अश्वधावन
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अश्वधावन
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1 |
पृष्ठ संख्या | 289 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पाण्डेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1964 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | मेजर आनंदसिह सजवान |
अश्वधावन अथवा घुड़दौड़ घोड़ों के वेग की प्रतियोगिता है। ऐसी प्रतियोगिता मुख्यत: दुलकी, सरपट और क्षेत्रगामी (क्रॉस-कंट्री) या अवरोधयुक्त (ऑब्स्टैकल) दौड़ों में होती है। अश्वधावन की प्रथा अति प्राचीन है, परंतु प्रथम अश्वधावन प्रतियोगिता, जिसका उल्लेख दिनांक सहित प्राप्त है, 684 ई. पू. की है जो 23 वीं ओलिंपिक प्रतियोगिता थी। 40 वर्ष बाद प्रथम बार 33वें ओलिंपिक में अश्वारोही प्रतियोगिता हुई। यूनान में अश्वधावन सर्वप्रिय खेलों में से था और राष्ट्रीय खेल माना जाता था।
यूनान के समान रोम में भी अश्वधावन प्रचलित था और लोकप्रिय खेलों में समझा जाता था। ऐसा अनुमान किया जाता है कि ग्रेट ब्रिटेन में रोमन अधिपत्य काल में ही अश्वधावन का प्रचलन प्रतियोगिता के रूप में हुआ। प्रांरभ में इस प्रकार के खेल कूद ईसाई धर्म के विरूद समझे जाते थे। पर धर्म इस खेल के आकर्षण को न दबा सका। जर्मनी में सर्वप्रथम ऐसे खेलों को धार्मिक समारोहों में भी स्थान मिला। कुछ काल में अश्वधावन इतना लोकप्रिय हो गया कि राजकुल से भी इसे उत्साह मिलने लगा। सन् 1512 में चेस्टर में सर्वसाधारण के लिए अश्वधावन प्रतियोगिता प्रारंभ हुई। यह प्रतियोगिता नगराध्यक्ष (मेयर) के सभापतित्व में होती थी। इंग्लैंड के जेम्स प्रथम ने इंग्लैंड में अश्वधावन स्थल स्थापित किए और साथ ही घोड़ों की नस्ल सुधारने की भी चेष्टा की। अश्वधावन प्रतियोगिताओं में इंग्लैंड के राजाओं की रूचि बढ़ती गई और पारितोषिक भी उसी अनुपात में बढ़ते गए। सन् 1721 ई. में जार्ज प्रथम ने जीतनेवाले अश्व को 100 गिनी पारितोषिक में दी। अश्वधावन के प्रबंध को सुचारू रूप से चलाने के लिए सन् 1750 में अश्वारोही समिति (जॉकी क्लब) की स्थापना हुई। इस सभा को इंग्लैंड में अश्वधावन संबंधी सभी बातों के अंतिम निर्णय का अधिकार दिया गया।
ग्रेट ब्रिटेन में अश्वधावन एक राष्ट्रीय खेल समझा जाता है और बड़े समारोह के साथ विभिन्न स्थानों में साल में इसकी अनेक बड़ी बड़ी प्रतियोगिताएँ होती हैं। इनमें से ये पांच प्रतियोगिताएँ परंपरागत, प्राचीन और सर्वोतम मानी जाती हैं: (1) सेंट लेजर अश्वधावन प्रतियोगिता, जिसका प्रारंभ 1776 ई. में हुआ। यह डॉनकास्टर में सितंबर मास के मध्य में होती है। (2)ओक्स प्रतियोगिता, जिसका प्रारंभ 1779 ई. में हुआ और जो इप्सम में, मई के अतं में, सुप्रसद्धि डर्बी प्रतियोगिता के तुरंत बाद पड़नेवाले शुक्रवार को होती है। (3) डर्बी प्रतियोगिता, जो सन् 1780 ई. में आरंभ हुई। यह भी इप्सम में दौड़ी जाती है। इप्सम तीव्र मोड़ों तथा कठिन उतार और चढ़ाव के लिए प्रसिद्ध है। इस प्रतियोगिता को विशेष महत्व दिया जाता है। (4) न्यू मार्केट में दौड़ी जानेवाली दो हजार गिली की दौड़ जो 1809 ई. में प्रारंभ हुई। (5) एक हजार गिनी कीे दौड़ भी इसी न्यू मार्केट स्थल में दौड़ी जाती है। इसकी स्थापना सन् 1814 ई. में हुई। इन पाँच दौड़ों के अतिरिक्त बहुत सी दौड़े ऐसकट, गुडवुड आदि क्षेत्रों में दौड़ी जाती हैं और ये भी पर्याप्त महत्वपूर्ण हैं।
सन् 1839 ई. में न्यू मार्केट क्षेत्र में हैंडीपकैप घुड़दौड़ प्रारंभ की गई। इस दौड़ का उद्देश्य सर्वोतम अश्वों के विरूद्ध अन्य अश्वों को भी दौड़ में सफलता प्राप्त करने का अवसर देना था। हैंडीकैप के नियमानुसार अश्वों की ख्याति, धावनशक्ति एवं आयु को ध्यान में रखते हुए उनके सवारों का भार निश्चित किया जाता है। सर्वोतम अश्व को भारी तथा निम्न श्रेणी के अश्व को हल्का अश्वारोही दिया जाता है। किस अश्व को इस प्रकार कितनी सुविधा अथवा असुविधा दी जाए, इसका निर्णाय अश्वरोही समिति (जॉकी क्लब) करती है। सवार के भार के लिए प्रतिबंध रहते हैं। अश्वारोही का अपने भार को आठ नौ स्टोन (स्टोन=लगभग सात सेरसर) तक बनाए रखना अति आवश्यक है। भारी घुड़सवार अनुत्तीर्ण कर दिए जाते हैं।
सन् 1884 में सैन डाउन के प्रबंधकर्ताओं ने एक नई 10,000 पाउंड की प्रतियोगिता की योजना निकाली। यह दौड़ इक्लिप्स के नाम से प्रसिद्ध हुई।
सन् 1839 में द ग्रैंड नैशनल नामक एक और लोकप्रिय घुड़दौड़ का प्रचलन हुआ। यह साढ़े चार मील लंबी दौड़ लिवरपुल में होती है। यथार्थ में यह ग्रेट ब्रिटेन की पुरानी स्टीपनलचेज़ प्रथा का आधुनिक रूप है। पुराने समय में स्टीपचलेज़ सुसंपन्न लोगों नीची भूमि तथा छोटे बड़े अवरोधों को लाँघते हुए, किसी दूरस्थ चर्च की नुकीली मीनार को लक्ष्य मान अश्वारोही एक दूसरे से होड़ लेते थे। परंतु अब विभिन्न प्रकार की बाधाएँ निर्धारित रूप से खड़ी करके प्रतियोगिता एक निश्चित क्षेत्र में होने लगी है।
अश्वधावन अमरीका में भी अति लोकप्रिय है। 17वीं सदी के मध्य से ही इसका प्रचलन वरजीनिया और मेरीलैंड में था।
अमरीका में दुलकी चाल की दौड़ (ट्रॉटिंग रेस) उतनी ही प्रिय है जितनी सरपट दौड़ दुलकी दौड़ दो प्रकार से दौड़ी जाती है: (1) घुड़सवार घोड़े की काठी पर रहता है। (2) एक छोटी दो पहियोंवाली गाड़ी घोड़े में जोतकर अश्वरोही इसी गाड़ी पर बैठता है।
फ्रांस में आधुनिक ढंग से अश्वधावन सन् 1833 से प्रचलित हुआ। प्रिक्स ड ओरलिओ, प्रिक्स डू जॉकी, प्रिक्स डू प्रिंस इंपीरियल और द ग्रैंड प्रिक्स डी पेरिस यहाँ की मुख्य और महत्वपूर्ण दौंड़ों में पेरिस ग्रैंड स्टीपल चेज़प्रमुख है। आस्ट्रेलिया, जर्मनी, इटली तथा अन्य देशों में अश्वधावन मूलत: इंग्लैंड की ही प्रथा नियमों के अनुसार होता है।
अश्वजनन - इसका उद्देश्य उत्तमोत्तम अश्वों की वृद्धि करना है। यह नियंत्रित रूप के केवल चुने हुए उत्तम जाति के घोड़े घोड़ियों द्वारा ही बच्चे उत्पन्न करके संपादित किया जाता है।
अश्व पुरातन काल से ही इतना तीव्रगामी और शक्तिशाली नहीं था जितना वह आज है। नियंत्रित सुप्रजनन द्वारा अनेक अच्छे घोड़े संभव हो सके हैं। अश्वप्रजनन (ब्रीडिंग) आनुवंशिकता के सिद्धांत पर आधारित है। देश विदेश के अश्वों में अपनी अपनी विशेषताएँ होती हैं। इन्हीं गुणविशेषों को ध्यान में रखते हुए घोड़े तथा घोड़ी का जोड़ा बनाया जाता है और इस प्रकार इनके बच्चों में माता और पिता दोनों के विशेष गुणों में से कुछ गुण आ जाते हैं। यदि बच्चा दौड़ने में तेज निकला और उसके गुण उसके बच्चों में भी आने लगे तो उसकी संतान से एक नवीन नस्ल आरंभ हो जाती है। इंग्लैंड में अश्वप्रजनन की ओर प्रथम बार विशेष ध्यान हेनरी अष्टम ने दिया। अश्वों की नस्ल सुधारने के लिए उसने राजनिय बनाए। इनके अंतर्गत ऐसे घोड़ों को, जो दो वर्ष से ऊपर की आयु पर भी ऊँचाई में 60 इंच से कम रहते थे, संतानोत्पत्ति से वंचित रखा जाता था। पीछे दूर दूर देशों से उच्च जाति के अश्व इंग्लैंड में लाए गए और प्रजनन की रीतियों से और भी अच्छे घोड़े उत्पन्न किए गए।
अश्वजनन के लिए घोड़ों का चयन उनके उच्च वंश, सुदृढ़ शरीररचना; सौम्य स्वभाव, अत्याधिक साहस और दृढ़ निश्चय की दृष्टि से किया जाता है। गर्भवती घोड़ी को हल्का परंतु पर्याप्त व्यायाम कराना आवश्यक है। घोड़े का बच्चा ग्यारह मास तक गर्भ में रहता है। नवजात बछड़े को पर्याप्त मात्रा में मां का दूध मिलना चाहिए। इसके लिए घोड़ी को अच्छा आहार देना आश्यक हैं। बच्चे को पाँच छह मास तक ही मां का दूध पिलाना चाहिए। पीछे उसके आहार और दिनचर्या पर यथेष्ट सतर्कता बरती जाती है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ