आर्तव
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आर्तव
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1 |
पृष्ठ संख्या | 432 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पाण्डेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1964 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | डॉ> कुमार कमला गुप्ता |
आर्तव (मासिक धर्म) स्त्रियों की जननेंद्रिय द्वारा लगभग प्रतिमास रक्त मिश्रित द्रव निकलने को आर्तव, मासिक धर्म, रजस्राव, ऋतुप्रवाह या ऋतुस्राव (अंग्रेजी में मेंस्ट्रएशन) कहते हैं। परंपरागत विश्वास यह है कि रजोदर्शन प्रति चांद्र मास होता है-'मासिक धर्म' नाम इसीलिए पड़ा है। परंतु साधारणत: एक स्राव के आरंभ से दूसरे स्राव के आरंभ तक की अवधि 27 से 30 दिन की होती है ओर केवल 10-12 प्रतिशत स्त्रियों में यह अवधि ठीक एक चांद्र मास की होती है। फिर, एक ही स्त्री में यह अवधि घटती बढ़ती भी रहती है। इस अवधि पर मौसम का भी प्रभाव पड़ता रहता है। कुछ स्त्रियों में यह अवधि प्राय: स्थिर रहती है परंतु अधिकांश स्त्रियों में यह अवधि कभी कभी 21 दिन तक छोटी या 35 दिन तक लंबी हो जाती है। इससे कम या अधिक की अवधि को रोग का लक्षण माना जाता है।
शीतोष्ण देशों में जब आर्तव पहले आरंभ होता है तब लड़कियों की आयु 13 और 15 वर्ष के बीच रहती है। गरम देशों में आर्तव कुछ पहले और ठंढे देशों में कुछ देर से आरंभ होता है, परंतु कई कारणों से प्रथम रजोदर्शन के समय की आयु बदल सकती है। नौ वर्ष की लड़कियों में आर्तव का आरंभ होता देखा गया है और कुद में 18 वर्ष में इसका आरंभ हुआ है। 45 से 50 वर्ष की आयु हो जाने पर आर्तव साधारणत: बंद हो जाता है, यद्यपि कुछ स्त्रियों में इसके बंद होने में दो तीन वर्ष ओर भी लग जाते हैं। कुछ स्त्रियों में आर्तव एकाएक बंद होता है, परंतु अधिकांश स्त्रियों में आर्तव की अवधि अनियमित होकर और स्राव की मात्रा घटते घटते वर्ष दो वर्ष में आर्तव बंद होता है। इस समय में बहुधा स्त्री समय समय पर एकाएक गर्मी अनुभव करती है; नाड़ी अनियमित गति से चलने लगती है; निद्रानाश तथा उदासी आदि लक्षण भी प्रकट हो सकते हैं; परंतु रजोनिवृत्ति (मेनोपॉज़) के पश्चात् स्वास्थ्य अच्छा हो जाता है ओर वर्षो तक स्फूर्ति बनी रहती है।
लड़कियों में जब आर्तव का होना आंरभ होता है तब कुछ वर्षो तक आर्तव थोड़ा बहुत अनियमित समयों पर होता हे। आर्तव का आरंभ युवावस्था का आरंभ है। इसके साथ साथ शरीर में कई निश्चित परिवर्तन होते हैं, यथा स्तनों का बढ़ना, उसके भीतर की दुग्ध ग्रंथियों का विकास, अंडाशय की वृद्धि, गर्भाशय तथा बाह्म जननांगों का विकास इत्यादि। साथ ही स्त्रीत्व ओर परिपक्वता के अन्य लक्षण भी, शारीरिक तथा मानसिक दोनों, उत्पन्न होते हैं।
आर्तव का औसत काल चार दिन हैं, परंतु एक सप्ताह तक भी चल सकता है। आरंभ में स्राव कम होता है, तब एक या दो दिन स्राव अधिक होता हैं, फिर धीरे धीरे घटकर मिट जाता है। स्राव में केवल रक्त नहीं रहता। स्राव रक्त के समान जमता भी नहीं। स्राव में लगभग आधा या दो तिहाई रक्त होता है, शेष में अन्य स्राव (श्लेष्मा) और कोशिकाओं के क्षत विक्षत अंश रहते हैं। कुल रक्त लगभग एक छटांक जाता है, परंतु दुगने या कभी कभी तिगुने तक जा सकता है। इससे अधिक स्राव होने को रोग समझना चाहिए।
आर्तव के समय स्त्री के सारे शरीर में थोड़ा बहुत परिवर्तन होता है, परंतु अनेक स्त्रियों को आर्तव से कोई पीड़ा या बेचैनी नहीं होती और उनके दैनिक जीवन में कोई अंतर नहीं पड़ता । साधारणत: पाचनशक्ति कुछ कम हो जाती है, शरीरताप कुछ कम हो जाती है। अधिकांश स्त्रियों में आर्तव के समय पीड़ा और उदासी होती है। पेट के निचले भाग में भारीपन ओर कमर में पीड़ा का अनुभव होता है। कुछ को सिरदर्द, शिथिलता, थकावट, पेट फूलना, मूत्राशय में जलन, छाती में भारीपन इत्यादि की शिकायत रहती है। ये सब लक्षण आर्तव का आरंभ होने पर मिट जाते हैं। सदा स्वास्थ्य के नियमों का पालन करने से आर्तव के समय कष्ट कम होता है। जब स्त्री गर्भवती रहती है तब आर्तव बंद रहता है और प्रसव के बाद भी कई महीनों तक बंद रहता है।
प्रत्येक दो आर्तवों के अंत:काल के लगभग मध्य में एक बार डिंबक्षरण होता है, अर्थात् एक डिंब डिंबग्रंथि से निकलकर गर्भाशय में आता है। यदि उस डिंब का निषेचन हो जाता है, अर्थात पुरुष के वीर्य के एक शुक्राण से उसका संयोग हो जाता है तो गर्भ स्थापित हो जाता है, नहीं तो डिंब नष्ट हो जाता है ओर आर्तवकाल के साथ निकल जाता है। विद्वानों का विचार है कि गर्भाशय की अंतकला पर डिंबग्रंथि में बने हुए हारमोन का जो प्रभाव पड़ता है वह आर्तव का रण है। संभव हैं, अंत: कला में भी कुछ ऐसे विष बनते हो जिनके कारण कला कोशिकाएं फट जाती हों।
आर्तव संबधी रोग-गर्भाधान, अधिक आयु के कारण आर्तव का मिटना या कम आयु में आर्तव के आरंभ मे देर, इन तीन कारणों को छोड़कर अन्य किसी कारण से आर्तव के रुकने को रुद्वावर्तव (एमेनोरिया) कहतें हैं। यह रक्तक्षीणता (अनीमिया), क्षय अथवा तंत्रिकाओं की अत्यंत अधिक थकावट से उत्पन्न होता है। अत्यात्रव (मेनोरेजिया) उस दशा को कहते हैं जब साधारण से बहुत अधिक स्राव होता है। इस दशा में विश्राम करने से लाभ होता है। कष्टार्तव (डिसमेनोरिया) से अधिक पीड़ा होती है। असामयिक आर्तव (मेट्रोरेजिया) में आर्तव का समय आए बिना ही स्राव होता है। इन दशाओं में चिकित्सक से राय लेना उचित होगा।
टीका टिप्पणी और संदर्भ