आमवातीय संध्यार्ति
चित्र:Tranfer-icon.png | यह लेख परिष्कृत रूप में भारतकोश पर बनाया जा चुका है। भारतकोश पर देखने के लिए यहाँ क्लिक करें |
आमवातीय संध्यार्ति
| |
पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1 |
पृष्ठ संख्या | 392 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पाण्डेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1964 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | डॉ. देवेंद्र सिंह |
आमवातीय संध्यार्ति (रूमैटॉएड आ्थ्राार्इटिज़) एक ऐसी चिरकालिक व्याधि है जो साधारणत: धीरे धीरे बढ़ती ही जाती है। अनेक संधिजोड़ों का विनाशकारी और विरूपकारी शोथ इसका विशेष लक्षण है। साथ ही शरीर के अन्य संस्थानों पर भी इस रोग का प्रतिकूल प्रभाव होता है। मुख्यत: पेशी, त्वचाधर, ऊतक (सबक्यूटेनियस टिशू), परिणाह तंत्रिका (पेरिफ़ेरल नर्व्स), लसिका संरचना (लिंफ़ैटिक स्ट्रक्चर) एवं रक्त संस्थानों पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। अंत में अवयवों का नीलापन अथवा हथेली तथा उँगालियों की पोरों की कोशिकाओं (कैपिलरीज़) का विस्फारण (डाइलेटेशन) और हाथ पावों में अत्यधिक स्वेद इस रोग की उग्रता के सूचक हैं।
यह व्याधि सब आयु के व्यक्तियों को ग्रसित का सकती है, पर 20 से 40 वर्ष तक की अवस्था के लोग इससे अधिक ग्रस्त होते हैं।
20वीं शताब्दी के मध्य तक इस रोग का कारण नहीं जाना जा सका था। वंशानुगत अस्वाभाविकता, अतिहृषता (ऐलर्जी), चयापचय विक्षोभ (मेटाबोलिक डिसऑर्डर) तथा शाकाणु ओं में इसके कारणों को खोजा गया, किंतु सभी प्रयत्न असफल रहे। 17 हाइड्रॉक्सी,11 डी हाइड्रो-कॉर्टिको-स्टेरान (केंडल का E यौगिक) तथा ऐड्रनो कॉटिकोट्रोफ़िक हारमोनों की खोज के बाद देखा गया कि ये इस व्याधि से मुक्ति देते हैं। अतएव इस रोग के कारण को हारमोन उत्पत्ति की अनियमिततओं में खोजने का प्रयत्न किया गया, किंतु अभी तक इस रोग के मूल कारणों का पता नहीं चल सका है।
चिकित्सक साधारणत: इसे श्लेषजन (कोलाजेन) व्याधि बताते हैं। यह इंगित करता है कि आमवातीय संध्यार्ति योजी ऊतक (कनेक्टिव टिशु), अस्थि तथा कास्थि (कार्टिलेज) के श्वेत तंतुओं के श्वेति (अल्ब्युमिनॉएड) पदार्थो में हुए उपद्रवों के कारण उत्पन्न हो सकता है।
आमवातीय संध्यार्ति के दो प्रकार होते हैं।
पहला-जब रोग का आक्रमण मुख्यत: हाथ पाँव की संधियों पर होता है, इसे परिणाह (पेरिफ़रल) प्रकार कहते हैं।
दूसर-जब रोग मेरुशोथ के रूप में हो, इसे स्टुंपेल की व्याधि अथवा बेख्ट्रयू की व्याधि कहते हैं।
इस रोग का तीसरा प्रकार पहले दोनों प्रकारों के सम्मिलित आक्रमण के रूप में हो सकता है। पहला प्रकार महिलाओं तथा दूसरा पुरुषों को विशेष रूप से ग्रसित करता है।
दोनों प्रकार के रोगों का आक्रमण प्राय: एकाएक ही होता है। तीव्र दैहिक लक्षण, जैसे कई संधियों की कठोरता तथा सूजन, श्रांति, भार में कमी, चलने में कष्ट एवं तीव्र ज्वर के रूप में प्रकट होते हैं। संधियाँ सूजी हुई दिखाई पड़ती हैं एवं उनके छूने मात्र से ही पीड़ा होती है। कभी कभी उनमें नीली विवर्णता भी दृष्टिगत होती है। कई अवसरों पर प्रारंभ में कुछ ही संधियों पर आक्रमण होता है, किंतु अधिकतर अनेक संधियों पर सममित रूप (सिमेट्रिकल पैटर्न) में रोग का आक्रमण होता है। उदाहरण के लिए दोनों हाथों की उँगलियाँ, कलाइयाँ, दोनों पावों की पादशलाका-अंगुलि-पर्वीय संधियाँ (मेटाटार्सो फ़ैलैंजियल जॉएँट्स), कुहनी तथा घुटने आदि।
रोग के क्रम में अधिकतर शीघ्र प्रगति होती हैं एवं तीव्र लक्षण उत्पन्न होते हैं, किंतु इसके पश्चात् स्वास्थ्य अपेक्षाकृत अच्छा होकर फिर खराब हो जाता है और भली तथा बुरी अवस्थाएँ एकांतरित होती रहती हैं। कभी कभी रोग के लक्षण पूर्ण रूप से लुप्त हो जाते हैं और रोगी अच्छे स्वास्थ्य की दशा में वर्षों तक रहता है। रोग का आक्रमण पुन: भी हो सकता है कुछ अवसरों पर रोग इतना अधिक बढ़ जाता है कि रोगी विरूप एवं अपंग हो जाता है। साथ ही मांसपेशियों का क्षय हो जाता है तथा अपुष्टिताजनित विभिन्न चर्मविकार उत्पन्न हो जाते हैं।
रोग के हलके आक्रमणों में रक्त-कोष-गणना तथा शोणावर्तुलि (हीमोग्लोबिन) के आगणन से परिमित रक्तहीनता पाई जाती है। तीव्र आक्रमणों में अत्यंत रक्तहीनता उत्पन्न हो जाती है। इसी प्रकार हलके आक्रमणों में लोहिताणुओं (एर्थ्राोिसाइट्स) का प्लाविका (प्लाज्मा) में तलछटीकरण (सेंडिमेंटेशन) अपेक्षाकृत शीघ्र होता है, किंतु तीव्र आक्रमणों में यह तलछटीकरण और भी शीघ्र हो जाता है।
रोग का तीव्र आक्रमण होने पर रक्त में लसीश्वेति (सीरम ऐल्ब्युमिन) की अपेक्षा लसीआवर्तुलि (सीरम ग्लोबुलिन) की बढ़ती दिखाई पड़ती है। यह बढ़ती कभी कभी इतनी अधिक हो जाती है कि रक्त में दोनों यौगिकों का अनुपात ही उलटा हो जाता है
इस रोग में कभी-कभी रोगी हृदय की मांसपेशियों तथा हृत्कपाटों में दोषग्रस्त होने के चिह्न तथा लक्षण मिलते हैं। इस रोग के लगभग 50 प्रतिशत रोगियों में हृदय पर आक्रमण पाया जाता है।
मूल कारणों के ज्ञान के अभाव में लक्षणों के निवारण हेतु ही चिकित्सा की जाती है। पीड़ा को दूर करने के लिए पीड़ानिरोधक औषधियाँ दी जाती हैं। साथ ही शरीर के क्षय का निवारण करने के लिए आवश्यक भोजन तथा पूर्ण विश्राम कराया जाता है। सांधियों की मालिश भी की जाती हैं। स्वर्ण के लवणों का प्रभाव इस रोग पर अनुकूल होता है, किंतु इनके अधिक प्रयोग से विषैले-प्रभाव भी देखे गए हैं। केंडल के यौगिक एफ़ तथा ई के साथ पोषग्रंथि (पिट्यूटरी ग्लैंड) के हारमोन ऐड्रीनो-कॉर्टिको-ट्रोफ़िक का प्रयोग भी इस रोग में लाभकारी है।[१]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सं.ग्रं.-बॉअर डब्ल्यू. रूमैटॉएड आ्थ्रााइटीज; जे.ए.एम.ए. 138,397,1948; रूमैटिज्म ऐंड आ्थ्राार्इटीज: रिव्यू ऑव अमेरिकन ऐंड इंगलिश लिटरेचर ऑव रीसेंट इयर्स; (टेंथ रूमैटिज्म रिव्यू) भाग1, ऐनल्स इंटरनैशनल मेडिसिन, 39: 498, 1953, भाग 2, वही, 39: 757, 1953; वाई.एल.ई.तथा हेंच, पी.एस: कॉर्टिसोन इन ट्रीटमेंट ऑव रूमैटाएड आ्थ्रााइटीज; जे.ए.एम. ए., 152: 119, 1953; सेसिल तथा लोव: टेक्स्टबुक ऑव मेडिसिन, 1955 का संस्करण।