आद्यपक्षी
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आद्यपक्षी
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1 |
पृष्ठ संख्या | 372 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पाण्डेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1964 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | डॉ. सत्यनारायण प्रसाद |
आद्यपक्षी पक्षियों के विकास का इतिहास अन्य सभी जंतुसमूहों के विकास के इतिहास से अधिक दुर्बोध है। जिस काल तक भूविज्ञान पहुँच सका है उसमें आद्यपक्षी का कोई उपयुक्त प्रमाण प्राप्त नहीं है। प्रादिनूतन के प्रारंभिक भाग के (अब से लगभग करोड़ वर्ष पूर्व के) पक्षियों के जीवाश्म (फ़ॉसिल) बहुत कम प्राप्त हुए हैं। खटीयुग (कृटेशस युग) के बाद केवल आठ प्रतिनिधि मिले हैं, परंतु सब आदर्शभूत नहीं हैं और अपूर्ण भी हैं।
इनमें सबसे अच्छा अवशेष हैस्प्रौरनिस नामक पक्षी का है। यह तैरनेवाली चिड़िया थी। इसके पंख छोटे थे। इसकी उरोस्थि (स्टर्नम) पर कूट (अंग्रेेजी में कील) था। इक्थियोर्निस नामक पक्षी का अवशेष भी अच्छा है। यह कबूतर के बराबर एक छोटी उड़नेवाली चिड़िया थी, जिसका उरकूट (कील) बड़ा था। इन दोनों चिड़ियों के जबड़ों पर पूर्णतया विकसित दाँत थे। परंतु इन दोनों के जीवाश्मों में से कोई एक भी पक्षियों के विकास पर प्रकाश नहीं डालता। इनसे यह पता अवश्य चलता है कि उड़ना इनसे पहले प्रारंभ हो चुका था। पक्षियों के विकास के अध्ययन के लिए पुरानी चट्टानों का अध्ययन आवश्यक है।
पूर्वी जर्मनी के सोलनहाफ़न नामक स्थान पर महासरट (जुरासिक) काल की महीन दानेवाली चूने की चट्टानें हैं। किसी समय में यह पत्थर लीथो की छपाई के लिए खोदा जाता था। इन पत्थरों का पूरा निरीक्षण किया जाता था, इसलिए इन पर अंकित सभी चिह्नों की जाँच होती रहती थी। सन् 1861 के प्रारंभ में एक पत्थर में पर (फ़ेदर) की एक छाप मिली। इससे कर्मचारी बहुत चकित हुए। इसके कुछ समय बाद ही पंखों से सुसज्जित एक प्राणी का कंकाल पत्थर के बीच में मिला। यह पापनहाइम नामक गाँव के पास लांगेनलथइमर हार्ट में मिला। पापनहाइम में डाक्टर अर्न्स्ट हाबलाईन रहते थे। उन्होंने अपने संग्रह के लिए दोनों शिलाएँ ले लीं। तत्पश्चात् हरमन फ़ॉन मेयर ने परवाली छाप का नाम आर्कियोप्टैरिक्स लिथोग्राफ़िका रखा। इस नाम का अर्थ है 'लिथो के पत्थर का पुराना पर'। दूसरी शिला पर अंकित जो कंकाल सहित पर का चिह्न था वह किसी दूसरे आद्यपक्षी का था। उसमें खोपड़ी स्पष्ट नहीं थी, परंतु पखं और पूँछ की छाप बहुत अच्छी थी।
यह दूसरी छाप एक पहेली बन गई। इससे ज्ञात हुआ कि प्राणी कौए की नाप का रहा होगा। इसका कंकाल सरोसृप के ढंग का था, जबड़ों में दाँत थे तथा अंगुलियों में नख थे; परंतु हाथ के बदले निश्चित रूप से पर थे। वैज्ञानिकों ने उसे आद्यपक्षी के अवशेष के रूप में पहचाना। इससे कम विकसित पक्षी का कोई चिह्न इससे पहले नहीं मिला था। इस पत्थर को बाद में ब्रिटिश म्यूज़ियम ने प्राप्त कर लिया।
सन् 1877 में आर्कियोप्टैरिक्स का एक दूसरा प्रतिरूप एक पत्थर निकालने की खान में मिला, जो पहले स्थान से लगभग दस मील दूर थी। इस स्थान का नाम ब्लूमनबर्ग था। इस छाप में,जो दो पत्थरों में सुरक्षित है, खोपड़ी का चिह्न भी है और सब बातों में यह लंदनवाले नमूने से अच्छी है। इन पत्थरों को बर्लिन के नाटुरकुंडे म्यूज़ियम ने खरीद लिया।
आर्कियोप्टैरिक्स के पत्थरों की प्राप्ति के पश्चात् इनका अध्ययन प्रारंभ हुआ। इनके अध्ययन के लगभग 36 प्रयास अब तक हो चुके हैं। अंतिम प्रयास ब्रिटिश म्यूज़ियम (नैचुरल हिस्ट्री विभाग) के संचालक सर गैविन डी बियर ने सन् 1945 में किया। उन्होंने इस अध्ययन के लिए एक्स-रे तथा अल्ट्रावायलेट किरणों का भी प्रयोग किया।
सर गैविन के अध्ययन ने निम्नलिखित बातों की पुष्टि की है : 1. लंदन म्यूज़ियम के जीवाश्मों की करोटि (खोपड़ी) में अब तक जितनी हड्डियों की गणना की गई थी उससे वे अधिक हैं; 2. इस अविकसित पक्षी का मस्तिष्क बहुत कुछ सरीसृप के मस्तिष्क की तरह था; 3. इसके कशेरुक (बर्टेब्री) के सिरे या तो चपटे हैं या छिछले प्याले के आकार के, अर्थात् उभयावतल (ऐंफ़िसीलस) हैं; 4. उरोस्थि नाव के आकार की और कूट (कील)-विहीन है; कहीं मांसपेशियों के जुड़ने के चिह्न भी नहीं हैं। यदि पंख आधुनिक उड़नेवाली चिड़ियों की भाँति होते तो उनमें उरकुट होता, या मांसपेशियों के जुड़ने के लिए उभरे निशान होते। इससे पता चलता है कि आर्कियोप्टैरिक्स उड़नेवाली चिड़िया नहीं थी, केवल सरकनेवाली चिड़िया थी।
आर्कियोप्टैरिक्स के सरीसृपीय लक्षण निम्नलिखित हें : 1. इसकी हड्डियाँ खोखली या वायुमय नहीं है, 2. कशेरुका की बनावट तथा जोड़ दोनों सरीसृप जैसे हैं, 3.पूँछ लंबी है और 20 कशेरुकों की बनी है, 4. अगले और पिछले पैरों की रचना सरीसृप के पैरों जैसी है और अंगुलियों में नख हैं, 5. जबड़ो में दाँत है, 6. पसलियाँ पतली हैं और उनमें अंकुश प्रवर्ध (अंसिनेट प्रोसेसेज़) नहीं होते।
आर्कियोप्टैरिक्स के पक्षीवाले लक्षणों में निम्नलिखित प्रमुख हैं 1. पर; 2. विशाखक (फ़रकुला) नामक अस्थि उपस्थित है; 3. पैर की पहली अँगुली पीछे की ओर है और अन्य तीन इसके विरोध में दूसरी ओर हैं, जैसा अन्य चिड़ियों में होता है; 4. श्रोणिमेखला (पेल्विक गर्डल) की भगास्थि (प्यूबिक बोन) पीछे की ओर मुड़ी है; 5. कर्पर (क्रेनियम) की अनेक हड्डियाँ आधुनिक चिड़ियों की हड्डियों की भांति जुड़ी हैं।
ये मिले जुले लक्षण सिद्ध करते हैं कि आर्कियोप्टैरिक्स आधुनिक पक्षी और सरीसृप के विकास के बीच की योजक कड़ी है। इसका अर्थ यह नहीं कि यह आधा सरीसृप और आधा पक्षी है, किंतु यह एक ऐसा सरीसृप था, जिसने पक्षी की ओर विकसित होना प्रारंभ कर दिया था; अर्थात यह आद्यपक्षी है।
अब यह प्रश्न उठता है कि आर्कियोप्टैरिक्स ने किस मूल कुटुंब से जन्म लिया था। इसका आकार उड़ने वाले सरीसृप अर्थात् टेरोडैक्टाइल से मिलता है। परंतु टेरोडैक्टाइल के उड़ने का ढंग भिन्न था और उसकी हड्डियाँ भी भिन्न प्रकार की थीं। दो छोटे पैरों पर चलनेवाले कुछ डायनोसौर भी रचना में चिड़ियों के निकट आते हैं। ए अपने अगले पैरों को पृथ्वी से ऊपर उठाए पिछले पैरों पर दौड़ते थे। दौड़ने का यह ढंग तथा उनके शरीर की रचना यह सिद्ध करती है कि सरीसृप तथा आर्कियोप्टैरिक्स दोनो की पितृश्रेणी एक है।
यह भली भाँति ज्ञात हो चुका है कि आर्कियोप्टैरिक्स भली भाँति उड़नेवाला पक्षी नहीं था। घने जंगलों के बड़े-बड़े वृक्ष इसे उड़ने का अवसर नहीं देते रहे होंगे। यह केवल एक उँचे वृक्ष पर चढ़कर दूसरे तक विसर्पण (ग्लाइड) करता रहा हागा। पीछे के लंबे पैर, लंबी दुम और चपटे सिरवाली कशेरुकाएँ उड़ने में बिलकुल सहायक नहीं थीं, किंतु विसर्पण में पूर्णतया सहायक थीं। संसार के जीवाश्मों में आर्कियोप्टैरिक्स के जीवश्मों का स्थान महत्वपूर्ण है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ