अर्दशिर
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अर्दशिर
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1 |
पृष्ठ संख्या | 249 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पाण्डेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1964 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | सर रुस्तम पेस्तनजी मसानी |
अर्दशिर अर्दशिर, अर्तशिर एवं अर्तक्ष्थ्रा आदि नामों से भी विहित, अभिलेखों में अपने को अर्त्तज़रसीज (226-241 ई.) के नाम से पुकारता है। वह पायक (बाबेक) का द्वितीय पुत्र था जो ससन का लड़का था और जिसने अंतिम पार्थ वह सम्राट् अर्दवन् को हराया और नवागत पारसी अथवा ससानी साम्राज्य की स्थापना की। ईसा पूर्व छटी शताब्दी में मीड लोग अथवा पश्चिमी पारसी, जिनका उल्लेख 1100 ई. पू. तक के असीरियन अभिलेखों में हुआ है, अखमीनियनों के दक्षिणी पारसीक राजवंश द्वारा परास्त हुए। अखमीनियनों को सिकंदर तथा उसके यूनानी सैनिकों ने चौथी सदी ई.पू. में हराया। यूनानी सत्ता को विस्थापित करनेवाले पार्थियन थे जो तीसरी शती ई. में ससानियनों की बढ़ती हुई शक्ति के आगे नमस्तक हुए। अर्दशिर, जो अहुरमज्द का परम भक्त था, माजी संप्रदाय के संतों के प्रभाव में आया और उसने रोम एवं आर्मीनिया के साथ सफलतापूर्वक युद्ध कर पुरातन जरथुस्त्र मत की प्रतिष्ठा की और न केवल उसे राजधर्म घोषित किया बल्कि उसके अभ्युदय के लिए अथक चेष्टाएँ की। ईरान के विभिन्न राज्यों को एक सुगठित केंद्रीय राजसत्ता के अंतर्गत ले जाकर उसने शासन की व्यवस्था चलाई जिसका आधार जरथुस्त्र के सिद्धांत थे। उसने अपने प्रधान पुरोहित को धार्मिक ग्रंथों के संकलन का आदेश दिया। इन ग्रंथों की खोज उसके अनुवर्ती शासक शापुर प्रथम के राज्यकाल में चलती ही रही, संकलन का कार्य शपुर द्वितीय (309-379 ई.) के राज्यकाल में जाकर समाप्त हुआ। धार्मिक संगठन और राज्य की एकता के सिंद्धांत में पूरा विश्वास रखनेवाला सम्राट् अपने पुत्र शापुर प्रथम को दी गई अपनी अनुज्ञा (टेस्टामेंट) में कहता है- धर्म और राज्य दोनों सगी बहनों के समान हैं जो एक दूसरी के बिना नहीं रह सकतीं। धर्म राज्य की शिला है और राज्य धर्म का रक्षक।
टीका टिप्पणी और संदर्भ