आर्यशूर
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आर्यशूर
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1 |
पृष्ठ संख्या | 442 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पाण्डेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1964 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | डॉ. बलदेव उपाध्याय |
आर्यशूर संस्कृत के प्रख्यात बौद्ध कवि। साधारणत: ये अश्वघोष से अभिन्न माने जाते हैं, परंतु दोनों की रचनाओं की भिन्नता के कारण आर्यशूर को अवश्घोष से भिन्न तथा पश्चाद्वर्ती मानना ही युक्तिसंगत है। इनके प्रसिद्ध ग्रंथ 'जातक माला' की प्रख्याति भारत की उपेक्षा भारत के बाहर बौद्धजगत में कम न थी। इसका चीनी भाषा में अनुवाद 10वीं शताब्दी में किया गया था। ईत्सिंग ने आर्यशूर की कविता की ख्याति का वर्णन अपने यात्राविवरण में किया है (आठवीं शताब्दी)। अजंता की दीवारों पर 'जातकमाला' के शांतिवादी, शिवि, मैत्रीबल आदि जातकों के दृश्यों का अंकन और परिचयात्मक पद्यों का उत्खनन छठी शताब्दी में इसकी प्रसिद्धि का पर्याप्त परिचायक है। अश्वघोष द्वारा प्रभावित होने के कारण आर्यशूर का समय द्वितीय शताब्दी के अनंतर तथा पांचवीं शताब्दी से पूर्व मानना न्यायसंगत होगा। इनका मुख्य ग्रंथ 'जातकमाला' चंपूशैली में निर्मित है। इसमें संस्कृत के गद्य पद्य का मनोरम मिश्रण है। 34 जातकों का सुंदर काव्यशैली तथा भव्य भाषा में वर्णन हुआ है। इसकी दो टीकाएँ संस्कृत में अनुपलब्ध होने पर भी तिब्बती अनुवाद में सुरक्षित हैं। आर्यशूर की दूसरी काव्यरचना 'पारमितासमास' है जिसमें छहों पारमिताओं (दान, शील, क्षांति, वीर्य, ध्यान तथा प्रज्ञा पारमिताओं) का वर्णन छह सर्गों तथा 3,641 श्लोकों में सरल सुबोध शैली में किया गया है। दोनों काव्यों का उद्देश्य अश्वघोषीय काव्यकृतियों के समान ही रूखे मनवाले पाठकों को प्रसन्न कर बौद्ध धर्म के उपदेशों का विपुल प्रचार और प्रसार है (रूक्ष-मानसामपि प्रसाद:)। कवि ने अपने प्रयोजन की सिद्धि के लिए बोलचाल की व्यावहारिक संस्कृत का प्रयोग किया है और उसे अलंकार के व्यर्थ आडंबर से प्रयत्नपूर्वक बचाया है। पद्यभाग के समान गद्यभाग भी सुश्लिष्ट तथा सुंदर है।[१]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सं.ग्रं.-विंटरनित्स : हिस्ट्री ऑव इंडियन लिटरेचर, भाग 2 (कलकत्ता 1925); बलदेव उपाध्याय : संस्कृत साहित्य का इतिहास (पंचम सं., काशी, 1958)।