आग्नेय भाषापरिवार
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आग्नेय भाषापरिवार
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1 |
पृष्ठ संख्या | 353 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पाण्डेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1964 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | डॉ. सतीशकुमार रोहण |
आग्नेय भाषापरिवार संसार की विभिन्न भाषाओं की तुलना कर, उनमें पाई जाने वाली समानताओं एवं ऐतिहासिक संबंध के आधार पर उन्हें विभिन्न समूहों में विभाजित किया गया है। संबंधित भाषाओं के ऐसे समूहों को 'भाषापरिवार' कहा जाता है। संसार के ऐसे भाषापरिवारों में प्रसिद्ध परिवर है 'आग्नेय परिवार'।
आग्नेय का अर्थ है अग्निदिशा (पूर्व एवं दक्षिण दिशा के मध्य) से संबंधित अथवा अग्निदिशा में स्थित। अत: आग्नेय भाषापरिवार से तात्पर्य ऐसे भाषापरिवार से है जिसकी भाषाएँ मुख्य रूप से पूर्व एवं दक्षिण के मध्य बोली जाती हैं। इस परिवार का प्रसिद्ध नाम 'आस्ट्रोएशियाटिक' है। पेटर श्मिट ने 'आस्ट्रोनेशियन' अथवा 'मलय-पालीनेशन' (द्र. 'आस्ट्रोनेशियन') परिवार को आस्ट्रो--एशियाटिक परिवार से जोड़कर एक बृहत् भाषापरिवार की कल्पना की जिसे उन्होंने 'आस्ट्रिक' परिवार का नाम दिया। क्षेत्र की दृष्टि से आस्ट्रिक परिवार संसार का सबसे विस्तृत भाषापरिवार है। पश्चिम में मैडागास्कर से लेकर पूर्व में पूर्वी द्वीपसमूह तक तथा उत्तर पश्चिम में पंजाब के उत्तरी भाग से लेकर दक्षिण पूर्व में न्यूज़ीलैंड तक इस भाषापरिवार का फैलाव है।
इस प्रकार आस्ट्रिक परिवार के मुख्य दो वर्ग हैं-(1) आस्ट्रोनेशियन, (2) आस्ट्रो-एशियाटिक। आस्ट्रोनेशियन अथवा मलय-पोली-नेशियन वर्ग की भाषाएँ प्रशांत महासागर के द्वीपों में फैली हुई हैं। इन भाषाओं के भी कई समूह हैं, : इंडोनेशियन, मलेनेशियन, मैक्रोनेशियन एवं पोलीनेशियन। आस्ट्रोनेशियन वर्ग के विवेचन में न्यूगिनी एवं आस्ट्रेलिया की कुछ मूल भाषाओं का भी उल्लेख किया जाता है क्योंकि इन भाषाओं में कुछ विशेषताएँ आस्ट्रोनेशियन वर्ग की हैं।
आस्ट्रो-एशियाटिक वर्ग की भाषाएँ मध्यभारत के छोटा नागपुर प्रदेश से लेकर अनाम तक फैली हुई हैं। इसकी मुख्य तीन शाखाएँ हैं:
(1) मुंडा, (2) मानख्मेर, (3) अनामी।
मुंडा (जिले 'कोल' भी कहा जाता है) भाषाओं का क्षेत्र मुख्य रूप से भारत है। इसके दो भाग हैं। एक तो हिमालय की तराईवाला भाग जिसकी सीमा शिमला की पहाड़ियों तक है तथा दूसरा मध्यभारत का छोटा नागपुरवाला भाग। इस शाखा की मुख्य उपभाषाएँ हैं: संथाली, मुंडारी, कनावरी, खड़िया, हो एवं शवर। मुंडा भाषाओं का भारतीय भाषाओं पर पर्याप्त प्रभाव है।
मानख्मेर शाखा की भाषाएँ, वर्तमान समय में मुख्य रूप से स्याम, बर्मा और भारत में बोली जाती हैं। इस शाखा की दो मुख्य भाषाएँ हैं-मान एवं ख्मेर। मान का क्षेत्र बर्मा की मरतबान खाड़ी का तटवर्ती भाग है। यह किसी समय बड़ी समृद्धि साहित्यिक भाषा थी। मान के शिलालेख 11वीं शताब्दी के आसपास के हैं। ख्मेर का क्षेत्र बर्मा एवं स्याम है। ख्मेर भाषा के शिलालेख ७वीं शताब्दी के आसपास के हैं। भारत के आसाम प्रदेश की खासी पहाड़ियों पर बोली जानेवाली 'खासी' अथवा 'खसिया' (कई बातों में भिन्न होने पर भी) इसी शाखा से संबंध रखती है। निकोबार की 'निकोबारी' एवं बर्मा के वनों में बोली जानेवाली 'पलौंग' आदि भाषाओं का संबंध भी इस शाखा से है।
अनामी अनाम प्रदेश की भाषा है जो मुख्य रूप से हिंदचीन के पूर्वी किराने के भागों में बोली जाती है। यह एक प्रकार से मिश्रित भाषा है, जिसमें कुछ विशेषताएँ मानख्मेर शाखा की एवं कुछ विशेषताएँ चीनी भाषा की हैं। इसलिए कुछ लोग इसकी गणना इस परिवार में न कर चीनी परिवार में करते हैं।
एक ही परिवार की होने पर भी इस परिवार की भाषाओं में पर्याप्त भिन्नता है। यों मुख्य रूप से भाषाएँ श्लिष्ट योगात्मक भाषाएँ हैं किंतु साथ ही कुछ भाषाओं में अयोगात्मक (एकाक्षरी) भाषाओं के लक्षण भी दिखाई पड़ते हैं।
टीका टिप्पणी और संदर्भ