आनंदवर्धन

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लेख सूचना
आनंदवर्धन
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1
पृष्ठ संख्या 374
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पाण्डेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1964 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी

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आनंदवर्धन अलंकारशास्त्र के प्रसिद्ध आलोचक आनंदवर्धन कश्मीर के निवासी थे। 'देवोशतक' के उल्लेखानुसार इनके पिता का नाम 'नोण' था। कल्हण के कथनानुसार ए कश्मीर के राजा अवंतिवर्मा (855 ई.-884 ई.) के सभापंडितों में मुख्य थे। राजशेखर (900-925 ई.) के द्वारा 'काव्यमीमांसा' में निर्दिष्ट किए जाने से भी इनका समय नवीं शताब्दी का मध्यकाल निश्चित किया जाता है। इनकी प्रख्यात रचनाएँ, जिनका निर्देश इन्होंने स्वयं किया है, चार हैं-(1) देवीशतक भगवती त्रिपुरसुंदरी की स्तुति में निबद्ध एक शतक काव्य; (2) अर्जुनचरित अर्जुन के शौर्य का वर्णनपरक महाकाव्य; (3) विषमबाण लीला प्राकृत में निबद्ध कामदेव की लीलाओं का वर्णन करने वाला काव्य; और (4) ध्वन्यालोक जिसने संस्कृति के आलोचनाजगत्‌ में युगांतर प्रस्तुत कर दिया। आनंदवर्धन की संस्कृत साहित्यशास्त्र की महती देन है काव्य में 'ध्वनि' सिद्धांत का उन्मीलन तथा प्रतिष्ठापन। इनकी मान्यता है कि काव्य में वाच्य अर्थ के अतिरिक्त एक सुंदरतम अर्थ की भी सत्ता रहती है जो 'प्रतीयमान' अर्थ के नाम से अथवा स्फोटवादी वैयाकरणों की परंपरा के अनुसार 'ध्वनि' नाम से व्यवहृत होता है। इसी ध्वनि के स्वरूप का तथा प्रभेदों का विवेचन ध्वन्यालोक का मुख्य उद्देश्य है। इस ग्रंथ के तीन भाग हैं-पद्यबद्ध कारिका, गद्यमयी वृत्ति तथा नाना छंदों में निबद्ध उदाहरण। उदाहरण तो निश्चित रूप से प्राचीन कवियों के काव्य से तथा लेखक कीे साहित्यिक रचनाओं से उधृत किए गए हैं, परंतु कारिका तथा वृत्ति के लेखक के व्यक्तित्व के विषय में आलोचकों में गहरा मतभेद है। कतिपय नव्य आलोचक आनंदवर्धन को केवल वृत्ति का रचयिता तथा 'सहृदय' नामक किसी अज्ञात लेखक को कारिका का निर्माता मानकर वृत्तिकार को कारिकाकार से भिन्न मानते हैं, परंतु संस्कृत को मान्य प्राचीन परंपरा, राजशेखर, कुंतक, महमि भट्ट, क्षेमेंद्र तथा हेमचंद्र के प्रामाण्य पर, आनंदवर्धन को ही कारिका और वृत्ति दोनों का रचयिता माना जाता रहा है। आलोचकों का बहुमत भी इसी पक्ष की ओर है। अलंकारशास्त्र के इतिहास में आनंदवर्धन ने सर्वप्रथम इस शास्त्र को युक्ति तथा तर्क के आधार पर व्यवस्था प्रदान की और व्यंजना जैसी नवीन वृत्ति की कल्पना कर काव्य के अंतस्तत्व का मार्मिक विश्लेषण किया। इसीलिए संस्कृत के आलोचकवृंद आंनद को 'साहित्य-सिद्धांत-सरणि का प्रतिष्ठापक' मानते हैं।[१]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सं.ग्रं.-पी.वी. काणे : हिस्ट्री ऑव अलंकारशास्त्र, बंबई, 1955; बलदेव उपाध्याय : भारतीय साहित्यशास्त्र (दो भाग), काशी, सं. 2007; एस.के. दे: हिस्ट्री ऑव संस्कृत पोएटिक्स (दो भाग), कलकत्ता।