आभासवाद
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आभासवाद
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1 |
पृष्ठ संख्या | 389 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पाण्डेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1964 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | डॉ. बलदेव उपाध्याय |
आभासवाद - त्रिक दर्शन की दार्शनिक दृष्टि का अभिधान। कश्मीर का त्रिक दर्शन अद्वैतवादी है। इसके अनुसार परमशिव (जो 'अनुत्तर', 'संविद्' आदि अनेक नामों से प्रख्यात हैं) अपनी स्वातंत्रयशक्ति से (जो उनकी इच्छाशक्ति का ही अपर नाम है) अपने भीतर स्थित होने वाले पदार्थ समूह को इदं रूप से बाहर प्रकट करते हैं। इस प्रकार जो कुछ वस्तु है, अर्थात् जो वस्तु किसी प्रकार सत्ता धारण करती है, जिसके विषय में किसी भी प्रकार का शब्द प्रयोग किया जा सकता है, चाहे वह विषयी हो, विषय हो, ज्ञान का साधन हो या स्वंय ज्ञानरूप ही हो, वह 'आभास' कहलाती हैं। ईश्वर और जगत् के संबंध को समझने के लिए अभिनवगुप्त ने दर्पण की उपमा प्रस्तुत की है। जिस प्रकार निर्मल दर्पण में ग्राम, नगर, वृक्ष आदि पदार्थ प्रतिबिंबित होने पर वस्तुत: अभिन्न होने पर भी दर्पण से और आपस में भी भिन्न प्रतीत होते हैं, उसी प्रकार इस विश्व की दशा है। यह परमेश्वर में प्रतिबिंबित होने पर वस्तुत: उससे अभिन्न ही है, परंतु घट पट आदि रूप से वह भिन्न प्रतीत होता है। इस आभास या प्रतिबिंब के सिद्धांत को मानने के कारण त्रिक दर्शन का दार्शनिक मत 'आभासवाद' के नाम से जाना जाता है। इस विषय में एक वैचित्य भी है जिसपर ध्यान देना आवश्यक है। लोक में प्रतिबिंब की सत्ता बिंब पर आश्रित रहती है। मुकुर के सामने मुख रहने पर ही उसका प्रतिबिंब उसमें पड़ता हैं, परंतु अद्वैतवादी त्रिक दर्शन में इस प्रतिबिंब का उदय बिंब के अभाव में भी स्वत: होता है और इसे परमेश्वर की स्वतंत्र शक्त्ति की महिमा माना जाता है। इस प्रकार इस दर्शन में अद्वैत भावना वास्तविक है। द्वैत की कल्पना नितांत कल्पित हैं।
टीका टिप्पणी और संदर्भ