अर्थक्रिया
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अर्थक्रिया
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1 |
पृष्ठ संख्या | 243 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पाण्डेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1964 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | डॉ. बलदेव उपाध्याय |
अर्थक्रिया वह क्रिया जिसके द्वारा किसी प्रयोजन (अर्थ) की सिद्धि हो। माधवाचार्य ने 'सर्वदर्शनसंग्रह' में बौद्धदर्शन के प्रसंग में अर्थक्रिया के सिद्धांत का विस्तृत विवेचन किया है। बौद्धों का मान्य सिद्धांत है-अर्थक्रियाकारित्वं सत्तवम् अर्थात् वही पदार्थ या द्रव्य सत्व कहा जा सकता है जौ हमारे किसी प्रयोजन की सिद्धि करता है। घट को हम पदार्थ इसीलिए कहते हैं कि उसके द्वारा पानी लाने का हमारा तात्पर्य सिद्ध होता है। उस प्रयोजन के सिद्ध होते ही वह द्रव्य नष्ट हो जाता है। इसलिए बौद्ध लोग क्षणिकवाद को अर्थात् 'सब पदार्थ क्षणिक हैं' इस सिद्धांत को प्रामाणिक मानते हैं। इसके लिए उन्होंने बड़ी युक्तियाँ दी हैं (द्र. सर्वदर्शन संग्रह का पूर्वनिर्दिष्ट प्रसंग)। न्याय भी इसके रूप को मानता है। प्रामाण्यवाद के अवसर पर इसकी चर्चा न्यायग्रंथों में है। न्यायमत में प्रामाण्य 'परत:' माना जाता है और इसके लिए अर्थक्रिया का सिद्धांत प्रधान हेतु स्वीकार किया गया है। घड़ा पानी को लाकर हमारी प्यास बुझाने में समर्थ होता है, इसलिए वह निश्चित रूप से घड़ा ही सिद्ध होता है। परंतु न्यायमत में इस सिद्धांत के मानने पर भी क्षणिकवाद की सिद्धि नहीं होती।
टीका टिप्पणी और संदर्भ