अस्पताल
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अस्पताल
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1 |
पृष्ठ संख्या | 312 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पाण्डेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1964 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | श्री भगवानदास वर्मा; डा० कैलासचन्द्र शर्मा |
अस्पताल या चिकित्सालय तथा औषधालय मानव सभ्यता के आदिकाल से ही बनते चले आए हैं। वेद और पुराणों के अनुसार स्वयं भगवान ने प्रथम चिकित्सक के रूप में अवतार लिया था। 5,000 वर्ष या इससे भी प्राचीन इतिहास में चिकित्सालयों के प्रमाण मिलते हैं, जिनमें चिकित्सक तथा शल्यकोविद (सर्जन) काम करते थे। ये चिकित्सक तथा सर्जन रोगियों को रोगमुक्त करने और उनके आर्तिनाशन तथा मानवता की ज्ञानवृद्धि के भावों से प्रेरित होकर स्वयंसेवक की भांति अपने कर्म में प्रवृत्त रहते थे। ज्यों - ज्यों सभ्यता तथा जनसंख्या बढ़ती गई त्यों त्यों सुसज्जित चिकित्सालयों तथा सुसंगठित चिकित्सा विभाग की आवश्यकता भी प्रतीत होने लगी। अतएव ऐसे चिकित्सालय सरकार तथा सेवाभाव से प्रेरित जनसमुदाय की ओर से खोले जाने का प्रमाण इतिहास में मिलता है। हमारे देश में दूर - दूर के गाँवों में भी कोई न कोई ऐसा व्यक्ति होता था, चाहे वह अशिक्षित ही हो, जो रोगियों को दवा देता और उनकी चिकित्सा, करता था। इसके पश्चात् आधुनिक समय में तहसील तथा जिलों के अस्पताल बने जहाँ अंतरंग (इनडोर) और बहिरंग (आउटडोर) विभागों का प्रबंध किया गया। आजकल बड़े बड़े नगरों मेंअस्पताल बनाए गए हैं, जिनमें भिन्न - भिन्न चिकित्सा विभागों के लिए विशेषज्ञ नियुक्त किए गए हैं। प्रत्येक आयुर्विज्ञान (मेडिकल) शिक्षण संस्था के साथ बड़े बड़े अस्पताल संबद्ध हैं और प्रत्येक विभाग एक विशेषज्ञ के अधीन हैं, जो कालेज में उस विषय का शिक्षक भी होता है। आजकल यह प्रयत्न किया जा रहा है कि गाँवों में भी प्रत्येक पाँच मील के क्षेत्र में चिकित्सा का एक केंद्र अवश्य हो।
आवश्यकताएँ
आधुनिक अस्पताल की आवश्यकताएँ अत्यंत विशिष्ट हो गई हैं और उनकी योजना बनाना भी एक विशिष्ट कौशल या विद्या है। प्रत्येक अस्पताल का एक बहिरंग विभाग और एक अंतरंग विभाग होता है, जिनका निर्माण वहाँ की जनता की आवश्यकताओं के अनुसार किया जाता है।
बहिरंग विभाग
बहिरंग विभाग में केवल बाहर के रोगियों की चिकित्सा की जाती है। वे औषधि लेकर या मरहम पट्टी करवाकर अपने घर चले जाते हैं। इस विभाग में रोगी के रहने का प्रबंध नहीं होता। यह विभाग नगर के बीच में होना चाहिए जहाँ जनता का पहुँचना सुगम हो। इसके साथ ही एक आपात (इमरजेंसी) विभाग भी होना चाहिए जहाँ आपद्ग्रस्त रोगियों का, कम से कम, प्रथमोपचार तुरंत किया जा सके। आधुनिक अस्पतालों में इस विभाग के बीच में एक बड़ा कमरा, जिसमें रोगी प्रतीक्षा कर सके, बनाया जाता है। उसमें एक ओर 'पूछताछ' का स्थान रहता है और दूसरी और अभ्यर्थक (रिसेप्शनिस्ट) का कार्यालय, जहाँ रोगी का नाम, पता आदि लिखा जाता है और जहाँ से रोगी को उपयुक्त विभाग में भेजा जाता है। अभ्यर्थक का विभाग उत्तम प्रकार से, सब सुविधाओं से युक्त, बनाया जाए तथा उसमें कर्मचारियों की पर्याप्त संख्या हो, जो रोगी को उपयुक्त विभाग में पहुँचाएँ तथा उसकी अन्य सब प्रकार की सहायता करें। बहिरंग विभाग में निम्नलिखित अनुविभाग होने चाहिए: 1.चिकित्सा, 2. शल्य, 3. व्याधिकी (पैथॉलोजी), 4. स्त्रीरोग, 5. विकलांग (ऑर्थोपीडिक), 6. शलाक्य (इयर - नोज़ - ्थ्राोट), 7. नेत्र, 8. दंत, 9. क्षयरोग, 10. चर्म और रतिजरोग 11.बालरोग (पीडियेट्रिक्स)और 12. आपत्ति अनुविभाग। प्रत्येक अनुविभाग में एक विशेषज्ञ, उसका हाउस - सर्जन, एक क्लार्क, एक प्रविधिज्ञ (टेकनीशियन), एक कक्ष - बाल - सेवक (वार्ड - बॉय) और एक अर्दली होना चाहिए। प्रत्येक अनुविभाग निदानविशेष तथा चिकित्साविशेष के आवश्यक यंत्रों और उपकरणों से सुसज्जित होना चाहिए। व्याधिकी विभाग की प्रयोगशाला में नित्यप्रति की परीक्षाओं के सब उपकरण होने चाहिए, जिससे साधारण आवश्यक परीक्षाएँ करके निदान में सहायता की जा सके। विशेष परीक्षाओं तथा विशेषज्ञों द्वारा परीक्षा किए जाने के पश्चात् ही रोग का निदान हो सकता है। और रोग निश्चित हो जाने के पश्चात् ही रोग का निदान हो सकता है और रोग निश्चित हो जाने के पश्चात ही चिकित्सा प्रारंभ होती है। अतएव रोगी को अधिक समय तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है। फलत: उसके बैठने तथा उसकी अन्य सुविधाओं का उचित प्रबंध होना चाहिए।
चिकित्सा
चिकित्सा संबंधी कार्य दो भागों में विभक्त किए जा सकते हैं: (1) नुसखे के अनुसार ओषाधि देकर रोगी के विदा करना, और (2) साधारण शस्त्रकर्म, उद्वर्तन, तापचिकित्सा आदि का आयोजन करना। इस कारण प्रत्येक बहिरंग विभाग में उतम, सुसज्जित, कुशल सहायकों तथा नर्सो से युक्त एक आपरेशन थियटर होना चाहिए। उद्धर्तन्, अन्य भौतिकीचिकित्सा - प्रक्रियाओं तथा प्रकाश - चिकित्साओं के लिए उनके उपयुक्त विभागों को उचित प्रबंध होना चाहिए। इससे अंतरंग विभाग से रोगी को शीघ्र नीरोग करके मुक्त किया जा सकेगा और वहाँ विषम रोगियों की चिकित्सा के लिए अधिक स्थान और समय उपलब्ध होगा।
आपद् - अनुविभाग - बहिरंग विभाग का एक आवश्यक अंग आपद्अनुविभाग है। इसमें अहर्निश 24 घंटे काम करने के लिए कर्मचरियों की नियुक्ति होनी चाहिए। निवासी सर्जन (रेज़िडेंट - सर्जन), नर्स, अर्दली, बालसेवक, मेहतर आदि इतनी संख्या में नियुक्त किए जाएँ कि चौबीसों घंटे रोगी को उनकी सेवा उपलब्ध हो सके। इस विभाग में संक्षोभ (शॉक) की चिकित्सा विशेष रूप से करनी होगी। इस कारण इस चिकित्सा के लिए सब प्रकार के आवश्यक उपकरणों तथा औषधियों से यह विभाग सुसज्जित होना चाहिए। इसकी तत्परता तथा दक्षता पर ही रोगी का जीवन निर्भर रहता है। अतएव यहाँ के कर्मचारी अपने कार्य में निपुण हों, तथा सभी प्रकार की व्यवस्था यहाँ अति उत्तम होनी चाहिए। ग्लूकोज़, प्लाज्मा, रक्त, तापचिकित्सा के यंत्र, उत्तेजक औषधियाँ, इंजेक्शन आदि पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होने चाहिए। यहाँ एक्स - ऐ का एक चलयंत्र (मोबाइल प्लांट) भी होना चाहिए, जिससे अस्थिभंग, अस्थि और संधि संबंधी विकृतियाँ फुफ्फुस के रो ग या हृदय की दशा देखकर रोग का निश्चय किया जा सके। यंत्रों तथा वस्त्रों आदि के विसंक्रमण के लिए भी पूर्ण प्रबंध होना आवश्यक है। यदि यह विभाग किसी शिक्षासंस्था के अधीन हो तो वहाँ एक व्याख्यान या प्रदर्शन का कमरा होना आवश्यक है, जो इतना बड़ा हो कि समस्त विद्यार्थी वहाँ एक साथ बैठ सकें। शिक्षकों के विश्राम के निमित्त तथा शिक्षासामग्री रखने और रात्रि में काम करनेवाले कर्मचारियों के लिए भी अलग कमरे हों। सारे विभाग में उद्धावन पद्धति द्वारा शोधित होनेवाले शौचस्थान होने चाहिए। ऐसे शौचस्थानों का कर्मचारियों तथा रोगियों के लिए पृथक् पृथक् होना आवश्यक है।
इस विभाग का संगठन करते समय वहाँ होनेवाले कार्य, कार्यकर्ताओं की संख्या, प्रत्येक अनुविभाग में चिकित्सार्थी रोगियों की संख्या, उनकी शारीरिक आवश्यकताएँ तथा भविष्य में होने वाले अनुमित विस्तार, इन सब बातों का पूर्ण ध्यान रखना आवश्यक है। प्रतिदिन का अनुभव है कि जिस भवन का आज निर्माण किया जाता है वह थोड़े ही समय में कार्याधिक्य के कारण अपर्याप्त हो जाता है। पहले से ही इसका विचार कर लेना उचित है।
ऊपर जो कुछ कहा गया है उससे स्पष्ट है कि बहिरंग विभाग में बहुत अधिक व्यय करना पड़ता है। आधुनिक समय में चिकित्सा का सिद्धांत ही यह है कि कोई चाहे कितना ही निधन क्यों न हो, उसे उत्तम से उत्तम चिकित्सा के आयोजनों तथा ओषधियों से अपनी निर्धनता के कारण वंचित न होना पड़े। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए कितने धन की आवश्यकता है इसका सहज ही अनुमान किया जा सकता है। सरकार, देशप्रेमी और श्रीसंपन्न व्यक्तियों की सहायता से इस उद्देश्य की पूर्ति असंभव न होनी चाहिए।
अंतरंग विभाग - अंतरंग विभाग में विषम रोगों तथा रोगी की अवस्था को देखकर चिकित्सा करने का प्रबंध होता है। प्रांत, नगर या क्षेत्र की आवश्यकताओं ओर वहाँ उपलब्ध आर्थिक सहायता के अनुसार ही छोटे या बड़े विभाग बनाए जाते हैं। थोड़े (दस या बारह) रोगियों से लेकर सहस्र रोगियों को रखने तक के अंतरंग विभाग बनाए जाते हैं। यह सब पर्याप्त धनराशि ओर कर्मचारियों की उपलब्धि पर निर्भर है। बहुत बार धन उपलब्ध होने पर भी उपयुक्त कर्मचारी नहीं मिलते। हमारे देश और उत्तर प्रदेश में उपचारिकाओं (नर्सों) की इतनी कमी है कि कितने ही अस्पताल खाली पड़े हैं। इसका कारण है मध्यम श्रेणी के परिवारों की उपचार व्यवस्था में अरुचि। कुछ सामाजिक कारणों से उपचारिकाओं को बहुत अच्छी दृष्टि से नहीं देखा जाता; यह नितांत भ्रममूलक है। जनता की ऐसी धारणाओं में तनिक भी औचित्य नहीं है।
अंतरंग विभाग में भर्ती किए जाने के पश्चात् रोगी की व्यवस्थाओं का पूर्ण अन्वेषण विशेषज्ञ अपने सहायकों तथा व्याधिकी प्रयोगशाला, एक्स - रे विभाग आदि के सहयोग से करता है। इस कारण इन विभागों को नवीनतम उपकरणों से सुसज्जित रखना आवश्यक है। शल्य विभाग के लिए इसका महत्व विशेष रूप से अधिक है जहाँ कर्मचारियों का दक्ष होना और उनमें पारस्परिक सहयोग सफलता के लिए अनिवार्य है। कक्ष - बाल - सेवक से लेकर विशेषज्ञ सर्जन तक सबके सहयोग की आवश्यकता है। केवल एक नर्स की असावधानी से सारा शस्त्रकर्म असफल हो सकता है। एक्स - रे तथा उत्तम आपरेशन थिएटर इस विभाग के अत्यंत आवश्यक अंग हैं।
उतम उपचार सारी संस्था की सफलता की कुंजी है; इसी से अस्पताल का नाम या बदनामी होती है। अस्पताल तथा आधुनिक चिकित्सापद्धति का विशेष महत्वशाली अंग उपचारिकाएँ हैं। इस कारण उत्तम शिक्षित उपचारिकाओं को तैयार करने की आयोजना सरकार की ओर से की गई है।
अस्पताल का निर्माण - आधुनिक अस्पतालों का निर्माण इंजीनियरिंग की एक विशेष कला बन गई है। अस्पतालों के निर्माण के लिए राज्य के मेडिकल विभाग ने आदर्श मानचित्र (प्लान) बना दिए हैं, जिनमें अस्पताल की विशेष आवश्यकताओं और सुविधाओं का ध्यान रखा गया है। सब प्रकार के छोटे - बड़े अस्पतालों के लिए उपयुक्त नकशे तैयार कर दिए गए हैं जिनके अनुसार अपेक्षित विस्तार के अस्पताल बनाए जा सकते हैं।
अस्पताल बनाने के पूर्व यह भली - भाँति समझ लेना उचित है कि अस्पताल खर्च करनेवाली संस्था है, धनोपार्जन करनेवाली नहीं। आधुनिक अस्पताल बनाने के लिए आरंभ में ही एक बड़ी धनराशि की आवश्यकता पड़ती हैं; उसे नियमित रूप से चलाने का खर्च उससे भी बड़ा प्रश्न है। बिना इसका प्रबंध किए अस्पताल बनाना भूल है। धन की कमी के कारण आगे चलकर बहुत कठिनाई होती है और अस्पताल का निम्नलिखित उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता:
नत्वहं कामये राज्यं न स्वर्ग नापुनर्भवम्।
कामये दु:खतप्तानाम् प्राणिनामार्तिनाशनम्।।हमारा देश अति विस्तृत तथा उसकी जनसंख्या अत्यधिक है। उसी प्रकार यहाँ चिकित्सा संबंधी प्रश्न भी उतने ही विस्तृत और जटिल हैं। फिर जनता की निर्धनता तथा शिक्षा की कमी इस प्रश्न को और भी जटिल कर देती है। इस कारण चिकित्साप्रबंध की आवश्यकताओं के अध्ययन के लिए सरकार की ओर से कई बार कमेटियाँ नियुक्त की गई हैं। भोर कमेटी ने जो सिफारिशें की हैं आनके अनुसर प्रत्येक 10 से 12 सहस्र जनसंख्या के लिए 75 रोगियों को रखने योग्य एक ऐसा अस्पताल होना चाहिए जिसमें छह डाक्टर और छह उपचारिकाएँ तथा अन्य कर्मचारी नियुक्त हों। यह प्राथमिक अंग कहलाएगा। ऐसे 20 प्राथमिक अंगों पर एक माध्यमिक अंग भी आवश्यक है। यहाँ के अस्पताल में 1,000 अंतरंग रोगियों को रखने का प्रबंध हो। यहाँ प्रत्येक चिकित्साशाखा के विशेषज्ञ नियुक्त हों तथा परिचारिकाएँ और अन्य कर्मचारी भी हों। एक्स - रे, राजयक्ष्मा, सर्जरी, चिकित्सा, व्याधिकी, प्रसूति, अस्थिचिकित्सा आदि सब विभाग पृथक - पृथक हों। माध्यमिक अंग से परे ओर उससे बड़ा, केंद्रीय या जिले का विभाग या अंग हो, जहाँ उन सब प्रकार की चिकित्साओं का प्रबंध हो, जिनका प्रबंध माध्यमिक अग के अस्पताल में न हो। यही पर सबसे बड़े संचालक का भी स्थान हो।
इस आयोजन का समस्त अनुमित व्यय भारत सरकार की संपूर्ण आय से भी अधिक है। इस कारण यह योजना अभी तक कार्यान्वित नहीं हो सकी है।
विश्ष्टि अस्पताल - आजकल जनसंख्या और उसी के अनुसार रोगियों की संख्या में वृद्धि होने से विशेष प्रकार के अस्पतालों का निर्माण आवश्यक हो गया है। प्रथम आवश्यकता छुतहे रोगों के पृथक अस्पताल बनाने की होती है, जहाँ केवल छुतहे रोगी रखे जाते हैं। इसी प्रकार राजक्ष्मा के रोगियों के लिए पृथक अस्पताल आवश्यक है। मानसिक रोग, अस्थिरोग, बालरोग, स्त्रीरोग, प्रसूतिगृह, विकलांगता आदि के लिए बड़े नगरों में पृथक अस्पताल आवश्यक हैं। छोटे नगरों में एक ही अस्पताल में कम से कम भिन्न - भिन्न अपेक्षित विभाग बनाना आवश्यक है। इन अस्पतालों का निर्माण भी उनके आवश्यकतानुसार भिन्न - भिन्न प्रकार से करना होता है और उसी प्रकार वहाँ के कर्मचारियों की नियुक्ति की जाती हैं। इन सब प्रकार के अस्पतालों के मानचित्र तथा वहाँ की समस्त आवश्यकताओं की सूची सरकार ने तैयार कर दी है, जिनके अनुसार सब प्रकार के अस्पताल बनाए जा सकते हैं।
विश्राम विभाग - बड़े नगरों में, जहाँ अस्पतालों की सदा कमी रहती है, उग्र अवस्था से मुक्त होने के पश्चात, दुर्बल स्वास्थ्योन्मुख व्यक्तियों तथा अत्यधिक समयसाध्य चिकित्सावाले रोगियों के लिए पृथक विभाग - रुग्णालय (इनफ़र्मरी) - बनाना आवश्यक है। इससे अस्पतालों की बहुत कुछ कठिनाई कम हो जाती है और उग्रावस्था के रोगियों को रखने के लिए स्थान सुगमता से मिल जाता है।
चिकित्सालय और समाजसेवक - आजकल समाजसेवा चिकित्सा का एक अंग बन गई है और दिनों - दिन चिकित्सालय तथा चिकित्सा में समाजसेवी का महत्व बढ़ता जा रहा है। औषधोपचार के अतिरिक्त रोगी की मानसिक, कौटुंबिक तथा सामाजिक परिस्थितियों का अध्ययन करना और रोगी की तज्जन्य कठिनाइयों को दूर करना समाजसेवी का काम है। रोगी की रोगोत्पति में उसकी रुग्णावस्था में उसके कुटुंब को किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है तथा रोग से या अस्पताल से रोगी के मुक्त हो जाने के पश्चात कौन - सी कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा, उनका रोगी पर क्या प्रभाव होगा आदि रोगी के संबंध की ये सब बातें समाजसेवी के अध्ययन और उपचार के विषय हैं। यदि रोगमुक्त होने के पश्चात वह व्यक्ति अर्थसंकट के कारण कुटुंबपालन में असमर्थ रहा, तो वह पुन: रोगग्रस्त हो सकता है। रोगकाल में उसके कुटुंब की आर्थिक समस्या कैसे हल हो, इसका प्रबंध समाजसेवी का कर्तव्य है। इस प्रकार की प्रत्येक समस्या समाजसेवी को हल करनी पड़ती है। इससे समाजसेवी का चिकित्सा में महत्व समझा जा सकता है। उग्र रोग की अवस्था में उपचारक या उपचारिका की जितनी आवश्यकता है, रोगमुक्ति के पश्चात् उस व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा तथा जीवन को उपयोगी बनाने में समाजसेवी की भी उतनी ही आश्यकता है।
आयुर्वैज्ञानिक शिक्षासंस्थाओं में अस्पताल - आयुर्वैज्ञानिक शिक्षा संस्थाओं (मेडिकल कालेजों) में चिकित्सालयों का मुख्य प्रयोजन विद्यार्थियों की चिकित्सा - संबंधी शिक्षा तथा अन्वेषण है। इस कारण ऐसे चिकित्सालयों के निर्माण के सिद्धांत कुछ भिन्न होते हैं। इनमें प्रत्येक विषय की शिक्षा के लिए भिन्न - भिन्न विभाग होते हैं। इनमें विद्यार्थियों की संख्या के अनुसार रोगियों को रखने के लिए समुचित स्थान रखना पड़ता है, जिसमें आवश्यक शय्याएँ रखी जा सकें। साथ ही शय्याओं के बीच इतना स्थान छोड़ना पड़ता है कि शिक्षक और उसके विद्यार्थी रोगी के पास खड़े होकर उसकी पर्रीक्षा कर सकें तथा शिक्षक रोगी के लक्षणों का प्रदर्शन और विवेचन कर सके। इस कारण ऐसे अस्पतालों के लिए अधिक स्थान की आवश्यकता होती हैं। फिर, प्रत्येक विभाग को पूर्णतया आधुनिक यंत्रों, उपकरणों आदि से सुसज्जित करना होता है। वे शिक्षा के लिए आवश्यक हैं। अतएव ऐसे चिकित्सालयों के निर्माण और सगंठन में साधारण अस्पतालों की अपेक्षा बहुत अधिक व्यय होता है। शिक्षकों ओर कर्मचारियों की नियुक्ति भी केवल श्रेष्ठतम विद्वानों में से, जो अपने विषय के मान्य व्यक्ति हों, की जाती है। अतएव ऐसे चिकित्सालय चलाने का नित्यप्रति का व्यय अधिक होना स्वाभाविक है।
ऐसी संस्थाओं के निर्माण ,सज्जा तथा कर्मचारियों का पूरा ब्योरा इंडियन मेडिकल काउंसिल ने तैयार कर दिया है। यही काउंसिल देश भर की शिक्षासंस्थाओं का नियंत्रण करती है। जो संस्था उसके द्वारा निर्धारित मापदंड तक नहीं पहुँचती उसको काउंसिल मान्यता प्रदान नहीं करती और वहाँ के विद्यार्थियों को उच्च परीक्षाओं में बैठने के अधिकार से वंचित रहना पड़ता है। शिक्षा के स्तर को उच्चतम बनाने में इस काउंसिल ने स्तुत्य काम किया है।
ऐसे अस्पतालों में विशेष प्रश्न पर्याप्त स्थान का होता है। कमरों का आकार और संख्या दोनों को ही अधिक रखना पड़ता है। फिर, प्रत्येक विभाग की आवश्यकता, विद्यार्थियों और शिक्षकों की संख्या आदि का ध्यान रखकर चिकित्सालय की योजना तैयार करनी पड़ती है। (चं.भा.सिं.)
प्रमुख अस्पताल - भारत के प्रत्येक मुख्य नगर में सरकार तथा दानी सज्जनों द्वारा स्थापित अनेक अस्पताल हैं। नीचे केवल कुछ प्रमुख तथा विशिष्ट रोगों से पीड़ितों के लिए अस्पतालों के नाम दिए जाते हैं: - -
अमृतसर (पंजाब) - पंजाव मेंटल हास्पिटल (केवल मानसिक रोगों की चिकित्सा के लिए); पंजाब डेंटल हास्पिटल (केवल दंतरोग का चिकित्सा स्थान)।
इंदौर - (मध्यप्रदेश): इन्फ़ेक्शस डिज़ीज़ेज़ हास्पिटल (संक्रामक रोगों की चिकित्सा के लिए); कल्याणमल नर्सिग होम (रोगियों की देखभाल और उपचार के लिए विशिष्ट संस्था); लेपर असाइलम (कुष्ठरोगियों के लिए); मेंटल हास्पिटल (मानसिक रोगों का चिकित्सालय); टी.बी. क्लिनिक (क्षयरोग की चिकित्सा के लिए); टी.बी. सैनाटोरियम (क्षयरोग के रोगियों की देखभाल तथा चिकित्सा की संस्था)।
इलाहाबाद (उत्तर प्रदेश): कमला नेहरू हास्पिटल (मातृत्व संबंधी अस्पताल)।
उज्जैन (मध्य प्रदेश): लेपर असाइलम (कुष्ठरोग से पीड़ितों के लिए); टी.बी.क्लिनिक (क्षयरोग की चिकित्सा का अस्पताल)।
कटक (उड़ीसा): ए.सी.बी. मेडिकल कालेज हास्पिटल (कठिन रोगों की परीक्षा तथा चिकित्सा संस्थान)।
कलकत्ता (पश्चिमी बंगाल): अल्बर्ट विक्टर लेपर हास्पिटल, 18, गोबरा रोड, एँताली (कुष्ठरोग का विशिष्ट चिकित्सालय); आर.जी.कार मेडिकल कालेज हास्पिटल, 1 बेलगछिया रोड (कठिन रोगों के अध्ययन और चिकित्सा के लिए); कलकत्ता मेडिकल स्कूल और हास्पिटल, 301 - 3, अपर सरकुलर रोड (कठिन रोगों की परीक्षा और चिकित्सा की संस्था); कारमाइकेल हास्पिटल फ़ॉर ट्रापिकल डिज़ीज़ेज़, सेंट्रल ऐवेन्यु, (उष्णप्रधान देशों के विशेष रोगविषयक अनुसंधान तथा चिकित्सा संस्थान); नीलरतन सरकार मेडिकल कालेज ऐंड हास्पिटल, सियालदह (रोगपरीक्षा तथा चिकित्सा का उत्तम प्रबंध); मेडिकल कालेज हास्पिटल, 88 कालेज स्ट्रीट (यहाँ सब रोगों के साथ साथ दंतरोगों के अध्ययन तथा चिकित्सा का विशेष प्रबंध है); आलॅ इंडिया इंस्टिटयूट ऑव हाइजीन ऐंड पब्लिक हेल्थ, 110, चितरंजन ऐवेन्यु, कलकत्ता (निरोधक तथा सामजिक ओषधियों पर शोध तथा चिकित्सा)।
कालिकट (केरल): गवर्नमेंट विमेन ऐंड चिल्ड्रेंस हास्पिटल (स्त्रियों और बालकों की चिकित्सा के लिए)।
चंडीगढ़ (पंजाब): पाँचस्ट ग्रैजुएट रिसर्च सेंटर तथा अस्पताल, सेक्टर 12, चंडीगढ़ (इसमें जीर्ण रोगों,असाध्य रोगों तथा आँख की चिकित्सा का विशिष्ट प्रबंध है)।
त्रिचूर (केरल): एडवर्ड मेमोरियल मैटर्निटी हास्पिटल (मातृत्व संबंधी विशेष अस्पताल)।
त्रिवेंद्रम (केरल): विमेन ऐंड चिल्ड्रेंस हास्पिटल (स्त्रियों और बालकों के रोगों के लिए)।
दिल्ली: इन्फेक्शस डिज़ीज़ेज़ हास्पिटल (संक्रामक रोगों का अस्पताल); इरविन हास्पिटल, दिल्ली गेट (सब रोगों के लिए प्रमुख अस्पताल); लेडी हार्डिज मेडिकल कालेज ऐंड हास्पिटल, लेडी हार्डिज रोड (रोगों के अध्ययन तथा चिकित्सा का प्रमुख अस्पताल); विलिंगडन हास्पिटल, ईविन रोड (रोगियों के रहने के लिए विशेष अच्छा प्रबंध है); मिसेज जी.एल. मैटर्निटी हास्पिटल (मातृत्व संबंधी विशिष्ट अस्पताल); आल इंडिया इंस्टिटयूट ऑव मेडिकल साइंसेज़, अंसारीनगर, नई दिल्ली 16; वल्लभ भाई पटेल चेस्ट इंस्टिटयूट, दिल्ली (क्षयरोग, फुफ्फुसरोग तथा इनसे संबंधित आयुर्विज्ञान में शोध तथा चिकित्सा)।
नूरनद (केरल): लेप्रसी सैनटोरियम (कुष्ठरोग का विशिष्ट अस्पताल)।
पटना (बिहार): पटना मेडिकल कालेज हास्पिटल, बांकीपुर (कर्कटरोग की विशिष्ट चिकित्सा यहाँ उपलब्ध है)।
बंगलोर (मैसूर): मेंटल अस्पताल (मानसिक रोगों का चिकित्सालय); मिंटो ऑफ़थैल्मिक हास्पिटल (चक्षुरोगों का विशिष्ट अस्पताल); लेपर असाइलम (कुष्ठरोग की चिकित्सासंस्था); एपिडेमिक डिज़ीज़ेज़ हास्पिटल (माहमारी रोगों की चिकित्सा का अस्पताल); गवर्नमेंट टी.बी. सैनाटोरियम (क्षयरोग चिकित्सालय); आइसोलेशन हास्पिटल (संक्रामक रोगों का चिकित्सासंस्थान); मैटर्निटी हास्पिटल (मातृत्व संबंधी कष्टों के निवारणार्थ)।
बंबई: इन्फ़ेक्शस् डिज़ीज़ेज़ हास्पिटल, आर्थर रोड, जैकब सरकिल (संक्रामक रोगों की विशिष्ट चिकित्सा); एकवर्थ लेपर होम, माटुंगा (कुष्ठरोग चिकित्सालय); जमशेदजी जीजीभाई हास्पिटल, बाबुला टैंक रोड, बाइकला (इस अस्पताल में 478 रोगियों के निवास का प्रबंध है। जननेंद्रिय संबंधी रोगों का विभाग दिन और रात खुला रहता है); ताता मेमोरियल हास्पिटल, परेल (कर्कटरोग की चिकित्सा के लिए भारत का प्रमुख अस्पताल); बाई मोतीबाई ऐंड सर डी.एम. पेटिट हास्पिटल, मज़गाँव रोड, बाइकला (स्त्रियों के रोगों के लिए); बैरामजी जीजीभाई हास्पिटल फॉर चिल्ड्रेन, मज़गांव रोड, बाइकला (12 वर्ष से कम आयु वाले बच्चे सब प्रकार के रोगों की चिकित्सा के लिए भरती किए जाते हैं); म्युनिसिपल ग्रुप ऑव टी.बी. हास्पिटल्स, जेरबाई वाडिया रोड, सिवड़ी (क्षयरोगियों की विशिष्ट चिकित्सा के लिए; इस अस्पताल में 300 रोगियों के निवास का प्रबंध है; यह सब प्रकार के आधुनिक यंत्रों से सुसज्जित है)।
मटनचेरी (केरल): विमेन ऐंड चिल्ड्रेंस हास्पिटल (स्त्रियों और बालकों के रोगों का अस्पताल)।
मद्रास: गवर्नमेंट ऑफ़्थैल्मिक हास्पिटल, 20 मारशल रोड,एग्मोर (चक्षुरोगों की विशेष चिकित्सा के लिए); गवर्नमेंट जेनरल हास्पिटल (सब प्रकार के रोगों का प्रमुख चिकित्सालय); गवर्नमेंट मेंटल हास्पिटल, लोकाक गार्डन, किलयाक (मानसिक रोगों का चिकित्सालय); गवर्नमेंट स्टेनली हास्पिटल, ओल्ड जेल स्ट्रीट (मेडिकल कालेज से संबंधित, सर्वरोग चिकित्साका प्रमुख संस्थान); गर्वनमेंट हास्पिटल फ़ॉर विमेन ऐंड चिल्ड्रेन, एग्मोर (स्त्रियों और बालकों के लिए विशेष चिकित्सालय); गवर्नमेंट ट्युबरक्युलोसिस हास्पिटल, रोयापेट तथा गवर्नमेंट ट्युबरक्युलोसिस इंस्टिट्यूट, स्पर टैंक रोड, एग्मोर (क्षयरोग चिकित्सा के विशिष्ट अस्पताल); कस्तूरबा गांधी हास्पिटल फ़ॉर विमेन ऐंड चिल्ड्रेन, ट्रिप्लिकेन (स्त्रियों और बालकों के लिए विशिष्ट चिकित्सालय)।
राँची (बिहार): इंडियन मेंटल हास्पिटल (मानसिक रोगों का प्रसिद्ध अस्पताल)।
लखनऊ (उत्तर प्रदेश): गांधी मेमोरियल हास्पिटल (सब कठिन रोगों की परीक्षा तथा चिकित्सा के लिए मेडिकल कालेज से संबद्ध प्रमुख अस्पताल)।
वाराणसी (उत्तर प्रदेश): सर सुंदरलाल अस्पताल वाराणसी (यहाँ कुछ दुस्साध्य रोगों का इलाज संभव हो गया है)।
वेलोर (उत्तरी आर्काडु, तमिलनाड़): क्रिश्चियन मेडिकल कालेज ऐंड हास्पिटल, वेलोर (शल्यचिकित्सा का प्रमुख अस्पताल)।
शिलांग (आसाम): रीड प्राविंशियल चेस्ट हास्पिटल (वक्ष संबंधी रोगों का विशेष अस्पताल)।
सतारा (महाराष्ट्र): मिशन हास्पिटल, मीरज (क्षयरोगों की विशिष्ट चिकित्सा); लेप्रसी सैनाटोरियम, मीरज (कुष्ठरोग का प्रमुख चिकित्सालय)।
सीतापुर (उत्तर प्रदेश): नेत्र - चिकित्सा - केंद्र, सीतापुर (आँख के सभी रोगों की चिकित्सा आधुनकि पद्धति तथा उपकरणों से की जाती है)।
हैदाराबाद (आँध्र): ओस्मानिया जनरल हास्पिटल (सब रोगों की विशिष्ट चिकित्सा के लिए); लिंगमपल्लि आइसोलेशन हास्पिटल (संक्रामक रोगों से पीड़ितों)।
टीका टिप्पणी और संदर्भ