रेमी था। इनको कविताएँ सौंदर्य तथा प्रेम की संवेदनाओं एवं घटनाओं और संयोग-वियोग के अनुभवों तथा अवस्थाओं से परिपूर्ण हैं और उनमें संवदेन, प्रभाव, सौंदर्य, मधुरता, मनोहारिता एवं मनोरंजकता भी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है।
(इ) अब्बासी युग- (750 ई. से 1258 ई.तक)-यह काल प्रत्येक दृष्टिकोण से स्वर्णयुग कहलाने का अधिकारी है। इसमें हर प्रकार की उन्नति अपनी चरम सीमा को पहुँच गई थी। ख़लीफा से लेकर जनसाधारण तक सब विद्या तथा कलाकौशल को उन्नत बनाने में तन मन से लगे हुए थे। बग़्दााद राजधानी के अतिरिक्त विस्तृत इस्लामी राज्य में असंख्य शिक्षाकेंद्र स्थापित थे जो विद्या तथा कलाकौशल की उन्नति के लिए एक दूसरे से आगे बढ़ जाने की होड़ कर रहे थे। इस समुपयुक्त वातावरण के फलस्वरूप कविता का उद्यान भी लहलहाने लगा। सभ्यता तथा संस्कृति की उन्नति और अन्य जातियों तथा भाषाओं के मेल से नवीन विचारधाराएँ और नए शब्द एवं वाक्यांश कविता में स्थान पाने लगे। विचारों में गंभीरता एवं बारीकी और शब्दों में प्रवाह एवं माधुर्य आने लगा। विभिन्न वर्णनशैलियाँ निकाली गईं और प्रशंसा एवं दोषारोपण के विभिन्न ढंग निकाले गए जिनमें अतिशयोक्ति को चरम सीमा तक पहुँचा दिया गया। इस क्षेत्र के योद्धाओं में अबू तम्माम (मृ. 843 ई.), बहुतुरी (मृ.सन् 896 ई.)और मुतनब्बी (मृ.सन् 965 ई.) अग्रणी थे। इसके अतिरिक्त पूर्वसीमाओं तथा प्रतिबंधों को तोड़कर कविताक्षेत्र को और भी विस्तृत किया गया तथा उसमें विभिन्न राहें निकाली गईं। एक ओर प्रेम और आसक्ति की घटनाओं और फाकामस्तों के वर्णन निस्संकोच किए गए। इस दिशा का प्रतिनिधि कवि अबूनुवास (मृ. सन् 810 ई.) था। दूसरी ओर विरक्ति, पवित्रता और उपदेश की धाराएँ प्रवाहित हुई। इस क्षेत्र में अबुल अताहिया (मृ. 850 ई.) सर्वप्रथम था। इसी प्रकार अबुल अला अलमअर्रो (मृ. सन् 1057 ई.) ने मानवता के विभिन्न अंगों पर दार्शनिक ढंग से प्रकाश डाला और इब्रुल फारिज़ (मृ.1235 ई.) ने आध्यात्मिकता के वायुमंडल में उड़ान भरी।
यहाँ स्पेन की अरबी कविता का वर्णन भी विशेष रूप से अभीष्ट है। वहाँ मुसलमानों का राज लगभग 800 वर्ष रहा। इस बीच विद्या तथा कलाकौशल ने वहाँ ऐसी उन्नति की कि उसे देखकर यूरोप शताब्दियों तक आश्चर्यचकित रहा। यहाँ की अरबी कविता भी प्रारंभ में प्राचीन मुहम्मद-पूर्व युग की कविता के ढंग पर चली, परंतु शीघ्र ही स्थानीय जलवायु ने सौंदर्य प्राप्त हुआ। इसकीे दो विशेषताएँ हैं: एक तो प्राकृतिक दृश्यों का चित्ताकर्षक वर्णन; दूसरी प्रेमभावनाओं की मनोहारिणी कहानी। इसके अतिरिक्त एक विशेष बात यह है कि यहाँ लोकभाषा में एक नई प्रकार की कविता ने प्रौढ़ता प्राप्त कर राजा-रंक सबका मन हर लिया। स्पेन का कण-कण उसके रागों से द्रवित हो गया। वहाँ के प्रसिद्ध कवियों में इब्रे हानी (मृ. 973 ई.) और इब्रे जदून (मू. 1071 ई.) विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
इस काल में अरबी गद्य ने भी बहुत उन्नति की। प्रारंभ में इब्रुल मुकफ़फ़ा (मृ. 760 ई.) ने दूसरी भाषाओं की कुछ पुस्तकों का अरबी में अनुवाद किया जिनमें कलोलह व दिमना (मूल संस्कृत 'पंचतत्र') बहुत प्रसिद्ध हैं। फिर प्राचीन कथा कहानियों को बड़ी शीघ्रता के साथ पुस्तकों में संकलित किया जाने लगा। एक ओर तो कथा कहानियों पर लेखनशक्ति का प्रयोग किया गया और मनोरंजक ज्ञान को चित्ताकर्षक शैली में प्रस्तुत किया गया। इस संबंध में अलिफलैला का नाम बहुत प्रसिद्ध है जो विभिन्न प्रकार की सैंकड़ों कहानियों का संग्रह है। दूसरी ओर खलीफाओं, महापुरुषों, कवियों, साहित्यकारों और विद्वानों के परिचय, सदाचार, शिष्टाचार, दंतकथाओं, कला-कौशल आदि के वर्णन एकत्र किए गए। इस क्षेत्र के मीर प्रसिद्ध महानुभाव जाहिज़ (मृ. 869 ई.) थे। इनके पश्चात् इस क्षेत्र में सक्रिय भाग लेनेवालों में इब्रै कुतैबह (मृ. 889 ई.), इब्रे अब्दे रब्बी (मृ. 939 ई.) और अबुल फरज अस्फहानी (मृ.967 ई.) अधिक प्रसिद्ध हैं। इनकी पुस्तकों को अरबी साहित्य में बहुत ऊँचा स्थान प्राप्त है।
इस काल के साहित्यिक लेखों में तुकांत गद्य को भी अधिक ख्याति प्राप्त हुई और उसका महत्व इतना बढ़ गया कि उसे उच्च कोटि के गद्य का अत्यावश्यक अंग माना जाने लगा। अंत में इसकी उन्नति मक़ामात के रूप में अपनी चरम सीमा पर पहुँची ओर वास्तविकता यह है कि बहुतेरे साहित्यमर्मज्ञों की राय में इससे अधिक उच्च स्तर का साहित्य अब तक अस्तित्व में नहीं आया था। मक़ामात का केंद्र विदूषक नायक होता है और उसकी शैली नाटकीय होती है। प्रत्येक मक़ामह साहित्यिक संग्रह होता है जिसमें नायक अपने ज्ञान संबंधी वर्णनों तथा साहित्यिक हास-परिहास और योग्यता के द्वारा अपने समस्त प्रतिद्वंद्वियों को पूर्णरूपेण हराकर सब दर्शकों को आश्चर्य में डाल देता है। उसमें कथावस्तु कुछ नहीं होती, केवल साहित्यिक अतिशयोक्ति तथा वर्णनशैली का चमत्कार ही सब कुछ होता है। बदीउज्ज़माँ हमदानी (मृ. 1007 ई.) और बाद हरीरी (मृ. सन् 1122 ई.) अरबी साहित्य के इस काल के आकाश में चंद्र-सूर्य की भांति चमकते हैं।
इसके अतिरिक्त असंख्य विद्याओं एवं कलाओं, जैसे तफ़सीर (कुरान की व्याख्या) हदीस, क़िकह (कानून), इतिहास, निरुक्त, मंतिक्, दर्शन, ज्योतिष, भूमिति, गणित इत्यादि के क्षेत्र में सहस्रों ऐसे विद्वानों ने कार्य किया। इनकी असंख्य कृतियों में ज्ञान का बहुमूल्य संग्रह एकत्र है और इनमें से सैकड़ों पुस्तकों की गणना उच्च कोटि की ज्ञान संबंधी तथा साहित्यिक कृतियों में होती है। इनसे आज तक विद्वान् लाभ उठाते और उनके समुद्र में डुबकी लगाकर बहुमूल्य मोती निकालते रहे हैं। फिर भी, उनके भांडार का बहुत बड़ा भाग अभी तक अज्ञात और संसार की दृष्टि से ओझल है जो विद्या एवं कला के जिज्ञासुओं को खोज और निरंतर परिश्रम के लिए आमंत्रित करता है।
(ई) मुसलमानों तथा तुर्कों का शासनकाल - (सन् 1258 ई. से 1798 ई. तक)- बगदाद का राज्य अब्बासी राजत्वकाल से ही पतनोन्मुख हो चुका था। अब इस युग में उसके टुकड़े टुकड़े हो गए। मुगलों, तुर्कों और दूसरी जातियों में प्रभुत्ता विभाजित हो गई। राजनीतिक कांति का प्रभाव ज्ञानजगत् पर भी पड़ना अनिवार्य था। अत: इस लंबे समय में ज्ञान एवं साहित्य में कोई प्रगति नहीं हुई। कविता तो वास्तव में बिलकुल निष्प्राण हो चुकी थी। कवि केवल शाब्दिक क्रीड़ा में लीन थे। मौलिकता का पता नहीं था। प्राचीन विषयों तथा विचारों का पिष्टपेषण हो रहा था। अलबूसीरी (मृ. 1296 ई.) की निस्संदेह कविता में बहुत प्रसिद्धि हुई जिसका आधार विशेष रूप से वह क़सीदा है जो उसने रसूलुल्लाह के सम्मान में लिखा था। इसके अतिरिक्त सफीउद्दीन हिल्ली (मृ. 1350 ई.) का नाम भी बहुत विख्यात है जिसे इस काल का सबसे बड़ा कवि कहा जा सकता है।
निस्संदेह इतिहास लेखन ने इस काल में उत्तरोत्तर उन्नति की। इस काल के ऐतिहासिक कार्यों में विस्तृत दृष्टिकोण और यथार्थप्रियता के चिह्न पर्याप्त मात्रा में मिलते हैं। इस संबंध में इब्रे खल्दून (मृ. 1406 ई.) का नाम सबसे अधिक प्रसिद्ध है जिसने इतिहासलेखन में एक नई शैली का सूत्रपात किया। उसने अपने इतिहास की भूमिका में बहुत सी ज्ञान संबंधी, राजनीतिक और सामाजिक समस्याओं का बहुत सुंदर वर्णन किया है और इतिहास का एक विस्तृत दार्शनिक दृष्टिकोण उपस्थित किया है। अत: उस भूमिका का महत्व स्वतंत्र पुस्तक से भी अधिक है। बाद के यूरोपीय इतिहासकार मैकियावली, वीको और गिबन इत्यादि वास्तव में इब्रे खल्दून के ही अनुयायी हैं।
इस काल में कुछ विद्वान् ऐसे भी हैं जो अनेक विद्याओं तथा कलाओं में समान दक्षता रखते थे। इसलिए उनके व्यक्तित्व को किसी एक क्षेत्र में सीमित नहीं किया जा सकता। इब्रे तैमीयह (मृ. 1238 ई.), ज़हबी (मृ. 1347 ई.), इब्रेहजर अस्क़लानी (मृ. 1449 ई.) और जलालुद्दीन सुयूती (मृ. 1505 ई.) ऐसे ही विद्वान् हैं । यह मंडल इस काल के प्रकाशहीन आकाश में जुगनू की भाँति चमक रहा है। इनकी सैंकड़ों कृतियों में समस्त प्रकार की विद्याओं और कलाओं का कोष भरा हुआ है। इनके अतिरिक्त इब्रे मंजूर (मृ. 1311ई.) व्याकरण, निरुक्त और साहित्य का बहुत बड़ा विद्वान् ओर अन्वेषक हुआ है। 'निसानुल अरब' उसकी विशाल कृति है जिसकीे गणना शब्दकोश तथा साहित्य की चोटी की पुस्तकों में होती है।
(उ) आधुनिक काल (सन् 1798 ई. से अब तक) - यह अरबी साहित्य का पुनर्जागरणकाल है जिसका प्रारंभ मिस्र पर नैपोलियन के आक्रमण से होता है। इस काल में कुछ ऐसे कारण और परिस्थितियाँ उत्पन्न हुईं कि अरबी साहित्य में जीवन की एक नई लहर दौड़ी और उसमें नई-नई शाखाएँ फूट निकलीं। पश्चिमी संस्कृति वं सभ्यता, ज्ञान एवं साहित्य और विचारधारा एवं दृष्टिकोण ने अरब देश को बहुत प्रभावित किया। आधुनिक ढंग के विद्यालयों का श्रीगणेश हुआ, मुद्रणकला का आविष्कार तथा पत्रिकाओं एवं समाचारपत्रों का प्रचार हुआ। ज्ञान संबंधी साहित्यिक संस्थाएँ स्थापित हुई। इस प्रकार अरब जाति नवीन प्रवृत्तियों ओर दृष्टिकोणों से परिचित हुई। स्वतंत्रता, देशभक्ति तथा राष्ट्रीयता की भावनाएँ जाग्रत हुईर्ं। राजनीतिक एवं सामाजिक विचारधाराओं में भी परिवर्तन हुआ । फलस्वरूप अरबी साहित्य में एक क्रांति का जन्म हुआ।
कविता ने करवट बदली। उसमें जीवन के चिह्न दृष्टिगोचर होने लगे। शाब्दिक चमत्कार के स्थान पर अब वर्ण्य-विषय कीे ओर अधिक ध्यान दिया जाने लगा। राजनीतिक कविताएँं एवं राष्ट्रीय गान लिखे जाने लगे। अन्य भाषाओं की कविताओं के अरबी में पद्यानुवाद किए गए। अत: उर्दू के गौरवान्वित कवि अल्लामा इक़बाल की कविताओं का भी अनुवाद हुआ। इसके अतिरिक्त कविता के मापदंड (छंद) भी बदल गए। कुछ कवियों ने स्वच्छंद कविताएँ भी लिखीं और प्रचीन शैली के विरुद्ध एक-एक विषय पर ठोस कविताओं की रचना हुई। इस काल के विशिष्ट कवियों के नाम ये हैं: अल बारूदी (मृ. 1904 ई.), हाफिज इब्राहीम (मृ. 1932 ई.), शौकी (मृ.1932 ई.), रुसाफी (मृ. 1945 ई.), खलील मतरान (मृ. 1954 ई.), अबूशादी (मृ. 1955 ई.), अब्दुर्रहमान सिद्की, अब्दुर्रहमान बदवी और सुलेमान अल ईसा इत्यादि।
आधुनिक युग में पद्य की अपेक्षा गद्य पर अधिक जोर दिया गया और उसमें साहित्य के अन्य अंगों की अभिवृद्धि की गई। मारून नक्काश (मृ. 1855 ई.) ने अरबी साहित्य में नाटक का श्रीगणेश किया। कुछ समय पश्चात् अब्दुल्ला नदीम (मृ. 1869 ई.) और नजीब-अल-हद्दाद (मृ.1899 ई.) ने इस ओर ध्यान दिया। फिर शीघ्र ही नाटककला ने इतनी अधिक उन्नति की कि आजकल उसकी गणना उच्च साहित्य के एक महत्वपूर्ण अंग के रूप में होती है। इसी प्रकार उपन्यासों और संक्षिप्त कहानियों को भी मान्यता प्राप्त हुई। पहले यूरोप की भाषाओं से हर प्रकार की ऐतिहासिक, सामाजिक, प्रेम संबंधी तथा हास्य रस की कथाएँ अरबी में रूपांतरित की गई। तत्पश्चात् इस विषय की मौलिक रचनाएँ भी साहित्यक्षेत्र में आने लगीं जिनसे प्राचीन अरबी सभ्यता को प्राणवान् बनाने और राष्ट्रीय भावनाओं को जाग्रत करने का काम लिया गया। इस क्षेत्र के विशिष्ट व्यक्ति ये हैं-अब्दुलक़ादिर माज़िनी (मृ. 1949 ई.), मुहम्मदहुसेन हैकल (मृ. 1956 ई.), महमूद तैमूर, तौफ़ीक-अल-हकीम, मुहम्मद फरीद, अबू हदीद, एहसान अब्दुल ओर अज़ीज अबाज़ह।
उच्च कोटि के साहित्यकारों में अल मनफ़लूती (मृ. 1924 ई.) का नाम बहुत प्रसिद्ध है। वह एक विशिष्ट शैली का एकमात्र अधिष्ठाता है। समाज की अव्यवस्थित दशाओं और जीवन के अप्रिय कटु अनुभवों का उसने जो सुंदर चित्रण किय है वह उसी का भाग है। ख़लील जिब्रान (मृ. 1931 ई.) ने भी सुंदर साहित्य का उच्चादर्श प्रस्तुत किया है। इस काल का सबसे बड़ा लेखक निस्संदेह मुस्तफा सादिक़ (मृ. 1967 ई.) है जिसकी पुस्तक बह्युलक़लम अत्यंत महत्वपूर्ण कृति है। आधुनिक काल में इतिहास और समालोचना की ओर भी विशेष रूप से ध्यान दिया गया। प्राचीन ज्ञान संबंधी और साहित्यिक पूँजी का वर्तमान सिद्धांतों के प्रकाश में परीक्षण करने का काम शीघ्रतापूर्वक हो रहा है। डाक्टर ताहा हुसेन, अल-ज़ैयाद और अल-अक्काद इत्यादि अत्यंत उच्च कोटि के साहित्यकार, विचारक और आलोचक हैं। इन लोगों ने इस्लामी सभ्यता, साहित्य के इतिहास, तथा ज्ञान और साहित्य के अन्य अंगों से संबंधित वर्तमान शैली के अनुकरणस्वरूप बहुत सुंदर कृतियाँ प्रस्तुत कीं।
वर्तमान काल के साहित्यकारों ओर आलोचकों में दो दृष्टिकोण प्रत्यक्ष रूप से मिलते हैं। कुछ तो प्राचीन शैली के पक्ष में हैं। वे पश्चिम की समस्त ज्ञान संबंधी एवं साहित्यिक धनराशि और आधुनिक प्रवृत्तियों एवं दृष्टिकोणों से पूरा-पूरा लाभ उठाने के साथ-साथ अपने प्राचीन सिद्धांतों, जातीय परंपराओं तथा मानमर्यादा को भी स्थिर रखना चाहते हैं और इसके विपरीत कुछ अरबी साहित्य को बिलकुल पश्चिमी विचारधारा और वर्णनशैली में ढाल देना चाहते हैं। वे किसी प्राचीन बात को उस समय तक मानने के लिए तैयार नहीं हैं जब तक वह वर्तमान विचारधाराके मापदंड पर पूरी न उतर जाए। इस प्रकार विभिन्न चिंतनसंस्थाओं के उदय और पारस्परिक प्रतिस्पर्धा एवं संघर्षों से अरबी साहित्य विभिन्न प्रकार से लाभान्वित हुआ है। अत: वह अपने क्षेत्र को उत्तरोत्तर विस्तृत करता हुआ शीघ्रतापूर्वक आगे बढ़ता जा रहा है और प्रतिदिन महत्वपूर्ण सामग्री प्रस्तुत कर रहा है जिससे उसकी महिमा और स्थायी अस्तित्व के लक्षण परिलक्षित होते हैं।[१]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सं.गं.--जुर्ज़ी ज़ैदान: अरबी भाषा के साहित्य का इतिहास (अरबी); हन्ना-अल-फाखूरो: अरबी साहित्य का इतिहास (अरबी); आर.ए.निकल्सन: अरबों का साहित्यिक इतिहास (अंग्रज़ी); इंसाइक्लोपीडिया ऑव इस्लाम (अरबी-अंग्रेज़ी); इंसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका (अंग्रज़ी)