अष्टपाद

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लेख सूचना
अष्टपाद
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1
पृष्ठ संख्या 292
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पाण्डेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1964 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक डा० भृगुनाथप्रसाद


अष्टपाद (ऐरैकनिका) संधिपदा (आर्थोपोडा) प्राणिसमुदाय (फ़ाइलम) की एक श्रेणी है जिसके अंतर्गत नृप केकड़ा, मकड़ी, बिच्छू, अल्पिकाएँ (माइट) तथा किलनी या चिचड़ियाँ (टिक) जाती हैं। इनमें चलने के लिए आठ टांगें होती हैं, इसीलिए ये अष्टपाद कहलाते हैं। अष्टपाद श्रेणी के सदस्य कीट श्रेणी के सदस्यों से भिन्न होते हैं। अष्टपादों की निम्नलिखित रचनात्मक विशेषताएँ हैं:

शरीर दो मुख्य भागों में विभक्त होता है। शरीर तथा वक्ष दोनों के विलयमान होने से अग्रभाग शिरोर (सेफ़ालोथेरैक्स) तथा पश्चभाग उदर कहलाता है। आंखे सरल होती हैं जिनकी संख्या 2 से 12 तक होती है, शिरोर में छह जोड़े अनुबंध (शरीर से जुड़े अंश) होते हैं, जिनमें प्रथम दो जोड़े ग्राहिका (केलिसेरा) और पादस्पर्शश्रृग (पेडिपैल्पस) के होते हैं। ये शिकार को घेरने तथा पकड़ने के काम आते हैं और अन्य शेष चार जोड़े चलनेवाली टांगें होती हैं। सभी अष्टपाद भोजन को चूसकर खानेवाले प्राणी होते हैं, अतएँव उनमें हन्विकाएँ (मैंडिबुल्स अथवा जबड़े) विद्यमान नहीं होतीं, स्पर्शक (ऐंटेनी) का अभाव होता है तथा अधिकांश में उदर पर कोई अनुबंध नहीं होता।

श्वास प्राय: पुस्तक फुफ्फुम (बुक लंग्स) द्वारा लिया जाता है (पुस्तक फ़ुफ्फुस एक प्रकार का कोष्ठकमय श्वासपथ है। ये कोष्ठक औदरिक तल पर गड्ढों में स्थित रहते हैं; उनमें पुस्तक के पृष्ठों की भांति कई पतले पत्रक होते हैं जिनमें होकर रक्त का परिभ्रमण होता रहता है)। इस समुदाय के सदस्य प्राय: मांसाहारी होते हैं। बिच्छु में विषग्रंथियाँ होती हैं जो एक खोखले एँक से संबद्ध रहती हैं।

अष्टपादों की कई जातियाँ अत्यंत प्राचीन शिलाओं में जीवाश्म के रूप में पाई गई हैं। वे नि:संदेह प्रवालादि युग (सिल्यूरियन पीरियड) में प्राय: आज की सी ही आकृति में विद्यमान थीं। अष्टपादों की लगभग 60,000 जतियों (स्पीशीज़) हैं।

अष्टपाद श्रेणी निम्नलिखित नौ मुख्य वर्गो में विभाजित की जा सकती है: (1) स्कॉर्पियोनाइडिया (बिच्छू वर्ग); (2) पेडीपालपाइडा (हिप स्कॉर्पियन, चाबुकदार बिच्छु); (3) ऐरेनिडा अथवा मकड़ियाँ; (4) पाल्पीग्रेडी अथवा कीनेनिया; (5) सोलीपयूगी अथवा केलोनेथी अर्थात वायुबिच्छु; (6) स्युडोस्कॉर्पियोनाइडिया या मिथ्या बिच्छु या पुस्तक बिच्छु; (7) रिसिन्युलिआइ या क्रिप्टोसिलस; (8) फ्रैलेनजाइडिया या लवन मकड़ियाँ; (9) ऐकैरीना (अल्पिकाएँ, किलनियाँ या चिचड़ियाँ)। इनके अतिरिक्त दो अन्य संदेहात्मक वर्ग (10) ज़िफ़ोसुरा या नृप केकड़ा (किंग क्रैब) और (11) इउरीटेरिडा हैं।

वर्ग (1) स्कार्पियोनाइडिया (बिच्छु वर्ग)-इस वर्ग के अंतर्गत वे अष्टपाद आते हैं जिनका शरीर दो भागों, एक निरंतर शिरोर तथा दूसरा उदर, में बंटा होता है। उदर का अग्रभाग सात चौड़े खंडों का तथा पश्चभाग पांच संकीर्ण खंड़ों का और अंतिम पुच्छीय खंड एँक या पुच्छकंटकयुक्त होता है। ग्राहिकाएँ छोटी ओर नखरी (कीलेट, नख की तरह) होती हैं; पादस्पर्शश्रृंग बड़े तथा नखरयुक्त होते हैं। अग्र उदर के दूसरे खंड के पूष्ठभाग में एक जोड़े कंघी के सदृंश कंकतांग (पेक्टिस) होते हैं। श्वसन कार्य चार जोड़े पुस्तक फुफ्फुसों द्वारा होता है। पुस्तक फुफ्फुस अग्र उदर के तीसरे, चौथे, पांचवे तथा छठे खंडों में स्थित रहते हैं। इस वर्ग के अंतर्गत बिच्छु आते हैं जिनका वर्णन अन्यत्र किया गया है (द्र. 'बिच्छु')
वर्ग (2). पेडीपालपीडा-ये वे अष्टवाद हैं जिनका शरीर प्राय: अखंड शिरोर तथा नौ से लेकर 12 चिपटे उदरखंडों तक का बना होता है; उदर शिरोर से एक संकीर्ण ग्रीवा द्वारा जुड़ा रहता है; ग्राहिकाएँ सरल और पादस्पर्शश्रृंग भी सरल एवं नखरी होते हैं। प्रथम जोड़े पाद के अंतिम सिरे पर बहुसंधित कषा (चाबुक या कोड़ा) होती है। उदर के दूसरे तथा तीसरे खंडों में स्थित दो जोड़े पुस्तक फुफ्फुस ही श्वसन के अवयव होते हैं। इस वर्ग के अंतर्गत फ़ाइनिकस (बिच्छू-मकडियाँ ) आती हैं।
वर्ग (3). ऐरेनिडा-इस वर्ग के उदाहरण मकड़ियाँ हैं, जिनका वर्णन अन्यत्र किया गया। (द्र. 'मकड़ी')
वर्ग (4). पाल्पीग्रेडी-ये वे अष्टपाद हैं जिनके शिरोर के अतिम दो खंड स्वतंत्र होते हैं, उदर दस खंडों में विभुक्त होता है और शिरोर से ग्रीवा द्वारा जुड़ा होता है; पुच्छकंटक लंबे संधित कषा (फ़्लगेलम) के आकार का होता है। ग्राहिकाएँ नखरी तथा पादस्पर्शश्रृंग पाद के सदृश होतीे हैं। श्वसन तीन जुड़े पुस्तक फुफ्फुसों का होता है। इस वर्ग अंतर्गत कोनेनिया आता है।
वर्ग (5). सोलिफ़्यूजी-ये वे अष्टपाद हैं जिनका शरीर तीन भागों में सिर, वक्ष (तीन खंडों का) तथा उदर (दस खंडों) में बंटा रहता है। ग्राहिका नखरी होती है; पादस्पर्शश्रृंग लंबे तथा पाद जैसे होते हैं। श्वसन अंग श्वासप्रणाल (ट्रैकिई) ही होता है। इसी वर्ग के अंतर्गत गोलियोडिस आता है।
वर्ग (6). स्यूडोस्कॉपियोनाइडा-(मिथ्या बिच्छु अथवा कैलोनेथी)-वे अष्टपाद हैं जिनमें शिरोर लगातार (अटूट) होता है, पंरतु कभी कभी पृष्ठ भाग में दो अनुप्रस्थ कुल्या (ग्रूव्ज़) द्वारा विभाजित होता है। उदर 12 खंड़ो में विभाजित रहता हैं, किंतु वह अग्र तथा पश्च उदर में बंटा नहीं रहता और एँकरहित होता है। ग्राहिकाएँ बहुत छोटी और पादस्पर्शश्रृंग बिच्छु जैसे होते हैं। श्वसनकार्य श्वासप्रणाली द्वारा होता है। एक जोड़ा कातनेवाली ग्रंथियाँ वर्तमान रहती हैं। इस वर्ग के अंतर्गत पुस्तक बिच्छु अथवा केलीफ़र आते हैं।

खाद के ढेरों, लकड़ी की दरारों तथा इसी प्रकार के स्थानों में एक विस्तृत तथा रोचक, छोटी मकड़ियों का वर्ग मिलता है। ये मिथ्याबिच्छू हैं जो अपने को छिपाए रहते हैं और फलस्वरूप बहुत कम लोगों के देखने में आते हैं। इनमें स्पर्शश्रृंग बड़े होते हैं जो आक्रमण के अस्त्रका काम देते हैं। इनके कारण ही ये बिच्छु जैसे प्रतीत होते हैं। इनका उदर वलयी होता है और ये कीटों तथा अल्पिकाओं का आहार कर अपना जीवनयापन करते हैं। अंडे तथा बच्चों को मां साथ लिए फिरती हे। शरद् ऋतु में वयस्क मिथ्या बिच्छु रेशम का घोंसला बनाकर उसी में आश्रय लेता है।

वर्ग (7) रिसिन्यूलिआई-इस वर्ग के अतंर्गत वे अष्टपाद आते हैं जिनका शरीर अट्ट प्रकार का होता है। इनके अग्रभाग में एक चलायमान प्रलंब अंग होता है जिसे कुकुलस कहते हैं; उदर ग्रीवा द्वारा शिरोर से जुड़ा रहता है; उदर में यद्यपि चार ही खंड प्रत्यक्ष दिखाई पड़ते हैं, तो भी यथार्थ में नौ होते हैं। ग्राहिकाएँ तथा पादस्पर्शश्रृंग नखर होते हैं। श्वासोच्छवास श्वासप्रणाल द्वारा होता है। इस वर्ग के उदाहरण क्रिप्टोसिलस हैं।
वर्ग (8) फ़ैलेनजाइडा-ये वे अष्ट पाद हैं जिनका शिरोर अखंडित होता है और उदर दस खंडों का तथा शिरोर से सीधा जुड़ा रहता है इनकी ग्रहिकाएँ नखर होती हैं और पादस्पर्शश्रृंग पाद जैसे होते हैं। श्वसन अवयव श्वासप्रणाल का बना होता है। इनमें कताई की किसी प्रकार की ग्रंथियाँ विकसित नहीं होतीं। इस वर्ग के अंतर्गत लवन मकड़ियाँ (हार्वेस्टर स्पाइडर्स) आती हैं।

हार्वेस्टर, हार्वेस्टमेन अथवा लवन मकडियाँ लंबी टांगोंवाले बहुत ही व्यापक, मकड़ी के आकार के प्राणी हैं। वे केवल खेतों में पाए जाते हैं। वे अपने शिकार कीट, मकड़ी तथा अल्पिकाओं का पीछा करते हैं, इसलिए वे जाल का निर्माण नहीं करते। इनका शरीर मकड़ियों से भिन्न ओर ठोस गोलाकार होता है। मैथुन ऋतु में मादा के लिए नर आपस में लड़ते हुए दिखाई पड़ते हैं। मादा पत्थरों के नीचे अथवा जमीन में बिल के भीतर अंडे देती है। बच्चे उत्पन्न होने पर वे मां बाप की आकृति के होते हैं।

वर्ग (9). एकेराइना-ये वे अष्टपाद हैं जिनका शरीर खंडों में विभाजित दृष्टिगोचर नहीं होता। मुखांग काटने अथवा छेदने और चूसने के उपयुक्त बना रहता है। श्वसन अवयव जब वर्तमान रहता है तब श्वास प्रणाल के रूप में होता है। इस वर्ग के उदाहरण अल्पिकाएँ (माइट) तथा चिचड़ियाँ या किलनियाँ (टिक) हैं।

अल्पिकाएँ-अल्पिकाएँ सारे संसार में विपुल संख्या में पाई जाती हैं आर्थिक दृष्टि से इनका भी उतना ही महत्व है जितना मकड़ियों का। साधारणत: अल्पिकाएँ बहुत ही सूक्ष्म प्राणी होती हैं और इनका अध्ययन अणुवीक्षण यंत्र द्वारा हो सकता है। अनेक अल्पिकाओं के शरीर के विभिन्न खंड़ों में बहुत कम अंतर रहता हैं। अल्पिकाओं के शरीर कीटों की भांति अलग अलग खंडों में विभुक्त नहीं होता। मुखांग चबाने, कटाने तथा चूसनेवाले होते हैं। अल्पिकाएँ किलनियों से छोटी होती हैं। ये स्वतंत्र रूप से रहनेवाली और परोपजीवी, दोनों प्रकार की होती हैं। अल्पिकाएँ ताजे या गले सड़े कार्बनिक पदार्थो को खाती हैं। खुजली की अल्पिकाएँ मनुष्य में खुजली उत्पन्न कर देती हैं (द्र. चित्र 6, जो वास्तविक से लगभग 200 गुने पैमाने पर बना है)। इन्हीं से संबंधित एक जाति कुत्तों में खुजली उत्पन्न करती है। अल्पिकाओं का स्वभाव एक दूसरे से भिन्न होता है और स्वभाव के अनुकूल इनके शरीर की रचना में भी प्राय: बहुत भिन्नता होती है। भोजन के अनुसार मुखांग विशेष रूप से भिन्न होते हैं। वासस्थान के अनुसार इनके पैर की रचना में भी विशेषता रहती है। पैरों के अंतिम सिरे पर छोटे छोटे रोम या अंकुश चूषक होते हैं। अल्पिकाएँ या तो नेत्रहीन होती हैं, या एक या अनेक आंखोंवाली । इनके जीवनइतिहास में प्राय: रूपांतरण होता है: प्रथम अंडा बाद में डिंभ (लार्वा), जिसमें पैरों की संख्या कम होती है। पोतक (निफ़) की अवस्था हो सकती है या नहीं भी। उसके बाद वयस्क अवस्था होती है। अल्पिकाएँ या तो स्वतंत्र बिचरनेवाली होती हैं और मिट्टी में, समुद्र में तथा नदियों और तालाबों में पाई जाती हैं अथवा दूसरे प्राणियों पर जीवननिर्वाह करनेवाली होती हैं।

थूथनयुक्तअल्पिकाओं (स्नाउट माइट्स) का शरीर मुलायम होता है। इनके पैर लंबे होते हैं और ये कीटों की तलाश में बड़ी तेजी से दौड़ती हैं। ये शीतल तथा आर्द्र स्थानों में रहती हैं और शरद् ऋतु में गिरे पत्तों के नीचे पाई जाती हैं। कुछ अल्पिकाएँ, जेसे कर्तनक (कताईवाली) अल्पिकाएँ, रेशम की तरह तागा उत्पन्न करती हैं; कुछ अल्पिकाओं में चोंच होती है, जो सूई जैसी हन्विकाओं (मैडिबुल्स) की बनी होती हैं। बड़े अनुबंध (अंग),जिनमें कंघे के समान नखर होते हैं, शिकार को पकड़ने के काम में लाए जाते हैं। कृषक किलनियाँ (हार्वेस्ट माइट) मनुष्य पर आक्रमण करती हैं। उनके काटने से त्वचा में बड़े जोर की खुजलाहट और जलन होती हैं। कटनी के दिनों में खेतों में कटनी करनेवाले प्राय: इनके शिकार हो जाते हैं। बगीचों में पाई जानेवाली लाल मकड़ी (बीरबहूटी) वस्तुत: बुननेवाली एक अल्पिका है। ये अधिक संख्या में होने पर पौधों की कोमल कलियों को क्षति पहुँचाती हैं। एक दूसरे प्रकार की बुनकर अल्पिकाएँ (वीवर माइट) चिड़ियों पर निर्वाह करनेवाली होती हैं।

प्राय: सभी जल अल्पिकाएँ मीठे जल में पाई जाती हैं, यद्यपि कुछ खारे जल में तथा कुछ समुद्र में भी पाई जाती हैं। वयस्क जल अल्पिकाएँ प्राय: स्वतंत्र विचरनेवाली होती हैं। किंतु एक प्रकार की जल अल्पिका पराश्रयी होती है और शुक्तियों (सितुहियों) के गलफड़ों में पाई जाती हैं। ये अल्पिकाएँ हरे, नीले, पीले आदि अनेक सुंदर रंगों की होती हैं। अधिकांश में काले और पीले का संमिश्रण होता है। वे अन्य अल्पिकाओं की अपेक्षा बड़ी होती हैं। उनमें बहुत सी जल की तीव्र धारा में रहती हैं। कुछ अल्पिकाएँ सामाजिक होती हैं (अर्थात्‌ समूहों में रहती हैं) और तालाबों के घास पात के बीच पाई जाती हैं। ये मांसाहारी होती हैं। खुजलीवाली अल्पिकाएँ सारपोप्टिज़ स्कैबीज़ कहलाती हैं और वे बहुधा अंगुलियों के बीच की कोमल त्वचा में रहती हैं। वे शरीर के अन्य भागों में भी रह सकती हैं। मादा अल्पिकाएँ त्वचा में घुस जाती हैं और उन्हीं में अंडे देती हैं, किंतु नर त्वचा में घुसता नहीं और ऊपरी सतह पर स्वतंत्र होकर विचरण करता है। खुजली के प्रसार का कारण किसी एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में अल्पिकाओं का संक्रमण होता है। बहुधा हाथ मिलाकर अभिवादन करने से यह एक से दूसरे व्यक्ति में पहुँच जाती हैं।

ये उंगलियों के बीच घर कर लेती हैं। अंडे देने के लिए जब ये त्वचा में सुरंगे बनाती हैं, तो बड़ी खुजली होती है।

डिमोडेक्स फ़ॉलिकुलेरम नामक अल्पिका मनुष्य के चेहरे में स्थित त्वग्वसा ग्रंथियों पर आश्रित रहती हैं। यह प्राय: कुतों की त्वचा में भी पाई जाती है। एकेरिश की एक जाति कुचला में, जो बड़े जानवरों के लिए बहुत ही विषैला सिद्ध होता है, पाई जाती है। भेड़ों में खुजली, सारकोटिस ओविस नामक अल्पिका द्वारा होती है। रोगग्रस्त भेड़ को किसी विषैले घोल में डुबोकर बाहर निकाल लेने से इस बीमारी से छुटकारा मिल सकता है। कुछ अल्पिकाएँ पौधों पर रहती हैं और उनमें एक बीमारी, जिसे अंग्रेजी में गॉल कहते हैं, पैदा करती हैं

किलनियाँ अथवा चिचड़ियाँ (टिक्स)-इनका अध्ययन मनुष्य के लिए बहुत ही रोचक हैं, क्योंकि से सभी पराश्रयी होती हैं और पोषक (होष्ट) के रक्त पर निर्वाह करती है। ये रेतीले स्थानों में छोटी छोटी झाड़ियों तथा छोटे छोटे पौधों पर रहती हैं। इन स्थानों पर प्रत्येक किलनी छोटी किंतु बहुत क्रियाशील होती हैं। यह वहाँ बैठनेवाली चिड़ियों के परों तथा स्तनधारियों की टांगों के बालों में लग जाती है और अपने पैने मुखांगों से उनकी त्वचा को बेधकर रक्त चूसती है। संसार में अनेक प्रकार की किलनियाँ होती हैं, जो मुर्गो, गाय, भैंसो, कुत्तों तथा मनुष्यों पर आश्रयी होती हैं। कई देशों में वे अनेक प्रकार के छोटे छोटे प्राणियों , जैसे गिलहरियों,पर भी निर्वाह करनेवाली होती हैं। किलनियाँ बीमारी के जीवाणुओं का प्रसार भी करती हैं, जैसे मनुष्य में टिक ज्वर तथा गाय, भैंसों में एक विशेष प्रकार का ज्वर। वे खेतों में मिट्टी के भीतर हजारों की संख्या में अंडे देती हैं, जिनसे षट्पदधारी डिंभ (लार्वा) उत्पन्न होते हैं। ये घास पर चढ़कर, जमकर बैठ जाते हैं और तब तक बैठे रहते हैं जब तक कोई मनोनुकूल प्राणी उधर से नहीं निकलता। जब इस प्रकार का कोई प्राणी दिखाई पड़ता जाता है, ये घास छोड़कर उसकी त्वचा से चिपट जाते हैं। इस प्रकार पैर जमा लेने पर ये अपनी पैनी चोंच (चंचु) पोषक के मासं में घुसेड़ देते हैं ओर उसका रक्त चूसकर अपने शरीर की वास्तविक नाप से दुगुना फूल उठते हैं। जब भूख मिट जाती हैं तब ये पोषक से पृथक होकर भूमि पर गिर जाते हैं। रक्त से फूले हुए होने के कारण ये चल फिर नहीं सकते, इसीलिए कई सप्ताहों तक इसी अवस्था में पड़े रहते हैं या भूमि के भीतर घुस जाते हैं। वहाँ विश्राम के साथ रक्त का पाचन करते हैं।

बाद में डिंभ (लार्वा) त्वचा (केंचुल) छोड़ देता है और तब वह पोतक (निंफ़) अवस्था में पदार्पण करता है। पोतक बन जाने पर एक बार फिर घास पर चढ जाता है और मनोनुकूल पोषक की प्रतीक्षा की पुनरावृत्ति करता है। पोषक के उपलब्ध हो जाने पर उससे चिपक और रक्त चूसकर पुन: पृथ्वी पर गिर पड़ता है। पुन: एक बार त्वचा छोड़ता है। पोतक के त्वचा छोड़ने के बाद वयस्क नर या मादा किलनी उत्पन्न होती है। ऐसी किलनियाँ किसी ऐसे तीसरे प्राणी की प्रतीक्षा करती हैं जिनके रक्त का वे शोषण कर सकें और जिनके ऊपर रहकर मैथुन कर सकें। मैथुन कर चुकने के बाद मादा पुन: धरातल पर गिर जाती है और अंडे देती है। किलनियों का यह जीवन इतिहास जटिल हैं और उनके मरने की संभावना बहुत अधिक रहती है। वंश की संरक्षा मादा द्वारा बहुत बड़ी संख्या में अंडे दिए जाने से होता है (चित्र 8)।

वर्ग (10) ज़िफ़ोस्यूरा-ये वे अष्टपाद हैं जिनका शिरोर एक चौड़े वर्म (कार्पेस) से ढका रहता है और उदर छह मध्यकाय (मेसोसोमैटिक) खंडों का तथा एक लंबे संकीर्ण पुच्छखंड अथवा एँकयुक्त पश्चकाय (मेटासोमा) का होता हैं। शिरोर भाग में एक जोड़ी ग्राहिका तथा पांच जोड़े पाद होते हैं। उदर के अग्रभाग में जुड़े पट्ट (प्लेट) जैसे अनुबंध होते हैं जो गलफड़ पटल (ओपनरक्तुलम) हैं। इसके पीछें चिपटे तथा एक दूसरे पर चढ़े पांच जोड़े अनुबंध होते हैं। श्वसन के अवयव परतों के आकार के गलफड़ (गिल्स) होते हैं, जो उदरीय अनुबंधों से जुड़े होते हैं। इस वर्ग के अंतर्गत नृप केकड़े (किंग क्रैब) आते हैं। इन्हें लीमुलस अथवा अश्व-खुर केकड़ा (हॉर्स-शू क्रैब) भी कहते हैं।

नृप केकड़ा-इसका शरीर दो भागों में विभक्त होता है: शिरोर तथा उदर। शिरोर की आकृति घोड़े के खुर जैसी होती है और वह चौड़े वर्म से ढका रहता है। उदर कुछ कुछ षट्कोणाकार होता है जो एक लंबे पुच्छकंटक (कॉडल स्पाइन) में समाप्त होता है। इसके अग्रखंड अथवा शिरोर में छह जोड़े अनुबंध लग रहते हैं जिनमें प्रथम जोड़ा ग्राहिकाएँ होती हैं और अन्य पांच जोड़े चलने के काम आते हैं। उदर पर सामने की और एक जोड़ा थाली जैसा अनुबंध लगा रहता है, जिससे मिलकर गलफड़ पटल बनता है। यह उत्तरी अमरीका, वेस्टइंडीज तथा ईस्टइंडीज़ में नदियों के मुहाने पर अथवा छिछली खाड़ियों में पाया जाता है। यह बालू में बिल बनाकर रहता है, किंतु पानी के नीचे कुछ दूर ऊपर तक भी उठ सकता है। इसका आहार समुद्री वलयी जंतु होते हैं।

नृप केकड़े में कुछ ऐसी विशेषताएँ होती हैं जो एक ओर तो अष्टपाद श्रेणी ओर दूसरी ओर कठिनि (क्रस्टेशिया) श्रेणी की शरीरिक रचना से मिलती जुलती हैं। कठिनि श्रेणी के सदृश इसके भी उदरीय खंड में पांच जोड़े पट्ट (प्लेट) के समान बंधक (अपेंडेजेज़) होते हैं। जीवनचक्र के विकास में एक अवस्था डिंभ की होती है। इसके डिंभ को त्रिखंड डिंभ (ट्राइलोबाइट लार्वा) कहते हैं। इसका डिंभ कठिनि के डिंभ से मिलता जुलता है। नूप केकड़ा कठिनि तथा अष्टपाद श्रेणियों के बीच एक प्रकार की योजक कड़ी है। साधारण नृप केकड़े (पैरालिथोडीज़ कैमशेटिका) का मांस लोग खाते हैं। जापान और रूस में इनकी डिब्बाबंदी होती है ओर डिब्बाबंद मांस दूर दूर तक जाता है। ये केकड़े टाँग फैलाकर नापे जाने पर चार फुट तक के होते हैं।
वर्ग (11). इउरीटेरिडा-ये वे अष्टपाद हैं जिनमें अपेक्षाकृत शिरोर छोटा होता है। इसके पश्चात्‌ 12 स्वतंत्र खंड ओर एक लंबा तथा संकीर्ण अंतिम खंड होता है। शिरोर में पाद सद्श एक जोड़ी ग्राहिकाएँ तथा पाँच जोड़े पाद सदृश अन्य अनुबंध होते हैं, जिनमें चार जोड़े चलने के लिए होते हैं। बाह्म त्वचा पर विलक्षण प्रकार की नक्काशी होती है।

इस वर्ग के अंतर्गत प्राथमिक युग के बड़े बड़े इउरीटिरस नामक प्राणी आते हैं, जो अब लुप्त हो गए हैं।[१]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सं.ग्रं.-टी.जे.पार्कर ऐंड विलियम ए. हैसवेल: ए. टेक्स्टबुक ऑव जुऑलोजी, भाग1, ऑडहैम्स प्रेस, लिमिटेड, लंदन (1951); जॉन हेनरी कॉम्सटाक : दि सायंस ऑव लिविंग थिंग्स; चंपतस्वरूप गुप्त: जंतुविज्ञान; डी.आर.पुरी : प्राणिशास्त्र; रघुबीर : माध्यामिक प्राणिकी।