आयुर्विज्ञान में भौतिकी
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आयुर्विज्ञान में भौतिकी
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1 |
पृष्ठ संख्या | 411 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पाण्डेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1964 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | नामवर सिंह |
आयुर्विज्ञान में भौतिकी प्रयोगों से पता चलता है कि भौतिकी (फ़िज़िक्स) के नियमों का पालन मानव शरीर में भी होत है। उदाहरणत: मनुष्यों को विशेष उष्मामापी में रखकर जब यह नापा गया कि शरीर में कितनी गर्मी उत्पन्न होती है और हिसाब लगाया गया कि आहार का जितना अंश पचता है उतने को जलाने से कितनी गरमी उत्पन्न हो सकती थी और जब इसपर भी ध्यान रखा गया कि पसीना सूखने में कितनी ठंडक उत्पन्न हुई होगी, तब स्पष्ट पता चला कि शरीर की सारी ऊर्जा (गर्मी और काम करने की शक्ति) आमाशय और आंत्र में आहार के पाचन तथा उपचयन (ऑक्सिटाइज़ेशन) से उत्पन्न होती है; शरीर में ऊर्जा का कोई गुप्त भांडार नहीं है।
विविध पदार्थों के घोलों का गुण उनमें वर्तमान हाइड्रोजन आयनों की सांद्रता पर निर्भर रहता है। अम्लता और क्षारता भी इन्हीं आयनों पर निर्भर है। यदि रुधिर में इन आयनों की सांद्रता बहुत घट बढ़ जाय तो शारीरिक क्रियाओं में बहुत अंतर पड़ जाएगा। परंतु प्रयोगों से पता चलता है कि रुधिर में वर्तमान कारबोनेटों और फास्फेटों के कारण अम्ल अथवा क्षार अधिक आ जाने पर भी रुधिर में हाइड्रोजन आयनों की सांद्रता नहीं बदलती और इसलिए शरीर की क्रियाएँ अति विभिन्न दशाओं में भी ठीक होती रहती है।
मनुष्य का शरीर विविध प्रकार की नन्हीं-नन्हीं कोशिकाओं (सेलों) से बना है। प्रयोगों से पता चलता है कि इन कोशिकाओं के आवरण को नमक, ग्लूकोज़ आदि नहीं पार कर सकते। यदि ऐसा न होता तो उनके बाहर के द्रव में नमक, ग्लूकोज़ आदि की कमी बेशी होने पर कोशिकाएँ भी फूलती पिचकती रहतीं।
साधारण घोलों की अपेक्षा कलिल (कालॉयडल) घोलों का प्रभाव शरीर पर बहुत धीर-धीरे पड़ता है। इस बात के आधार पर कलिल घोल के रूप में ऐसी औषधियाँ बनी हैं जो एक बार शरीर में प्रविष्ट होने पर बहुत समय तक अपना काम करती रहती हैं।
मांसपेशियों और स्नायुओं को शरीर से बाहर नमक के घोलों में रखकर उनपर अनेक प्रयोग किए गए हैं। उनपर बिजली की न्यून मात्राओं का प्रभाव नापा गया है। उनके जीवित रहने की परिस्थतियों का पता भी लगाया गया है। यह सिद्ध हो चुका है कि मांसपेशियाँ और स्नायुओं के जीवित रहने के लिए उपचयन (आक्सीजन का संयोग) आवश्यक है। यह भी सिद्ध हुआ है कि स्नायुओं में उत्तेजना का संचलन विद्युतीय घटना है।
भौतिकी में विविध प्रकार की विद्युत्तंरगों का अध्ययन होता है। उत्तरोत्तर घटती तरंग के अनुसार ये हैं रेडियो तरंगें, अवरक्त (इन्फ्रऱोड) रश्मियाँ, प्रकाश, पराकासनी (अलट्रावायलेट) रश्मियाँ, एक्स किरण और रेडियम से निकलनेवाली रश्मियाँ। इनमें से अनेक प्रकार की तरंगों का उपयोग आयुर्विज्ञान में किया गया है। कुछ से केवल सेंकने का काम लिया जाता है, कुछ से त्वचा के रोग अच्छे होते हैं, कुछ उचित मात्रा में दी जाने पर शरीर के भीतर घुसकर अवांछनीय जीवाणुओं का नाश करती हैं, यद्यपि अधिक मात्रा में दी जाने पर वे शरीर की कोशिकाओं को भी नष्ट कर सकती हैं।
भौतिकी के उपयोग के अन्य उदाहरण शरीर-क्रिया-विज्ञान, स्वास्थ्य विज्ञान और एक्स-रे चिकित्सा शीर्षक लेखों में मिलेंगे।[१]
आयुर्विज्ञान में परमाणु ऊर्जा का उपयोग-भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र के सहयोग से कई अस्पतालों में कैंसर, ल्यूकीमिया जैसे असाध्य रोगों के उपचार के प्रयत्न बड़े तेजी से किए जा रहे हैं। इस दिशा में किए गए प्रयोगों द्वारा पता चला है कि कुछ विटामिनों या खनिजों की कमी से भी कैंसर होने की आशंका रहती है। इन प्रयोगों द्वारा थायराइड के कैंसर के उपचार में भी प्रगति हुई है। गंडमाला की चिकित्सा में भी रेडियो समस्थानिकों का उपयोग हुआ है। नाभिकीय आयोडीन का उपयोग अबटु विषाक्तता (थाइरटाक्सिकोसिस) के रोगों में भी किया जाता है।[२]
टीका टिप्पणी और संदर्भ