आकाश
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आकाश
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1 |
पृष्ठ संख्या | 339 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पाण्डेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1964 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | डॉ. नंदलाल सिंह |
आकाश भौतिकी के अनुसार पृथ्वी को घेरे हुए जो गोलाकार गुंबज दिखाई पड़ता है उसी को आकाश अथवा गगन कहते हैं। पृथ्वी पर जिधर भी हम अपने चारों ओर दृष्टि दौड़ाते हैं वहीं यह गुंबज धरातल से मिलता हुआ जान पड़ता है। इस चतुर्दिक् विस्तृत बृहत् सम्मिलनवृत्त को क्षितिज कहते हैं। समुद्र के बीच जहाज पर बैठे हुए हमें जहाज इस विशाल गुंबज के केंद्र पर स्थित जान पड़ता है, किंतु ज्यों-ज्यों जहाज आगे बढ़ता है त्यों-त्यों यह गुंबज क्षितिज के साथ के साथ आगे सरकता जाता है। यही अनुभव हमें थल पर भी होता है। पृथ्वी की परिक्रमा चाहे हम जलमार्ग से करें अथवा स्थलमार्ग से, यह आकाश हमें सर्वत्र इसी रूप में दिखाई पड़ता है। इससे सिद्ध होता है कि यह खगोल हमारी पृथ्वी के ऊपर चतुर्दिक् आच्छादित है। प्रश्न उठता है कि क्या आकाश कोई वास्तविक पदार्थ है। ऊपर देखने से हमें एक पर्दे का आभास होता है, किंतु वास्तव में आकाश कोई पर्दा नहीं है। सूर्य, चंद्र, ग्रह तथा नक्षत्र, पृथ्वी के परिभ्रमण तथा घूर्णन के कारण अथवा अपनी निजी गति के कारण विभिन्न आपेक्षिक गतियों से इसी पर्दे पर चलते दिखाई पड़ते हैं। रात्रि में जहाज के ऊपर अथवा मरुस्थल के बीच यह गुंबज तारों ओर ग्रहों से आच्छदित दिखाई पड़ता है। हम एक साथ इस गुंबज का आधा ही देख पातें है; दूसरा गोलार्ध पृथ्वी के ठीक दूसरी ओर पहुँचने पर दिखाई पड़ता है। आकाश निर्मल रहने पर कृष्ण पक्ष की रात्रि में एक चौड़ी मेखला पर तारे अधिक संख्या में दिखाई पड़ते हैं। यह मेखला क्षितिज के एक किनारे से निकलकर हमारे ऊपर से होती हुई क्षितिज के ठीक दूसरी ओर जाकर मिलती जान पड़ती है। इससे ज्ञात होता है कि यह मेखला एक पूर्ण, विशाल चक्र के समान पृथ्वी को घेरे हुए है। इसे आकाशगंगा कहते हैं[१]
यद्यपि चंद्रमा की दूरी केवल 2 लाख 39 हजार मील है, जिसे तय करने में आकाश को कुल सवा सेकंड लगता है और नीहारिकाओं की दूरियाँ इतनी अधिक हैं कि उनसे चलकर पृथ्वी तक पहुँचने में प्रकाश को सैंकड़ों अथवा हजारों वर्ष लगते हैं, तो भी सब आकाशीय पिंड हमें आकाश के ही पर्दे पर दिखाई पड़ते हैं और ऐसा जान पड़ता है कि सब पृथ्वी से एक ही दूरी पर हैं।
इन तारों और नक्षत्रों से भरे हुए आकाश को देखकर हमें आकाश की शून्यता पर विश्वास नहीं होता, किंतु पूरे आकाश के पद्य भाग में केवल एक भाग को तारों ने ले रखा हैं; इसीलिए आकाश को नभ (शून्य) भी कहा गया है। शेष स्थान में नक्षत्र धूलि और कण विद्यमान हैं, परंतु ये भी बहुत बिखरी हुई अवस्था में हैं। एक घन सेंटीमीटर में हाइड्रोजन का केवल 1 परमाणु और एक घन मील में संभवत: 100 अन्य कण विद्यमान हैं, जब कि पृथ्वी पर साधारण ताप और दाब पर साधारण गैसों में 1019 अणु प्रति घन सेंटीमीटर में पाए जाते हैं
आकाश दिन में (बादल आदि न होने पर) देखने पर नीला दिखाई देता है और ऐसा लगता है कि यह नीलापन अथाह है, जैसे स्वयं इसकी गहराई घनीभूत हो गई हो। इसका रंग अधिकांश बैगनी प्रकाश से निर्मित होता है और इसमें काफी मात्रा नीले रंग की होती है और थोड़ी मात्रा हरे रंग की तथा अत्यल्प मात्रा पीले और लाल की; इन सभी रंगों के प्रकाश का योग आकाशीय नीला रंग प्रदान करता है।
आकाश की नीलिमा प्रकाश की रश्मियों के प्रकीर्णन (बिखरने) द्वारा उत्पन्न होती है। रात्रि में प्रकाश नहीं रहता तो वही गगनमंडल काला अर्थात् प्रकाशरहित हो जाता है। हमारी पृथ्वी को घेरे हुए वायु मंडल है जो हमें दिखाई तो नहीं पड़ता, किंतु इस वायुसागर में हम लोग उसी तरह रहते हैं और इसका उपयोग करते हैं जैसे मछलियाँ जलसागर में रहती हैं। वायु का घनत्व पृथ्वी के तल पर सबसे अधिक होता है और ऊपर की ओर क्रमश: घटता जाता है। लगभग 10-5 सेंटीमीटर दाब पर वायु 1,000 मील से भी ऊपर तक पाई जाती है। इस वायु मंडल में नाइट्रोजन, आक्सिजन, कार्बन-डाई-आक्साइड तथा अन्य गैंसे होती हैं। इनके अतिरिक्त जलवाष्प और धूलि के कण भी विद्यमान हैं। प्रकाश की रश्मियाँ इन्हीं गेसों के अणुओं द्वारा तथा धूलि और जल के कणों द्वारा प्रकीर्णित होती हैं। प्रकीर्णित प्रकाश की तीव्रता प्र (s) तरंगदैर्घ्य त (l) के चतुर्थ घात की विलोमी होती है, अर्थात्
प्रकाश के तरंगदैर्घ्य के दसवें भाग से भी छोटे कणों के द्वारा प्रकीर्णन रैले के निम्नलिखित सूत्र के अनुसार होता है-
जहाँ S इकाई आयतन द्वारा होनेवाले प्रकीर्णन को वयक्त करता हैं; N प्रति इकाई आयतन कणों की संख्या है, तथा n वर्तानांक है। इससे यह स्पष्ट है कि नीली रश्मियाँ, जिनका तरंगदैर्घ्य लाल रश्मियों के तरंगदैर्घ्य का आधा होता है लगभग 10 गुना अधिक विक्षिप्त होती हैं। यदि कण इन रश्मियों के तरंगदैर्घ्य से बहुत बड़े होते हैं तो किरणों का परावर्तन नियमित रूप में नहीं होता और प्रकाश श्वेत दिखाई पड़ता है। धूलि के हल्के कण आँधी में बहुत ऊपर चले जाते हैं। इनके द्वारा पीली रश्मियाँ प्रकीर्णित होती हैं और आकाश पीला दिखाई पड़ता है। वायुमंडल निर्मल रहने पर प्रकीर्णन केवल वायु तथा जल के अणुओं द्वारा होता है। इससे बहुत आधिक मात्रा में छोटी तरंगवाली नीली रश्मियाँ प्रकीर्णित होती है और उन्हीं के रंग के अनुसार ऊपरी शून्य स्थान नीला दिखाई पड़ता है। गर्मी के दिनों में जब वायु में धूलि के कारण अधिक होते हैं तो इन बड़े कणों से प्रकाश का रंग उतना नीला नहीं रह जाता, कुछ भूरा हो जाता है । जब आँधी आदि के कारण धूलि की मात्रा और अधिक हो जाती है तो बड़े बड़े कणों द्वारा किरणों के अनियमित परावर्तन से आकाश श्वेत दिखाई पड़ता है। पहाड़ों की चोटी से आकाश पूर्णत: नीला मालूम पड़ता है। विमानों में अथवा राकेट प्लेन में, जो बहुत ऊँचाई से जाते हैं, आकाश काला दिखाई पड़ता हैं; क्योंकि ऊँचाई पर वायु के तत्वों के अण बहुत ही कम रह जाते हैं और किरणों का प्रकीर्णन बहुत क्षीण हो जाता है, जिससे ऊपरी शून्य भाग प्रकाशरहित अथवा काला दिखाई पड़ता है।
प्रात: और सायंकाल, जब सूर्य की किरणें धरातल के लगभग समांतर आती हैं, उन्हें वायुमंडल के भीतर तिरछी दिशा में अधिक चलना पड़ता है। आँख पर बड़े तरंगदैर्घ्य की लाल रश्मियाँ सीधी पड़ती है। सूर्य जितना ही क्षितिज के पास नीचे रहता है, लालिमा उतनी ही अधिक देखी जाती है।
दिन में क्षितिज के निकट का आकाश चमकीला और श्वेत होता है और लगभग सूर्य से प्रकाशित सफेद पर्दे के सदृश दिखाई देता है। यदि आँख से x दूरी पर आयतन का एक अल्प परिमाण sdx भाग का प्रकीर्णत करता है और आँख तक आते आते प्रकाश की यह मात्रा e-sx के अनुपात में कम हो जाती हो तो एक असीमित मोटी तह से प्राप्त होनेवाला प्रकाश इसी प्रकार के सभी आयतन परिमाणों से प्राप्त प्रकाशमात्राओं के योग के तुल्य होगा:
अर्थात यह फल s से मुक्त है और इसमें रंग नहीं है।
नवीन अनुसंधानों से यह भी मालूम हुआ है कि ऊपर वर्णन किए गए प्रकीर्णनप्रभाव आकाश के रंगों का पूर्णत: समाधान नहीं करते हैं। वायु मंडल में अत्यधिक ऊँचाई पर अल्प मात्रा में ओजोन गैस भी है जिसके कारण आकाश के रंगों पर अतिरिक्त प्रभाव पड़ता है। ओजोन का रंग एकदम नीला होता है जो अवशोषण के कारण उत्पन्न होता है। यदि आकाश का नीला रंग केवल प्रकीर्णन द्वारा ही होता तो सूर्य के क्षितिज के समीप पहुँचने पर आकाश के रंग में भूरेपन का और कुछ कुछ पीलेपन का भी पुट दिखाई देना चाहिए लेकिन यह नीला दिखाई देता है। ऐसा ओजोन की उपस्थिति के कारण ही होता है।[२]
टीका टिप्पणी और संदर्भ