आयुर्वेद
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आयुर्वेद
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1 |
पृष्ठ संख्या | 413 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पाण्डेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1964 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | श्री विद्यानंद प्रसाद |
आयुर्वेद और आयुर्विज्ञान दोनों ही चिकित्साशास्त्र हैं, परंतु व्यवहार में प्राचीन भारतीय ढंग को आयुर्वेद कहते हैं और ऐलोपैथिक (जनता की भाषा में 'डाक्टरी') प्रणाली को आयुर्विज्ञान का नाम दिया जाता है। आयुर्वेद का अर्थ प्राचीन आचार्यों की व्याख्या और इसमें आए हुए 'आयु' और 'वेद' इन दो शब्दों के अर्थों के अनुसार बहुत व्यापक है। आयुर्वेद के आचार्यों ने 'शरीर, इंद्रिय, मन तथा आत्मा के संयोग' को आयु कहा है। अर्थात् जब तक इन चारों संपत्ति (साद्गुण्य) या विपत्ति (वैगुण्य) के अनुसार आयु के अनेक भेद होते हैं, किंतु संक्षेप में प्रभावभेद से इसे चार प्रकार का माना गया है: (1) सुखायु: किसी प्रकार के शीरीरिक या मानसिक विकास से रहित होते हुए, ज्ञान, विज्ञान, बल, पौरुष, धनृ धान्य, यश, परिजन आदि साधनों से समृद्ध व्यक्ति को 'सुखायु' कहते हैं। (2) इसके विपरीत समस्त साधनों से युक्त होते हुए भी, शरीरिक या मानसिक रोग से पीड़ित अथवा निरोग होते हुए भी साधनहीन या स्वास्थ्य और साधन दोनों से हीन व्यक्ति को 'दु:खायु' कहते हैं। (3) हितायु: स्वास्थ्य और साधनों से संपन्न होते हुए या उनमें कुछ कमी होने पर भी जो व्यक्ति विवेक, सदाचार, सुशीलता, उदारता, सत्य, अहिंसा, शांति, परोपकार आदि आदि गुणों से युक्त होते हैं और समाज तथा लोक के कल्याण में निरत रहते हैं उन्हें हितायु कहते हैं। (4) इसके विपरीत जो व्यक्ति अविवेक, दुराचार, क्रूरता, स्वार्थ, दंभ, अत्याचार आदि दुर्गुणों से युक्त और समाज तथा लोक के लिए अभिशाप होते हैं उन्हें अहितायु कहते हैं। इस प्रकार हित, अहित, सुख और दु:ख, आयु के ये चार भेद हैं। इसी प्रकार कालप्रमाण के अनुसार भी दीर्घायु, मध्यायु और अल्पायु, संक्षेप में ये तीन भेद होते हैं। वैसे इन तीनों में भी अनेक भेदों की कल्पना की जा सकती है।
'वेद' शब्द के भी सत्ता, लाभ, गति, विचार, प्राप्ति और ज्ञान के साधन, ये अर्थ होते हैं, और आयु के वेद को आयुर्वेद (नॉलेज ऑव सायन्स ऑव लाइफ़) कहते हैं। अर्थात् जिस शास्त्र में आयु के स्वरूप, आयु के विविध भेद, आयु के लिए हितकारक और अप्रमाण तथा उनके ज्ञान के साधनों का एवं आयु के उपादानभूत शरीर, इंद्रिय, मन, और आत्मा, इनमें सभी या किसी एक के विकास के साथ हित, सुख और दीर्घ आयु की प्राप्ति के साधनों का तथा इनके बाधक विषयों के निराकरण के उपायों का विवचेन हो उसे आयुर्वेद कहते हैं। किंतु आजकल आयुर्वेद 'प्राचीन भारतीय चिकित्सापद्धति' इस संकुचित अर्थ में प्रयुक्त होता है।
प्रयोजन या उद्देश्य-आयुर्वेद के दो उद्देश्य होते हैं:
(1) स्वस्थ व्यक्तियों के स्वास्थ्य की रक्षा करना। इसके लिए अपने शरीर और प्रकृति के अनुकूल देश, काल आदि का विचार करना नियमित आहार-विहार, चेष्टा, व्यायाम, शौच, स्नान, शयन, जागरण आदि गृहस्थ जीवन के लिए उपयोगी शास्त्रोक्त दिनचर्या, रात्रिचर्या एवं ऋतुचर्या का पालन करना, संकटमय कार्यों से बचना, प्रत्येक कार्य विवेकपूर्वक करना, मन और इंद्रिय को नियंत्रित रखना, देश, काल आदि परिस्थितियों के अनुसार अपने अपने शरीर आदि की शक्ति और अशक्ति का विचार कर कोई कार्य करना, मल, मूत्र आदि के उपस्थित वेगों को न रोकना, ईर्ष्या, द्वेष, लोभ, अहंकार आदि से बचना, समय-समय पर शरीर में संचित दोषों को निकालने के लिए वमन, विरेचन आदि के प्रयोगों से शरीर की शुद्धि करना, सदाचार का पालन करना और दूषित वायु, जल, देश और काल के प्रभाव से उत्पन्न महामारियों (जनपदोद्ध्वंसनीय व्याधियों, एपिडेमिक डिज़ीज़ेज़) में विज्ञ चिकित्सकों के उपदेशों का समुचित रूप से पालन करना, स्वच्छ और विशोधित जल, वायु, आहार आदि का सेवन करना और दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित करना, ये स्वास्थ्यरक्षा के साधन हैं।
(2) रोगी व्यक्तियों के विकारों को दूर कर उन्हें स्वस्थ बनाना। इसके लिए प्रत्येक रोग के हेतु (कारण), लिंग-रोगपरिचायक विषय, जैसे पूर्वरूप, रूप (साइंस ऐंड सिंप्टम्स), संप्राप्ति (पैथोजेनिसिस) तथा उपशयानुपशय (थिराप्युटिकटेस्ट्स)-और औषध का ज्ञान परमावश्यक है। ये तीनों आयुर्वेद के 'त्रिस्कंध' (तीन प्रधान शाखाएं) कहलाती हैं। इसका विस्तृत विवेचन आयुर्वेद ग्रंथों में किया गया है। यहाँ केवल संक्षिप्त परिचय मात्र दिया जाएगा। किंतु इसके पूर्व आयु के प्रत्येक संघटक का संक्षिप्त परिचय आवश्यक है, क्योंकि संघटकों के ज्ञान के बिना उनमें होनेवाले विकारों को जानना संभव न होगा।
शरीर-समस्त चेष्टाओं, इंद्रियों, मन ओर आत्मा के आधारभूत पांचभौतिक पिंड की शरीर कहते हैं। मानव शरीर के स्थूल रूप में छह अंग हैं; दो हाथ, दो पैर, शिर और ग्रीवा एक तथा अंतराधि (मध्यशरीर) एक। इन अंगों के अवयवों को प्रत्यंग कहते हैं,-मूर्धा (हेड), ललाट, भ्रू, नासिका, अक्षिकूट (ऑर्बिट), अक्षिगोलक (आइबॉल), वर्त्स (पलक), पक्ष्म (बरुनी), कर्ण (कान), कर्णपुत्रक (ट्रैगस), शष्कुली और पाली (पिन्न ऐंड लोब ऑव इयर्स), शंख (माथे के पार्श्व, टेंपुल्स), गंड (गाल), ओष्ठ (होंठ), सृक्कणी (मुख के कोने), चिबुक (ठुड्डी), दंतवेष्ट (मसूड़े), जिह्वा (जीभ), तालु, उपजिह्काि (टांसिल्स), गलशुंडिका (युवुला), गोजिह्विका (एपीग्लॉटिस), ग्रीवा (गरदन), अवटुका (लैरिंग्ज़), कंधरा (कंधा), कक्षा (एक्सिला), जत्रु (हंसुली, कालर), वक्ष (थोरेक्स), स्तन, पार्श्व (बगल), उदर (बेली), नाभि, कुक्षि (कोख), बस्तिशिर (ग्रॉयन), पृष्ठ (पीठ), कटि (कमर), श्रोणि (पेल्विस), नितंब, गुदा, शिश्न या भग, वृषण (टेस्टीज़), भुज, कूर्पर (केहुनी), बाहुपिंडिका या अरत्नि (फ़ोरआर्म), मणिबंध (कलाई), हस्त (हथेली), अंगुलियां और अंगुष्ठ, ऊरु (जांघ), जानु (घुटना), जंघा (टांग, लेग), गुल्फ (टखना), प्रपद (फुट), पादांगुलि, अंगुष्ठ और पादतल (तलवा),। इनके अतिरिक्त हृदय, फुफ्फुस (लंग्स), यकृत (लिवर), प्लीहा (स्प्लीन), आमाशय (स्टमक), पित्ताशय (गाल ब्लैडर), वृक्क (गुर्दा, किडनी), वस्ति (यूरिनरी ब्लैडर), क्षुद्रांत (स्मॉल इंटेस्टिन), स्थूलांत्र (लार्ज इंटेस्टिन), वपावहन (मेसेंटेरी), पुरीषाधार, उत्तर और अधरगुद (रेक्टम), ये कोष्ठांग हैं और सिर में सभी इंद्रियों और प्राणों के केंद्रों का आश्रय मस्तिष्क (ब्रेन)है।
आयुर्वेद के अनुसार सारे शरीर में 300 अस्थियां हैं, जिन्हें आजकल केवल गणना-क्रम-भेद के कारण दो सौ छह (206) मानते हैं तथा संधियाँ (ज्वाइंट्स) 200, स्नायु (लिंगामेंट्स) 900, शिराएं (ब्लड वेसेल्स, लिफ़ैटिक्स ऐंड नर्ब्ज़) 700, धमनियां (क्रेनियल नर्ब्ज़) 24 और उनकी शाखाएं 200, पेशियां (मसल्स) 500 (स्त्रियों में 20 अधिक) तथा सूक्ष्म स्त्रोत 30,956 हैं।
आयुर्वेद के अनुसार शरीर में रस (बाइल ऐंड प्लाज्मा), रक्त, मांस, मेद (फ़ैट), अस्थि, मज्जा (बोन मैरो) और शुक्र (सीमेन), ये सात धातुएं हैं। नित्यप्रति स्वाभावत: विविध कार्यों में उपयोग होने से इनका क्षय भी होता रहता है, किंतु भोजन और पान के रूप में हम जो विविध पदार्थ लेते रहते हैं उनसे न केवल इस क्षति की पूर्ति होती है, वरन् धातुओं की पुष्टि भी होती रहती है। आहाररूप में लिया हुआ पदार्थ पाचकाग्नि, भूताग्नि और विभिन्न धात्वनिग्नयों द्वारा परिपक्व होकर अनेक परिवर्तनों के बाद पूर्वोक्त धातुओं के रूप में परिणत होकर इन धातुओं का पोषण करता है। इस पाचनक्रिया में आहार का जो सार भाग होता है उससे रस धातु का पोषण होता है और जो किट्ट भाग बचता है उससे मल (विष्ठा) और मूत्र बनता है। यह रस हृदय से होता हुआ शिराओं द्वारा सारे शरीर में पहुँचकर प्रत्येक धातु और अंग को पोषण प्रदान करता है। धात्वग्नियों से पाचन होने पर रस आदि धातु के सार भाग से रक्त आदि धातुओं एवं शरीर का भी पोषण होता है तथा किट्ट भाग से मलों की उत्पत्ति होती है, जैसे रस से कफ; रक्त पित्त; मांस से नाक, कान और नेत्र आदि के द्वारा बाहर आनेवाले मल; मेद से स्वेद (पसीना); अस्थि से केश तथा लोम (सिर के और दाढ़ी, मूंछ आदि के बाल) और मज्जा से आंख का कीचड़ मलरूप में बनते हैं। शुक्र में कोई मल नहीं होता, उसके सारे भाग से ओज (बल) की उत्पत्ति होती है।
इन्हीं रसादि धातुओं से अनेक उपधातुओं की भी उत्पत्ति होती है, यथा रस से दूध, रक्त से कंडराएं (टेंडंस) और शिराएँ, मांस से वसा (फ़ैट), त्वचा और उसके छह या सात स्तर (परत), मेद से स्नायु (लिंगामेंट्स), अस्थि से दांत, मज्जा से केश और शुक्र से ओज नामक उपधातुओं की उत्पत्ति होती है।
ये धातुएं और उपधातुएं विभिन्न अवयवों में विभिन्न रूपों में स्थित होकर शरीर की विभिन्न क्रियाओं में उपयोगी होती हैं। जब तक ये उचित परिमाण और स्वरूप में रहती हैं और इनकी क्रिया स्वाभाविक रहती है तब तक शरीर स्वस्थ रहता है और जब ये न्यून या अधिक मात्रा में तथा विकृत स्वरूप में होती हैं तो शरीर में रोग की उत्पत्ति होती है।
प्राचीन दार्शनिक सिंद्धांत के अनुसार संसार के सभी स्थूल पदार्थ पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश इन पांच महाभूतों के संयुक्त होने से बनते हैं। इनके अनुपात में भेद होने से ही उनके भिन्न-भिन्न रूप होते हैं। इसी प्रकार शरीर के समस्त धातु, उपधातु और मल पांचभौतिक हैं। परिणामत: शरीर के समस्त अवयव और अतत: सारा शरीर पांचभौतिक है। ये सभी अचेतन हैं। जब इनमें आत्मा का संयोग होता है तब उसकी चेतनता में इनमें भी चेतना आती है।
उचित परिस्थिति में शुद्ध रज और शुद्ध वीर्य का संयोग होने और उसमें आत्मा का संचार होने से माता के गर्भाशय में शरीर का आरंभ होता है। इसे ही गर्भ कहते हैं। माता के आहारजनित रक्त से अपरा (प्लैसेंटा) और गर्भनाड़ी के द्वारा, जो नाभि से लगी रहती है, गर्भ पोषण प्राप्त करता है। यह गर्भोदक में निमग्न रहकर उपस्नेहन द्वारा भी पोषण प्राप्त करता है तथा प्रथम मास में कलल (जेली) और द्वितीय में घन होता है? तीसरे मास में अंग प्रत्यंग का विकास आरंभ होता है। चौथे मास में उसमें अधिक स्थिरता आ जाती है तथा गर्भ के लक्षण माता में स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ने लगते हैं। इस प्रकार यह माता की कुक्षि में उत्तरोत्तर विकसित होता हुआ जब संपूर्ण अंग, प्रत्यंग और अवयवों से युक्त हो जाता है, तब प्राय: नवें मास में कुक्षि से बाहर आकर नवीन प्राणी के रूप में जन्म ग्रहण करता है।
इंद्रिय-शरीर में प्रत्येक अंग या किसी भी अवयव का निर्माण उद्देश्यविशेष से ही होता है, अर्थात् प्रत्येक अवयव के द्वारा विशिष्ट कार्यों की सिद्धि होती है, जैसे हाथ से पकड़ना, पैर से चलना, मुख से खाना, दांत से चबाना आदि। कुछ अवयव ऐसे भी हैं जिनसे कई कार्य होते हैं और कुछ ऐसे हैं जिनसे एक विशेष कार्य ही होता है। जिनसे कार्यविशेष ही होता है उनमें उस कार्य के लिए शक्तिसंपन्न एक विशिष्ट सूक्ष्म रचना होती है। इसी को इंद्रिय कहते हैं। शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध इन बाह्य विषयों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए क्रमानुसार कान, त्वचा, नेत्र, जिह्वा और नासिका ये अवयव इंद्रियाश्रय अवयव (विशेष इंद्रियों के अंग) कहलाते हैं और इनमें स्थित विशिष्ट शक्तिसंपन्न सूक्ष्म वस्तु को इंद्रिय कहते हैं। ये क्रमश: पाँच हैं-श्रोत्र, त्वक्, चक्षु, रसना और ्घ्रााण। इन सूक्ष्म अवयवों में पंचमहाभूतों में से उस महाभूत की विशेषता रहती है जिसके शब्द (ध्वनि) आदि विशिष्ट गुण हैं; जैसे शब्द के लिए श्रोत्र इंद्रिय में आकाश, स्पर्श के लिए त्वक् इंद्रिय में वायु, रूप के लिए चक्षु इंद्रिय में तेज, रस के लिए रसनेंद्रिय में जल और गंध के लिए ्घ्रााणेंद्रिय में पृथ्वी तत्व। इन पांचों इंद्रियों को ज्ञानेंद्रिय कहते हैं। इनके अतिरिक्त विशिष्ट कार्यसंपादन के लिए पांच कमेंद्रियां भी होती हैं, जैसे गमन के लिए पैर, ग्रहण के लिए हाथ, बोलने के लिए जिह्वा (गोजिह्वा), मलत्याग के लिए गुदा और मूत्रत्याग तथा संतानोत्पादन के लिए शिश्न (स्त्रियों में भग)। आयुर्वेद दार्शनिकों की भाँति इंद्रियों को आहंकारिक नहीं, अपितु भौतिक मानता है। इन इंद्रियों की अपने कार्यों मन की प्रेरणा से ही प्रवृत्ति होती है। मन से संपर्क न होने पर ये निष्क्रिय रहती है।
मन-प्रत्येक प्राणी के शरीर में अत्यंत सूक्ष्म और केवल एक मन होता है। यह अत्यंत द्रुतगति वाला और प्रत्येक इंद्रिय का नियंत्रक होता है। किंतु यह स्वयं भी आत्मा के संपर्क के बिना अचेतन होने से निष्क्रिय रहता है। प्रत्येक व्यक्ति के मन में सत्व, रज और तम, ये तीनों प्राकृतिक गुण होते हुए भी इनमें से किसी एक की सामान्यत: प्रबलता रहती है और उसी के अनुसार व्यक्ति सात्विक, राजस या तामस होता है, किंतु समय-समय पर आहार, आचार एवं परिस्थितियों के प्रभाव से दसरे गुणों का भी प्राबल्य हो जाता है। इसका ज्ञान प्रवृत्तियों के लक्षणों द्वारा होता है, यथा राग-द्वेष-शून्य यथार्थद्रष्टा मन सात्विक, रागयुक्त, सचेष्ट और चंचल मन राजस और आलस्य, दीर्घसूत्रता एवं निष्क्रियता आदि युक्त मन तामस होता है। इसीलिए सात्विक मन को शुद्ध, सत्व या प्राकृतिक माना जाता है और रज तथा तम उसके दोष कहे गए हैं। आत्मा से चेतनता प्राप्त कर प्राकृतिक या सदोष मन अपने गुणों के अनुसार इंद्रियों को अपने-अपने विषयों में प्रवृत्त करता है और उसी के अनुरूप शारीरिक कार्य होते हैं। आत्मा मन के द्वारा ही इंद्रियों और शरीरावयवों को प्रवृत्त करता है, क्योंकि मन ही उसका करण (इंस्ट्रुमेंट) है। इसीलिए मन का संपर्क जिस इंद्रिय के साथ होता है उसी के द्वारा ज्ञान होता है, दूसरे के द्वारा नहीं। क्योंकि मन एक ओर सूक्ष्म होता है, अत: एक साथ उसका अनेक इंद्रियों के साथ संपर्क सभव नहीं है। फिर भी उसकी गति इतनी तीव्र है कि वह एक के बाद दूसरी इंद्रिय के संपर्क में शीघ्रता से परिवर्तित होता है, जिससे हमें यही ज्ञात होता है कि सभी के साथ उसका संपर्क है और सब कार्य एक साथ हो रहे हैं, किंतु वास्तव में ऐसा नहीं होता।
आत्मा-आत्मा पंचमहाभूत और मन से भिन्न, चेतनावान्, निर्विकार और नित्य है तथा साक्षी स्वरूप है, क्योंकि स्वयं निर्विकार तथा निष्क्रियश् है। इसके संपर्क से सक्रिय किंतु अचेतन मन, इंद्रियों और शरीर में चेतना का संचार होताश् है और वे सचेष्ट होते हैं। आत्मा में रूप, रंग, आकृति आदि कोई चिह्न नहीं है, किंतु उसके बिना शरीर अचेतन होने के कारण निश्चेष्ट पड़ा रहता है और मृत कहलता है तथा उसके संपर्क से ही उसमें चेतना आती है तब उसे जीवित कहा जाता है और उसमें अनेक स्वाभाविक क्रियाएं होने लगती हैं; जैसे श्वासोच्छ्वास, छोटे से बड़ा होना और कटे हुए घाव भरना आदि, पलकों का खुलना और बंद होना, जीवन के लक्षण, मन की गति, एक इंद्रिय से हुए ज्ञान का दूसरी इंद्रिय पर प्रभाव होना (जैसे आँख से किसी सुंदर, मधुर फल को देखकर मुँंह में पानी आना), विभिन्न इंद्रियों और अवयवों को विभन्न कार्यों में प्रवृत्त करना, विषयों का ग्रहण और धारण करना, स्वप्न में एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचना, एक आँख से देखी वस्तु का दूसरी आँख से भी अनुभव करना। इच्छा, द्वेष, सुख, दु:ख, प्रयत्न, धैर्य, बुद्धि, स्मरण शक्ति, अहंकार आदि शरीर में आत्मा के होने पर ही होते हैं; आत्मारहित मृत शरीर में नहीं होते। अत: ये आत्मा के लक्षण कहे जाते हैं, अर्थात् आत्मा का पूर्वोक्त लक्षणों से अनुमान मात्र किया जा सकता है। मानसिक कल्पना के अतिरिक्त किसी दूसरी इंद्रिय से उसका प्रत्यक्ष करना संभव नहीं है।
यह आत्मा नित्य, निर्विकार और व्यापक होते हुए भी पूर्वकृत शुभ या अशुभ कर्म के परिणामस्वरूप जैसी योनि में या शरीर में, जिस प्रकार के मन और इंद्रियों तथा विषयों के संपर्क में आती है वैसे ही कार्य होते हैं। उत्तरोत्तर अशुभ कार्यों के करने से उत्तरोत्तर अधोगति होती है तथा शुभ कर्मों के द्वारा उत्तरोत्तर उन्नति होने से, मन के राग-द्वेष-हीन होने पर, मोक्ष की प्राप्ति होती है।
इस विवरण से स्पष्ट हो जाता है कि आत्मा तो निर्विकार है, किंतु मन, इंद्रिय और शरीर में विकृति हो सकती है और इन तीनों के परस्पर सापेक्ष्य होने के कारण एक का विकार दूसरे को प्रभावित कर सकता है। अत: इन्हें प्रकृतिस्थ रखना या विकृत होने पर प्रकृति में लाना या स्वस्थ करना परमावश्यक है। इससे दीर्घ सुख और हितायु की प्राप्ति होती है, जिससे क्रमश: आत्मा को भी उसके एकमात्र, किंतु भीषण, जन्म मृत्यु और भवबंधनरूप रोग से मुक्ति पाने में सहायता मिलती है, जो आयुर्वेद में नैतिष्ठकी चिकित्सा कही गई है।
रोग और स्वास्थ्य-चरक ने संक्षेप में रोग और आरोग्य का लक्षण यह लिखा है कि वात, पित्त और कफ इन तीनों दोषों का सम मात्रा (उचित प्रमाण) में होना ही आरोग्य और इनमें विषमता होना ही रोग है। सुश्रुत ने स्वस्थ व्यक्ति का लक्षण विस्तार से दिया है: जिससे सभी दोष सम मात्रा में हों, अग्नि सम हो, धातु, मल और उनकी क्रियाएं भी सम (उचित रूप में) हों तथा जिसकी आत्मा, इंद्रिय और मन प्रसन्न (शुद्ध) हों उसे स्वस्थ समझना चाहिए। इसके विपरीत लक्षण हों तो अस्वस्थ समझना चाहिए। रोग को विकृति या विकार भी कहते हैं। अत: शरीर, इंद्रिय और मन के प्राकृतिक (स्वाभाविक) रूप या क्रिया में विकृति होना रोग है।
रोगों के हेतु या कारण (इटियॉलोजी)-संसार की सभी वस्तुएँ साक्षात् या परंपरा से शरीर, इंद्रियों और मन पर किसी न किसी प्रकार का निश्चित प्रभाव डालती हैं और अनुचित या प्रतिकूल प्रभाव से इनमें विकार उत्पन्न कर रोगों का कारण होती हैं। इन सबका विस्तृत विवेचन कठिन है, अत: संक्षेप में इन्हें तीन वर्गों में बाँट दिया गया है: (1) प्रज्ञापराध: अविवेक (धीभ्रंश), अधीरता (धृतिभ्रंश) तथा पूर्व अनुभव और वास्तविकता की उपेक्षा (स्मृतिभ्रंश) के कारण लाभ हानि का विचार किए बिना ही किसी विषय का सेवन या जानते हुए भी अनुचित वस्तु का सेवन करना। इसी को दूसरे और स्पष्ट शब्दों में कर्म (शारीरिक, वाचिक और मानसिक चेष्टाएं) का हीन, मिथ्या और अति योग भी कहते हैं। (2) असात्म्येंद्रियार्थसंयोग: चक्षु आदि इंद्रियों का अपने-अपने रूप आदि विषयों के साथ असात्म्य (प्रतिकूल, हीन, मिथ्या और अति) संयोग इंद्रियों, शरीर और मन के विकार का कारण होता है; यथा आँख से बिलकुल न देखना (अयोग), अति तेजस्वी वस्तुओं का देखना और बहुत अधिक देखना (अतियोग) तथा अतिसूक्ष्म, संकीर्ण, अति दूर में स्थित तथा भयानक, बीभत्स, एवं विकृतरूप वस्तुओं को देखना (मिथ्यारोग)। ये चक्षुरिंद्रिय और उसके आश्रय नेत्रों के साथ मन और शरीर में भी विकार उत्पन्न करते हैं। इसी को दूसरे शब्दों में अर्थ का दुर्योग भी कहते हैं। ग्रीष्म, वर्षा, शीत आदि ऋतुओं तथा बाल्य, युवा और वृद्धावस्थाओं का भी शरीर आदि पर प्रभाव पड़ता ही है, किंतु इनके हीन, मिथ्या और अतियोग का प्रभाव विशेष रूप से हानिकर होता है।
पूर्वोक्त कारणों के प्रकारांतर से अन्य भेद भी होते हैं; यथा (1) विप्रकृष्ट कारण (रिमोट कॉज़), जो शरीर में दोषों का संचय करता रहता है और अनुकूल समय पर रोग को उत्पन्न करता है, (2) संनिकृष्ट कारण (इम्मीडिएट कॉज़), जो रोग का तात्कालिक कारण होता है, (3) व्यभिचारी कारण (अबॉर्टिव कॉज़) जो परिस्थितिवश रोग को उत्पन्न करता है और नहीं भी करता तथा (4) प्राधानिक कारण (स्पेसिफ़िक कॉज़), जो तत्काल किसी धातु या अवयवविशेष पर प्रभाव डालकर निश्चित लक्षणोंवाले विकार को उत्पन्न करता है, जैसे विभिन्न स्थावर और जांतव विष।
प्रकारांतर से इनके अन्य दो भेद होते हैं-(1) उत्पादक (प्रीडिस्पोज़िंग), जो शरीर में रोगविशेष की उत्पत्ति के अनुकूल परिवर्तन कर देता है; (2) व्यंजक (एक्साइटिंग), जो पहले से रोगानुकूल शरीर में तत्काल विकारों को व्यक्त करता है।
शरीर पर इन सभी कारणों के तीन प्रकार के प्रभाव होते हैं:
(1) दोषप्रकोप-अनेक कारणों से शरीर के उपादानभूत आकाश आदि पांच तत्वों में से किसी एक या अनेक में परिवर्तन होकर उनके स्वाभाविक अनुपात में अंतर आ जाना अनिवार्य है। इसी को ध्यान में रखकर आयुर्वेदाचार्योंश् ने इन विकारों को वात, पित्त और कफ इन वर्गों में विभक्त किया है। पंचमहाभूत एवं त्रिदोष का अलग से विवेचन ही उचित है, किंतु संक्षेप में यह समझना चाहिए कि संसारश् के जितने भी मूर्त (मैटिरयल) पदार्थ हैं वे सब आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी इन पांच तत्वों से बने हैं।
ये पृथ्वी आदि वे ही नहीं है जो हमें नित्यप्रति स्थूल जगत् में देखने को मिलते हैं। ये पिछले सब तो पूर्वोक्त पांचों तत्वों के संयोग से उत्पन्न पांचभौतिक हैं। वस्तुओं में जिन तत्वों की बहुलता होती है वे उन्हीं नामों से वर्णित की जाती हैं। उसी प्रकार हमारे शरीर की धातुओं में या उनके संघटकों में जिस तत्व की बहुलता रहती है वे उसी श्रेणी के गिने जाते हैं। इन पांचों में आकाश तो निर्विकार है तथा पृथ्वी सबसे स्थूल और सभी का आश्रय है। जो कुछ भी विकास या परिवर्तन होते हैं उनका प्रभाव इसी पर स्पष्ट रूप से पड़ता है। शेष तीन (वायु, तेज और जल) सब प्रकार के परिवर्तन या विकार उत्पन्न करने में समर्थ होते हैं। अत: तीनों की प्रचुरता के आधार पर, विभिन्न धातुओं एवं उनके संघटकों को वात, पित्त और कफ की संज्ञा दी गई है। सामान्य रूप से ये तीनों धातुएं शरीर की पोषक होने के कारण विकृत होने पर अन्य धातुओं को भी दूषित करती हैं। अत: दोष तथा मल रूप होने से मल कहलाती हैं। रोग में किसी भी कारण से इन्हीं तीनों की न्यूनता या अधिकता होती है, जिसे दोषप्रकोप कहते हैं।
(2) धातुदूषण-कुछ पदार्थ या कारण ऐसे होते हैं जो किसी विशिष्ट धातु या अवयव में ही विकार करते हैं। इनका प्रभाव सारे शरीर पर नहीं होता। इन्हें धातुप्रदूषक कहते हैं।
(3) उभयहेतु-वे पदार्थ जो सारे शरीर में वात आदि दोषों को कुपित करते हुए भी किसी धातु या अंग विशेष में ही विशेष विकार उत्पन्न करते हैं, उभयहेतु कहलाते हैं। किंतु इन तीनों में जो परिवर्तन होते हैं वे वात, पित्त या कफ इन तीनों में से किसी एक, दो या तीनों में ही विकार उत्पन्न करते हैं। अत: ये ही तीनों दोष प्रधान शरीरगत कारण होते हैं, क्योंकि इनके स्वाभाविक अनुपात में परिवर्तन होने से शरीर की धातुओं आदि में भी विकृति होती है। रचना में विकार होने से क्रिया में भी विकार होना स्वाभाविक है। इस अस्वाभाविक रचना और क्रिया के परिणामस्वरूप अतिसार, कास आदि लक्षण उत्पन्न होते हैं और इन लक्षणों के समूह को ही रोग कहते हैं।
इस प्रकार जिन पदार्थों के प्रभाव से वात आदि दोषों में विकृतियां होती हैं तथा वे वातादि दोष, जो शारीरिक धातुओं को विकृत करते हैं, दोनों ही हेतु (कारण) या निदान (आदिकारण) कहलाते हैं। अंतत: इनके दो अन्य महत्वपूर्ण भेदों का विचार अपेक्षित है: (1) निज (इडियोपैथिक)-जब पूर्वोक्त कारणों से क्रमश: शरीरगत वातादि दोष में, और उनके द्वारा धातुओं में, विकार उत्पन्न होते हैं तो उनको निज हेतु या निज रोग कहते हैं। (2) आगंतुक (ऐक्सिडेंटल)-चोट लगना, आग से जलना, विद्युत्प्रभाव, सांप आदि विषैले जीवों के काटने या विषप्रयोग से जब एकाएक विकार उत्पन्न होते हैं तो उनमें भी वातादि दोषों का विकार होते हुए भी, कारण की भिन्नता और प्रबलता से, वे कारण और उनसे उत्पन्न रोग आगंतुक कहलाते हैं।
लिंग (जीज़ंस)-पूर्वोक्त कारणों से उत्पन्न विकारों की पहचान जिन साधनों द्वारा होती है उन्हें लिंग कहते हैं। इसके चार भेद हैं: पूर्वरूप, रूप, संप्राप्ति और उपशय।
पूर्वरूप-किसी रोग के व्यक्त होने के पूर्व शरीर के भीतर हुई अत्यल्प या आरंभिक विकृति के कारण जो लक्षण उत्पन्न होकर किसी रोगविशेष की उत्पत्ति की संभावना प्रकट करते हैं उन्हें पूर्वरूप (प्रोडामेटा) कहते हैं।
रूप (साइंस ऐंड सिंप्टम्स)-जिन लक्षणों से रोग या विकृति का स्पष्ट परिचय मिलता है उन्हें रूप कहते हैं।
संप्राप्ति (पैथोजेनेसिस): किस कारण से कौन सा दोष स्वतंत्र रूप में या परतंत्र रूप में, अकेले या दूसरे के साथ, कितने अंश में और कितनी मात्रा में प्रकुपित होकर, किस धातु या किस अंग में, किस-किस स्वरूपश् का विकार उत्पन्न करता है, इसके निर्धारण को संप्राप्ति कहते हैं। चिकित्सा में इसी की महत्वपूर्ण उपयोगिता है। वस्तुत: इन परिवर्तनों से ही ज्वरादि रूप में रोग उत्पन्न होते हैं, अत: इन्हें ही वास्तव में रोग भी कहा जा सकता है और इन्हीं परिवर्तनों को ध्यान में रखकर की गई चिकित्सा भी सफल होती है।
उपशय और अनुपशय (थेराप्यूटिक टेस्ट)-जब अल्पता या संकीर्णता आदि के कारण रोगों के वास्तविक कारणों या स्वरूपों का निर्णय करने में संदेह होता है, तब उस संदेह के निराकरण के लिए संभावित दोषों या विकारों में से किसी एक के विकार से उपयुक्त आहार विहार और औषध का प्रयोग करने पर जिससे लाभ होता है उसे उपचय के विवेचन में आयुर्वेदाचार्यो ने छह प्रकार से आहार विहार और औषध के प्रयोगों का सूत्र बतलाते हुए उपशय के 18 भेदों का वर्णन किया है। ये सूत्र इतने महत्व के हैं कि इनमें से एक-एक के आधार पर एक-एक चिकित्सापद्धति का उदय हो गया है; जैसे, (1) हेतु के विपरीत आहार विहार या औषध का प्रयोग करना। (2) व्याधि, वेदना या लक्षणों के विपरीत आहार विहार या औषध का प्रयोग करना। स्वयं ऐलोपैथी की स्थापना इसी पद्धति पर हुई थी (ऐलोज़ (विपरीत)अपैथोज़ (वेदना) उ ऐलोपैथी)। (3) हेतु और व्याधि, दोनों के विपरीत आहार विहार और औषध का प्रयोग करना। (4) हेतुविपरीतार्थकारी, अर्थात् रोग के कारण के समान होते हुए भी उस कारण के विपरीत कार्य करनेवाले आहार आदि का प्रयोग; जैसे, आग से जलने पर सेंकने या गरम वस्तुओं का लेप करने से उस स्थान पर रक्तसंचार बढ़कर दोषों का स्थानांतरण होता है तथा रक्त का जमना रुकने, पाक के रुकने पर शांति मिलती है। (5) व्याधिविपरीतार्थकारी, अर्थात् रोग या वेदना को बढ़ानेवाला प्रतीत होते हुए भी व्याधि के विपरीत कार्य करनेवाले आहार आदि का प्रयोग (होमियापैथी से तुलना करें: होमियो (समान)अपैथोज़ (वेदना) उ होमियोपैथी)। (6) उभयविरीतार्थकारी, अर्थात् कारण और वेदना दोनों के समान प्रतीत होते हुए भी दोनों के विपरीत कार्य करनेवाले आहार विहार और औषध का प्रयोग।
उपशय और अनुपशय से भी रोग की पहचान में सहायता मिलती है। अत: इनको भी प्राचीनों ने 'लिंग' में ही गिना है। हेतु और लिंग के द्वारा रोग का ज्ञान प्राप्त करने पर ही उसकी उचित और सफल चिकित्सा (औषध) संभव है। हेतु और लिंगों से रोग की परीक्षा होती है, किंतु इनके समुचित ज्ञान के लिए रोगी की परीक्षा करनी चाहिए। रोगी परीक्षा के साधन चार हैं-आप्तोपदेश, प्रत्यक्ष, अनुमान और युक्ति।
आप्तोपदेश-योग्य अधिकारी, तप और ज्ञान से संपन्न होने के कारण, शास्त्रतत्वों को राग-द्वेष-शून्य बुद्धि से असंदिग्ध और यथार्थ रूप से जानते और कहते हैं। ऐसे विद्वान्, अनुसंधानशील, अनुभवी, पक्षपातहीन और यथार्थ वक्ता महापुरुषों को आप्त (अथॉरिटी) और उनके वचनों या लेखों को आप्तोपदेश कहते हैं। आप्तजनों ने पूर्ण परीक्षा के बाद शास्त्रों का निर्माण कर उनमें एक-एक के संबंध में लिखा है कि अमुक कारण से, इस दोष के प्रकुपित होने और इस धातु के दूषित होने तथा इस अंग में आश्रित होने से, अमुक लक्षणोंवाला अमुक रोग उत्पन्न होता है, उसमें अमुक-अमुक परिवर्तन होते हैं तथा उसकी चिकित्सा के लिए इन आहार विहार और अमुक औषधियों के इस प्रकार उपयोग करने से तथा चिकित्सा करने से शांति होती है। इसलिए प्रथम योग्य और अनुभवी गुरुजनों से शास्त्र का अध्ययन करने पर रोग के हेतु, लिंग और औषधज्ञान में प्रवृत्ति होती है। शास्त्रवचनों के अनुसार ही लक्षणों की परीक्षा प्रत्यक्ष, अनुमान और युक्ति से की जाती है।
प्रत्यक्ष-मनोयोगपूर्वक इंद्रियों द्वारा विषयों का अनुभव प्राप्त करने को प्रत्यक्ष कहते हैं। इसके द्वारा रोगी के शरीर के अंग प्रत्यंग में होनेवाले विभिन्न शब्दों (ध्वनियों) की परीक्षा कर उनके स्वाभाविक या अस्वाभाविक होने का ज्ञान श्रोत्रेंद्रिय द्वारा करना चाहिए। वर्ण, आकृति, लंबाई, चौड़ाई आदि प्रमाण तथा छाया आदि का ज्ञान नेत्रों द्वारा, गंधों का ज्ञान ्घ्रााणेंद्रिय तथा शीत, उष्ण, रूक्ष, स्निग्ध एवं नाड़ी आदि के स्पंदन आदि भावों का ज्ञान स्पर्शेंद्रिय द्वारा प्राप्त करना चाहिए। रोगी के शरीरगत रस की परीक्षा स्वयं अपनी जीभ से करना उचित न होने के कारण, उसके शरीर या उससे निकले स्वेद, मूत्र, रक्त, पूय आदि में चींटी लगना या न लगना, मक्खियों का आना और न आना, कौए या कुत्ते आदि द्वारा खाना या न खाना, प्रत्यक्ष देखकर उनके स्वरूप का अनुमान किया जा सकता है।
अनुमान-युक्तिपूर्वक तर्क (ऊहापाह) के द्वारा प्राप्त ज्ञान अनुमान (इनफ़रेंस) है। जिन विषयों का प्रत्यक्ष नहीं हो सकता या प्रत्यक्ष होने पर भी उनके संबंध में संदेह होता है वहाँ अनुमान द्वारा परीक्षा करनी चाहिए; यथा, पाचनशक्ति के आधार पर अग्निबल का, व्यायाम की शक्ति के आधार पर शारीरिक बल का, अपने विषयों को ग्रहण करने या न करने से इंद्रियों की प्रकृति या विकृति का तथा इसी प्रकार भोजन में रुचि, अरुचि तथा प्यास एवं भय, शोक, क्रोध, इच्छा, द्वेष आदि मानसिक भावों के द्वारा विभिन्न शारीरिक और मानसिक विषयों का अनुमान करना चाहिए। पूर्वोक्त उपशयानुपशय भी अनुमान का ही विषय है।
युक्ति-इसका अर्थ है योजना। अनेक कारणों के सामुदायिक प्रभाव से किसी विशिष्ट कार्य की उत्पत्ति को देखकर, तदनुकूल विचारों से जो कल्पना की जाती है उसे युक्ति कहते हैं। जैसे खेत, जल, जुताई, बीज और ऋतु के संयोग से ही पौधा उगता है। धुएं का आग के साथ सदैव संबंध रहता है, अर्थात् जहाँ धुआँ होगा वहाँ आग भी होगी। इसी को व्याप्तिज्ञान भी कहते हैं और इसी के आधार पर तर्क कर अनुमान किया जाता है। इस प्रकार निदान, पूर्वरूप, रूप, संप्राप्ति और उपशय इन सभी के सामुदायिक विचार से रोग का निर्णय युक्तियुक्त होता है। योजना का दूसरी दृष्टि से भी रोगी की परीक्षा में प्रयोग कर सकते हैं। जैसे किसी इंद्रिय में यदि कोई विषय सरलता से ग्राह्य न हो तो अन्य यंत्रादि उपकरणों की सहायता से उस विषय का ग्रहण करना भी युक्ति में ही अंतर्भूत है।
परीक्ष्य विषय-पूर्वोक्त लिंगों के ज्ञान के लिए तथा रोगनिर्णय के साथ साध्यता या असाध्यता के भी ज्ञान के लिए आप्तोपदेश के अनुसार प्रत्यक्ष आदि परीक्षाओं द्वारा रोगी के सार, तत्व (डिसपोज़िशन), सहनन (उपचय), प्रमाण (शरीर और अंग प्रत्यंग की लंबाई, चौड़ाई, भार आदि), सात्म्य (अभ्यास आदि, हैबिट्स), आहारशक्ति, व्यायामशक्ति तथा आयु के अतिरिक्त वर्ण, स्वर, गंध, रस और स्पर्श ये विषय, श्रोत्र, चक्षु, ्घ्रााण, रसन और स्पशेंद्रिय, सत्व, भक्ति (रुचि), शैच, शील, आचार, स्मृति, आकृति, बल, ग्लानि, तंद्रा, आरंभ (चेष्टा), गुरुता, लघुता, शीतलता, उष्णता, मृदुता, काठिन्य आदि गुण, आहार के गुण, पाचन और मात्रा, उपाय (साधन), रोग और उसके पूर्वरूप आदि का प्रमाण, उपद्रव (कांप्लिकेशंस), छाया (लस्टर), प्रतिच्छाया, स्वप्न (ड्रीम्स), रोगी को देखने को बुलाने के लिए आए दूत तथा रास्ते और रोगी के घर में प्रवेश के समय के शकुन और अपशकुन, ग्रहयोग आदि सभी विषयों का प्रकृति (स्वाभाविकता) तथा विकृति (अस्वाभाविकता) की दृष्टि से विचार करते हुए परीक्षा करनी चाहिए। विशेषत: नाड़ी, मल, मूत्र, जिह्वा, शब्द (ध्वनि), स्पर्श, नेत्र और आकृति की सावधानी से परीक्षा करनी चाहिए। आयुर्वेद में नाड़ी की परीक्षा अति महत्व का विषय है। केवल नाड़ीपरीक्षा से दोषों एवं दूष्यों के साथ रोगों के स्वरूप आदि का ज्ञान अनुभवी वैद्य प्राप्त कर लेता है।
औषध-जिन साधनों के द्वारा रोगों के कारणभूत दोषों एवं शारीरिक विकृतियों का शमन किया जाता है उन्हें औषध कहते हैं। ये प्रधानत: दो प्रकार की होती है: अपद्रव्यभूत और द्रव्यभूत।
अद्रव्यभूत औषध वह है जिसमें किसी द्रव्य का उपयोग नहीं होता, जैसे उपवास, विश्राम, सोना, जागना, टहलना, व्यायाम आदि। बाह्य या आभ्यंतर प्रयोगों द्वारा शरीर में जिन बाह्य द्रव्यों (ड्रग्स) का प्रयोग होता है। वे द्रव्यभूत औषध हैं। ये द्रव्य संक्षेप में तीन प्रकार के होते हैं: (1) जांगम (ऐनिमल ड्रक्स), जो विभिन्न प्राणियों के शरीर से प्राप्त होते हैं, जैसे मधु, दूध, दही, घी, मक्खन, मठ्ठा, पित्त, वसा, मज्जा, रक्त, मांस, पुरीष, मूत्र, शुक्र, चर्म, अस्थि, श्रृंग, खुर, नख, लोम आदि; (2) औद्भिद (हर्बल ड्रग्स), पेड़ पौधे आदि से प्राप्त होते हैं, जैसे विविध अन्न, फल, फूल, पत्ते, जड़े, छालें, गोंद, डंठल, स्वरस, दूध, भस्म, क्षार, तैल, कंटक, कोयले और कंद आदि; (3) पार्थिव (खनिज, मिनरल ड्रग्स), जैसे सोना, चांदी, सीसा, रांगा, तांबा, लोहा, चूना, खड़िया, अभ्रक, संखिया, हरताल, मैनसिल, अंजन (एंटीमनी), गेरू, नमक आदि।
शरीर की भांति ये सभी द्रव्य भी पांचभौतिक होते हैं, इनके भी वे ही संघटक होते हैं जो शरीर के हैं। अत: संसार में कोई भी द्रव्य ऐसा नहीं है जिसका किसी न किसी रूप में किसी न किसी रोग के किसी न किसी अवस्थाविशेष में औषधरूप में प्रयोग न किया जा सके। किंतु इनके प्रयोग के पूर्व इनके स्वाभाविक गुणधर्म, संस्कारजन्य गुणधर्म, प्रयोगविधि तथा प्रयोगमार्ग का ज्ञान आवश्यक है। इनमें कुछ द्रव्य दोषों का शमन करते हैं, कुछ दोष और धातु को दूषित करते हैं और कुछ स्वस्थ्वृत में, अर्थात् धातुसाम्य को स्थिर रखने में उपयोगी होते हैं, इनकी उपयोगिता के समुचित ज्ञान के लिए द्रव्यों के पांचभौतिक संघटकों में तारतम्य के अनुसार स्वरूप (कंपोज़िशन), गुरुता, लघुता, रूक्षता, स्निग्धता आदि गुण, रस (टेस्ट ऐंड लोकल ऐक्शन), वपाक (मेटाबोलिक चेंजेज़), वीर्य (फिज़िओलॉजिकल ऐक्शन), प्रभाव (स्पेसिफ़िक ऐक्शन) तथा मात्रा (डोज़) का ज्ञान आवश्यक होता है।
भेषज्यकल्पना-सभी द्रव्य सदैव अपने प्राकृतिक रूपों में शरीर में उपयोगी नहीं होते। रोग और रोगी की आवश्यकता के विचार से शरीर की धातुओं के लिए उपयोगी एवं सात्म्यकरण के अनुकूल बनाने के लिए; इन द्रव्यों के स्वाभाविक स्वरूप और गुणों में परिवर्तन के लिए, विभिन्न भौतिक एवं रासायनिक संस्कारों द्वारा जो उपाय किए जाते हैं उन्हें 'कल्पना' (फ़ार्मेसी या फ़ार्मास्युटिकल प्रोसेस) कहते हैं। जैसे-स्वरस (जूस), कल्क या चूर्ण (पेस्ट या पाउडर), शीत क्वाथ (इनफ़्यूज़न), क्वाथ (डिकॉक्शन), आसव तथा अरिष्ट (टिंक्चर्स), तैल, घृत, अवलेह आदि तथा खनिज द्रव्यों के शोधन, जारण, मारण, अमृतीकरण, सत्वपातन आदि।
चिकित्साश् (ट्रीटमेंट): चिकित्सक, परिचायक, औषध और रोगी, ये चारों मिलकर शारीरिक धातुओं की समता के उद्देश्य से जो कुछ भी उपाय या कार्य करते हैं उसे चिकित्सा कहते हैं। यह दो प्रकार की होती है: (1) निरोधक (प्रिवेंटिव) तथा (2) प्रतिषेधक (क्योरेटिव); जैसे शरीर के प्रकृतिस्थ दोषों और धातुओं में वैषम्य (विकार) न हो तथा साम्य की परंपरा निरंतर बनी रहे, इस उद्देश्य से की गई चिकित्सा निरोधक है तथा जिन क्रियाओं या उपचारों से विषम हुई शरीरिक धातुओं में समता उत्पन्न की जाती है उन्हें प्रतिषेधक चिकित्सा कहते हैं।
पुन: चिकित्सा तीन प्रकार की होती है: (1) सत्वावजय (साइकोलॉजिकल): इसमें मन को अहित विषयों से रोकना तथा हर्षण, आश्वासन आदि उपाय हैं। (2) दैवव्यपाश्रय (डिवाइन): इसमें ग्रह आदि दोषों के शमनार्थ तथा पूर्वकृत अशुभ कर्म के प्रायश्चित्तस्वरूप देवाराधन, जप, हवन, पूजा, पाठ, ्व्रात, तथा मणि, मंत्र, यंत्र, रत्न और औषधि आदि का धारण, ये उपाय होते हैं। (3) युक्तिव्यपाश्रय (मेडिसिनल अर्थात् सिस्टमिक ट्रीटमेंट): रोग और रोगी के बल, स्वरूप, अवस्था, स्वास्थ्य, सत्व, प्रकृति आदि के अनुसार उपयुकत औषध की उचित मात्रा, अनुकूल कल्पना (बनाने की रीति) आदि का विचार कर प्रयुक्त करना। इसके भी मुख्यत: तीन प्रकार हैं: अंत:परिमार्जन, बहि:परिमार्जन और शस्त्रकर्म।
अंत:परिमार्जनश् (औषधियों का आभ्यंतर प्रयोग): इसके भी दो मुख्य प्रकार हैं: (1) अपतर्पण या शोधन या लंघन; (2) संतर्पण या शमन या बृंहण (खिलाना)। शारीरिक दोषों को बाहर निकालने के उपायों को शोधन कहते हैं, उसके वमन, विरेचन (पर्गेटिव), वस्ति (निरूहण), अनुवासन और उत्तरवस्ति (एनिमैटा तथा कैथेटर्स का प्रयोग), शिरोविरेचन (स्नफ़्स आदि) तथा रक्तामोक्षणश् (वेनिसेक्शन या ब्लड लेटिंग), ये पांच उपाय हैं।
शमन-लाक्षणिक चिकित्सा (सिंप्टोमैटिक ट्रीटमेंट): विभिन्न लक्षणों के अनुसार दोषों और विकारों के शमनार्थ विशेष गुणवाली औषधि का प्रयोग, जैसे ज्वरनाशक, छर्दिघ्न (वमन रोकनेवाला), अतिसारहर (स्तंभक), उद्दीपक, पाचक, हृद्य, कुष्ठघ्न, बल्य, विषघ्न, कासहर, श्वासहर, दाहप्रशामक, शीतप्रशामक, मूत्रल, मूत्रविशोधक, शुक्रजनक, शुक्रविशोधक, स्तन्यजनक, स्वेदल, रक्तस्थापक, वेदनाहर, संज्ञास्थापक, वय:स्थापक, जीवनीय, बृंहणीय, लेखनीय, मेदनीय, रूक्षणीय, स्नहेनीय आदि द्रव्यों का आवश्यकतानुसार उचित कल्पना और मात्रा में प्रयोग करना।
इन औषधियों का प्रयोग करते समय निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए: यह औषधि इस स्वभाव की होने के कारण तथा अमुक तत्वों की प्रधानता के कारण, अमुक गुणवाली होने से, अमुक प्रकार के देश में उत्पन्न और अमुक ऋतु में संग्रह कर, अमुक प्रकार सुरक्षित रहकर, अमुक कल्पना से, अमुक मात्रा से, इस रोग की, इस-इस अवस्था में तथा अमुक प्रकार के रोगी को इतनी मात्रा में देने पर अमुक दोष को निकालेगी या शांत करेगी। इसके प्रभाव में इसी के समान गुणवाली अमुक औषधि का प्रयोग किया जा सकता है। इसमें यह यह उपद्रव हो सकते हैं और उसके शमनार्थ ये उपाय करने चाहिए।
बहि:परिमार्जन (एक्स्टर्नल मेडिकेशन)-जैसे अभ्यंग, स्नान, लेप, धूपन, स्वेदन आदि।
शस्त्रकर्म-विभिन्न अवस्थाओं में निम्नलिखित आठ प्रकार के शस्त्रकर्मों में से कोई एक या अनेक करने पड़ते हैं: 1. छेदन-काटकर दो फांक करना या शरीर से अलग करना (एक्सिज़न), 2. भेदन-चीरना (इंसिज़न), 3. लेखन-खुरचना (स्क्रेपिंग या स्कैरिफ़िकेशन), 4. वेधन-नुकीले शस्त्र से छेदना (पंक्चरिंग), 5. एषण (प्रोबिंग), 6. आहरण-खींचकर बाहर निकालना (एक्स्ट्रैक्शन), 7. विस्रावण-रक्त, पूय आदि को चुवाना (ड्रेनेज), 8. सीवन-सीना (स्यूचरिंग या स्टिचिंग)। इनके अतिरिक्त उत्पाटन (उखाड़ना), कुट्टन (कुचकुचाना, प्रिकिंग),श् मंथन (मथना, ड्रिलिंग), दहन (जलाना, कॉटराइज़ेशन) आदि उपशस्त्रकर्म भी होते हैं, शस्त्रकर्म (ऑपरेशन) के पूर्व की तैयारी को पूर्वकर्म कहते हैं, जैसे रोगी का शोधन, यंत्र (ब्लंट इंस्ट्रुमेंट्स), शस्त्र (शार्प इंस्ट्रुमेंट्स) तथा शस्त्रकर्म के समय एवं बाद में आवश्यक रुई, वस्त्र, पट्टी, घृत, तेल, क्वाथ, लेप आदि की तैयारी और शुद्धि। वास्तविक शस्त्रकर्म को प्रधान कर्म कहते हैं। शस्त्रकर्म के बाद शोधन, रोहण, रोपण, त्वक्स्थापन, सवर्णीकरण, रोमजनन आदि उपाय पश्चात्कर्म हैं।
शस्त्रसाध्य तथा अन्य अनेक रोगों में क्षार या अग्निप्रयोग के द्वारा भी चिकित्सा की जा सकती है। रक्त निकालने के लिए जोंक, सींगी, तुंबी, प्रच्छान तथा शिरावेध का प्रयोग होता है।
इस प्रकार आयुर्वेद की तीन स्थूल शाखाओं (हेतु, लिंग और औषध) का संक्षिप्त वर्णन किया गया है।
मानस रोग (मेंटल डिज़ीज़ेज़)-मन भी आयु का उपादान है। मन के पूर्वोक्त रज और तम इन दो दोषों से दूषित होने पर मानसिक संतुलन बिगड़ने का इंद्रियों और शरीर पर भी प्रभाव पड़ता है। शरीर और इंद्रियों के स्वस्थ होने पर भी मनोदोष से मनुष्य के जीवन में अस्तव्यस्तता आने से आयु का ्ह्रास होता है। उसकी चिकित्सा के लिए मन के शरीराश्रित होने से शारीरिक शुद्धि आदि के साथ ज्ञान, विज्ञान, संयम, मन:समाधि, हर्षण, आश्वासन आदि मानस उपचार करना चाहिए, मन को क्षोभक आहार विहार आदि से बचना चाहिए तथा मानस-रोग-विशेषज्ञों से उपचार कराना चाहिए।
इंद्रियां-ये आयुर्वेद में भौतिक मानी गई हैं। ये शरीराश्रित तथा मनोनियंत्रित होती हैं। अत: शरीर और मन के आधार पर ही इनके रोगों की चिकित्सा की जाती है।
आत्मा को पहले ही निर्विकार बताया गया है। उसके साधनों (मन और इंद्रियों) तथा आधार (शरीर) में विकार होने पर इन सबकी संचालक आत्मा में विकार का हमें आभास मात्र होता है। किंतु पूर्वकृत अशुभ कर्मों परिणामस्वरूप आत्मा को भी विविध योनियों में जन्मग्रहण आदि भवबंधनरूपी रोग से बचाने के लिए, इसके प्रधान उपकरण मन को शुद्ध करने के लिए, सत्संगति, ज्ञान, वैराग्य, धर्मशास्त्रचिंतन, ्व्रात, उपवास आदि करना चाहिए। इनसे तथा यम नियम आदि योगाभ्यास द्वारा स्मृति (तत्वज्ञान) की उत्पत्ति होने से कर्मसंन्यास द्वारा मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसे नैष्ठिकी चिकित्सा कहते हैं। क्योंकि संसार द्वंद्वमय है, जहाँ सुख है वहाँ दु:ख भी है, अत: आत्यंतिक (सतत) सुख तो द्वंद्वमुक्त होने पर ही मिलता है और उसी को कहते हैं मोक्ष।श्श्श्श्श्श् (य.उ.)
विस्तृत विवेचन, विशेष चिकित्सा तथा सुगमता आदि के लिए आयुर्वेद को आठ भागों (अष्टांग वैद्यक) में विभक्त किया गया है:
(1) कार्याचिकित्सा-इसमें सामान्य रूप से औषधिप्रयोग द्वारा चिकित्सा की जाती है। प्रधानत: ज्वर, रक्तपित्त, शोष, उन्माद, अपस्मार, कुष्ठ, प्रमेह, अतिसार आदि रोगों की चिकित्सा इसके अंतर्गत आती है। शास्त्रकार ने इसकी परिभाषा इस प्रकार की है-
कायचिकित्सानाम सर्वांगसंश्रितानांव्याधीनां ज्वररक्तपित्त-
शोषोन्मादापस्मारकुष्ठमेहातिसारादीनामुपशमनार्थम्। (सु.सू. 1।3)
(2) शल्ययंत्र-विविध प्रकार के शल्यों को निकालने की विधि एवं अग्नि, क्षार, यंत्र, शस्त्र आदि के प्रयोग द्वारा संपादित चिकित्सा को शल्य चिकित्सा कहते हैं। किसी ्व्राण में से तृण के हिस्से, लकड़ी के टुकड़े, पत्थर के टुकड़े, धूल, लोहे के खंड, हड्डी, बाल, नाखून, शल्य, अशुद्ध रक्त, पूय, मृतभ्रूण आदि को निकालना तथा यंत्रों एवं शस्त्रों के प्रयोग एवं ्व्राणों के निदान, तथा उसकी चिकित्सा आदि का समावेश शल्ययंत्र के अंतर्गत किया गया है।
शल्यंनाम विविधतृणकाष्ठपाषाणपांशुलोहलोष्ठस्थिवालनखपूयास्रावद्रष्ट्व्राणा- ंतर्गर्भशल्योद्वरणार्थ यंत्रशस्त्रक्षाराग्निप्रणिधान्व्राण विनिश्चयार्थच। (सु.सू. 1।1)।
(3) शालाक्ययंत्र-गले के ऊपर के अंगों की चिकित्सा में बहुधा शलाका सदृश यंत्रों एवं शस्त्रों का प्रयोग होने से इसे शालाक्ययंत्र कहते हैं। इसके अंतर्गत प्रधानत: मुख, नासिका, नेत्र, कर्ण आदि अंगों में उत्पन्न व्याधियों की चिकित्सा आती है।
शालाक्यं नामऊर्ध्वजन्तुगतानां श्रवण नयन वदन ्घ्रााणादि संश्रितानां व्याधीनामुपशमनार्थम्। (सु.सू. 1।2)।
(4) कौमारभृत्य-बच्चों, स्त्रियों विशेषत: गर्भिणी स्त्रियों और विशेष स्त्रीरोग के साथ गर्भविज्ञान का वर्णन इस तंत्र में है।
कौमारभृत्यं नाम कुमारभरण धात्रीक्षीरदोषश् संशोधनार्थं
दुष्टस्तन्यग्रहसमुत्थानां च व्याधीनामुपशमनार्थम् ।। (सु.सू. 1।5)।
(5) अगदतंत्र-इसमें विभिन्न स्थावर, जंगम और कृत्रिम विषों एवं उनके लक्षणों तथा चिकित्सा का वर्णन है।
अगदतंत्रं नाम सर्पकीटलतामषिकादिदष्टविष व्यंजनार्थं
विविधविषसंयोगोपशमनार्थं च ।। (सु.सू. 1।6)।
(6) भूतविद्या-इसमें देवाधि ग्रहों द्वारा उत्पन्न हुए विकारों और उसकी चिकित्सा का वर्णन है।
भूतविद्यानाम देवासुरगंधर्वयक्षरक्ष: पितृपिशाचनागग्रहमुपसृष्ट
चेतसांशान्तिकर्म वलिहरणादिग्रहोपशमनार्थम्। (सु.सू. 1।4)।
(7) रसायनतंत्र-चिरकाल तक वृद्धावस्था के लक्षणों से बचते हुए उत्तम स्वास्थ्य, बल, पौरुष एवं दीर्घायु की प्राप्ति एवं वृद्धावस्था के कारण उत्पन्न हुए विकारों को दूर करने के उपाय इस तंत्र में वर्णित हैं।
रसायनतंत्र नाम वय: स्थापनमायुमेधावलकरं रोगापहरणसमर्थं च।श्श्श्श्श् (सु.सू. 1।7)।
(8) वाजीकरण-शुक्रधातु की उत्पत्ति, पुष्टता एवं उसमें उत्पन्न दोषों एवं उसके क्षय, वृद्धि आदि कारणों से उत्पन्न लक्षणों की चिकित्सा आदि विषयों के साथ उत्तम स्वस्थ संतोनोत्पत्ति संबंधी ज्ञान का वर्णन इसके अंतर्गत आते हैं।
वाजीकरणतंत्रं नाम अल्पदुष्ट क्षीणविशुष्करेतसामाप्यायन
प्रसादोपचय जनननिमित्तं प्रहर्षं जननार्थंच। (सु.सू. 1।8)।
आयुर्वेद संबंधी शोध-स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत सरकार का ध्यान आयुर्वेदिक सिद्धांत एवं चिकित्सा संबंधी शोध की ओर आकर्षित हुआ। फलस्वरूप इस दिशा में कुछ महत्वपूर्ण कदम उठाए गए हैं और एकाधिक शोधपरिषदों एवं संस्थानों की स्थापना की गई है जिनमें से प्रमुख ये है:
(अ) भारतीय चिकित्सापद्धति एवं होम्योपैथी की केंद्रीय अनुसंधान परिषद्श् (सेंट्रल कौंसिल फॉर रिसर्च इन इंडियन मेडिसिन ऐंड होम्योपैथी) इस स्वायत्तशासी केंद्रीय अनुसंधान परिषद् की स्थापना का बिल भारत सरकार ने 22 मई, 1969 की लोकसभा में पारित किया था। इसका मुख्य उद्देश्य आयुर्वेदिक चिकित्सा के सैद्धांतिक एवं प्रायोगिक पहलुओं के विभिन्न पक्षों पर अनुसंधान के सूत्रपात को निदेशित, प्रोन्नत, संवर्धित तथा विकसित करना है। इस संस्था के प्रधान कार्य एवं उद्देश्य निम्नलिखित हैं:
(1) भारतीय चिकित्सा (आयुर्वेद, सिद्ध, यूनानी, योग एवं होम्योपैथी) पद्धति से संबंधित अनुसंधान को वैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुत करना।
(2) रोगनिवारक एवं रोगोत्पादक हेतुओं से संबंधित तथ्यों का अनुशीलन एवं तत्संबंधी अनुसंधान में सहयोग प्रदान करना, ज्ञानसंवर्धन एवं प्रायोगिक विधि में वृद्धि करना।
3. भारतीय चिकित्साप्रणाली, होम्योपैथी तथा योग के विभिन्न सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक पहलुओं में वैज्ञानिक अनुसंधान का सूत्रपात, संवर्धन एवं सामंजस्य स्थापित करना।
(4) केंद्रीय परिषद् के समान उद्देश्य रखनेवाली अन्य संस्थाओं, मंडलियों एवं परिषदों के साथ विशेषकर पूर्वांचल प्रदेशीय व्याधियों और खासकर भारत में उत्पन्न होनेवाली व्याधियों से संबंधित विशिष्ट अध्ययन एवं पर्यवेक्षण संबंधी विचारों का आदान प्रदान करना।
5. केंद्रीय परिषद् एवं आयुर्वेदीय वाङमय के उत्कर्ष पत्रों आद का मुद्रण, प्रकाशन एवं प्रदर्शन करना।
6. केंद्रीय परिषद् के उद्देश्यों के उत्कर्ष निमित्त पुरस्कार प्रदान करना तथा छात्रवृत्ति स्वीकृत करना। छात्रों को यात्रा हेतु धनराशि की स्वीकृति देना भी इसमें सम्मिलित है।
(आ) केंद्रीय अनुसंधान संस्थान (सेंट्रल रिसर्च इंस्टिट्यूट) आतुरालयों, प्रयोगशालाओं, आयुर्विज्ञान के आधारभूत सिद्धांतों एवं प्रायोगिक समस्याओं पर बृहद् रूप से शोध कर रहा है। इसके प्रधान उद्देश्य निम्नलिखित हैं:
1. रोगनिवारण एवं उन्मूलन हेतु अच्छी, सस्ती तथा प्रभावकारी औषधियों का पता लगाना।
2. विभिन्न केंद्रों (केंद्रीय परिषद् के) में संलग्न कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षण संबंधी सुविधाएँ प्रदान करना।
3. विभिन्न व्यक्तियों अथवा संस्थाओं द्वारा 'रोगनिवारण' के दावों का मूल्याँकन करना।
4. आयुर्वेदीयविज्ञान के सिद्धांतों का संवर्धन करना।
5. आधुनिक चिकित्साविज्ञान के दृष्टिकोण से आयुर्वेदीय सिद्धांतों की पुनर्व्याख्या करना।
6. विभिन्न नैदानिक पहलुओं पर अनुसंधान करना।
उपर्युक्त संस्थान के साथ (1) औषधीय वनस्पति सर्वेक्षण इकाइयाँ (सर्वे आफ मेडिसिनल प्लांट्स यूनिट्स), (2) तथ्यनिष्कासन चल नैदानिक अनुसंधान इकाइयाँ
इसके अतिरिक्त केंद्रीय संस्थान निम्न स्थानों पर कार्य कर रहे हैं:
आयुर्वेदश्श्: केंद्रीय अनुसंधान संस्थान, चेरूथरुथी।
केंद्रीय अनुसंधान संस्थान, पटियाला।
सिद्धश्श्श्श्: केंद्रीय अनुसंधान संस्थान, मद्रास।
यूनानीश्श्श्: केंद्रीय अनुसंधान संस्थान, हैदराबाद।
होम्योपैथीश्: केंद्रीय अनुसंधान संस्थान, कलकत्ता।
(इ) क्षेत्रीय अनुसंधान संस्थानश् (रीजनल रिसर्च इंस्टिट्यूट) इस संस्थान का कार्य भी प्राय: केंद्रीय अनंसधान संस्थान के समान ही है। ऐसे संस्थानों के साथ 25 शय्यावाले आतुरालय भी संबद्ध हैं। भुवनेश्वर, जयपुर, योगेंद्रनगर तथा कलकत्ता में क्षेत्रीय अनुसंधान केंद्र स्थापित किए गए हैं। इन संस्थानों के साथ भीश् (1) औषधीय वनस्पति सर्वेक्षण इकाइयाँ, (2) तथ्यनिष्कासन चल नैदानिक अनुसंधान इकाइयाँ तथा (3) नैदानिक अनुसंधान इकाइयाँ संबद्ध हैं।
औषधीय वनस्पति सर्वेक्षण इकाई के उद्देश्य निम्नलिखित हैं:
1. आयुर्वेदीय वनस्पतियों के (जिनका विभिन्न आयुर्वेदीय संहिताओं में उल्लेख है) क्षेत्र का विस्तार एवं परिमाण का अनुमान।
2. विभिन्न औषधियों का संग्रह करना।
3. विभिन्न इकाइयों (अनसंधान) में जाँच हेतु हरे पौधों, बीज एवं अन्य औषधियों में प्रयुक्त होनेवाले भाग का प्रचुर परिमाण में संग्रह करना आदि।
4. इसके अतिरिक्त आयुर्वेदिक औषधि उद्योग में प्रयुक्त होनेवाले द्रव्य, अन्य सुंदर तथा आकर्षक पौधे, विभिन्न जंगली द्रव्यों एवं अलभ्य पौधों और द्रव्यों के संबंध में छानबीन करना।
(ई) मिश्रित भेषज अनुसंधन योजना श्(कंपोज़िट ड्रग रिसर्च स्कीम) इस योजना के अंतर्गत कुछ आधुनिक प्रयोग में आई नवीन औषधियों का अध्ययन प्राथमिक रूस से किया जा रहा है। विभिन्न दृष्टिकोणों को लेकर अर्थात् नैदानिक, क्रियाशीलता संबंधी, रासायनिक तथा संघटनात्मक अध्ययन इसके क्षेत्र में सम्मिलित किए गए हैं।
(उ) वाङमय अनुसंधान इकाई श्(लिटरेरी रिसर्च यूनिट) आयुर्वेद के बिखरे एवं नष्टप्राय वाङमय को विभिन्न निजी एवं सार्वजनिक पुस्तकालयों के सर्वेक्षण द्वारा संकलित करना इस इकाई का काम है। प्राचीन काल में तालपत्र, भोजपत्र आदि पर लिखे आयुर्वेद के अमूल्य रत्नों का संकलन एवं संवर्धन भी इसके प्रमुख उद्देश्य में से एक हैं।
(ऊ) चिकित्साशास्त्र के इतिहास का संस्थानश् (इंस्टिट्यूट ऑव हिस्टरी ऑव मेडिसिन) यह संस्थान हैदराबाद में स्थित है। इसका मुख्य उद्देश्य युगानुरूप आयुर्वेद के इतिहास का प्रारूप तैयार करना है। प्रागैतिहासिक युग से आधुनिक युग पर्यंत आयुर्वेद की प्रगति एवं ्ह्रास का अध्ययन ही इसका कार्य है।
संधानीय शल्य विज्ञान: आयुर्वेद में संधानीय शल्य विज्ञान का विकास चरम सीमा पर था। सुश्रुत संहिता में संधानक शल्यक्रिया के प्रधानत: दो पक्ष वर्णित हैं। प्रथम पक्ष का संधानकर्म एवं द्वितीय को वैकृतापट्टम की संज्ञा दी गई है।
1. संधान कर्मश् पुनर्निर्माण संबंधी शल्यक्रिया है और संधानक शलयविज्ञान का आधारस्तंभ भी। इसके अंतर्गत (क) कर्णसंधान, (ख) नासासंधान तथा (ग) ओष्ठसंधान इत्यादि शल्यक्रियाओं का समावेश किया गया है। 2. वैकृतपट्टमश् में ्व्राणरोपण से प्राकृतिक लावण्य पर्यंत अनेक अवस्थाओं का समावेश किया गया है। वैकृतापट्टम क्रिया का मुख्य उद्देश्य ्व्राणवस्तु (्व्राणचिह्नों) को यथासंभव प्राकृतिक अवस्था (आकार, रूप, प्रकृति) में लाना है जिनमें निम्नांकित आठ प्रधान कर्म संपादित किए जाते हैं:
(अ) उत्सादन कमर्-नीचे दबी हुई ्व्राणवस्तु को ऊपर उठाना।
(आ) अवसादकमर्-ऊपर उठी हुई ्व्राणवस्तु को नीचे लाना।
(इ) मृदुकमर्-कठिन ्व्राणवस्तु को मृदु करना।
(ई) दारुणकमर्-मृदु ्व्राणवस्तु को वर्ण प्रदान करना।
(उ) कृष्णकमर्-वर्णरहित ्व्राणवस्तु को वर्ण प्रदान करना।
(ऊ) पांडुकमर्-अतिरंजित ्व्राणवस्तु को न्यनवर्ण अथवा वर्णविहीन करना।
(ए) रोमसंजनन-्व्राणवस्तु के ऊपर पुन: प्राकृतिक रोम उत्पन्न करना।
(ऐ) लोपाहरण-्व्राणवस्तु के ऊपर उत्पन्न अत्यधिक बालों को नष्ट करना।
टीका टिप्पणी और संदर्भ