आरंभवाद
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आरंभवाद
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1 |
पृष्ठ संख्या | 420 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पाण्डेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1964 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | डॉ. रामचंद्र पांडेय |
आरंभवाद कार्य संबंधी न्यायशास्त्र का सिद्धांत। कारणों से कार्य की उत्पत्ति होती है। उत्पत्ति के पहले कार्य नहीं होता। यदि कार्य उत्पत्ति के पहले रहता तो उत्पादन की आवश्यकता ही न होती। इसी सार्वजनीन अनुभव के आधार पर न्यायशास्त्र में उत्पन्न कार्य को उत्पत्ति के पहले असत् माना जाता है। बहुत से कारण (कारणसामग्री) एकत्र होकर किसी पहले के असत् कार्य का निर्माण आंरभ करते हैं। इसी असत् कार्य के निर्माण के सिद्धांत को आरंभवाद कहा जाता है। इस सिद्धांत के विपरीत सत् कार्यवादी दर्शन में चूंकि कार्य उत्पत्ति के पहले सत् माना गया है, वहाँ कार्य का नए सिरे से आरंभ नहीं माना जाता। केवल दिए हुए कार्य को स्पष्ट कर देना ही कार्य की उत्पत्ति होती है। यही कारण है कि सांख्य, वेदांत आदि दर्शनों के आरंभवाद का विरोध किया गया है और परिणामवाद या विवर्तवाद की स्थापना की गई है। भूतार्थवादी न्यायदर्शन को उत्पत्ति के पूर्व कार्य की स्थिति मानना हास्यास्पद लगता है। यदि तेल पहले से विद्यमान है तो तिल को पेरने का कोई प्रयोजन नहीं। यदि तिल को पेरा जाता है तो सिद्ध है कि तेल पहले नहीं था। यदि मान भी लिया जाय कि तिल में तेल छिपा था, पेरने से प्रकट हो गया तो भी आरंभवाद की ही पुष्टि होती है। उपभोग योग्य तेल पहले नहीं था और पेरने के बाद ही उस तेल की उत्पत्ति हुई। अत: न्याय के अनुसार कार्य सर्वदा अपने कारणों से नवीन होता है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ