आल्हा

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लेख सूचना
आल्हा
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1
पृष्ठ संख्या 451
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पाण्डेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1964 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक श्री नामवर सिंह

आल्हा एक वीरतापूर्ण लोकमहाकाव्य है जो लगभग समस्त उत्तर भारत में दिल्ली से बिहार तक पेशेवर अल्हैतों द्वारा जनता के बीच गया जाता है। लोकप्रियता की दृष्टि से तुलसीदास के रामचरितमानस के बाद आल्हा का ही नाम लिया जाता है। इसमें बावन लड़ाइयों का वर्णन है और इन लड़ाइयों के वीर योद्धा आल्हा और ऊदल लोकजीवन में अपनी वीरता के लिए इतने प्रिय हैं कि उनका व्यक्तित्व बहुत कुद अतिमानवीय बन गया है। साहित्य में इस काव्य को आल्हखंड कहा जाता है, परंतु लोक में आल्हा नाम ही प्रचलित है।

लोककाव्य होने के कारण आल्हखंड के विविध रूपांतर मिलते हैं-खड़ीबोली, कन्नोजी, बुंदेली, बैसवाड़ी, अवधी, भोजपुरी, और संभवत: मगही आल्हखंड मुख्य हैं। बोली के भेद के अलावा इनमें कथाखंडों का भी यत्र तत्र अंतर है। आधुनिक हिंदीवाला पाठ, जो आजकल विशेष प्रचलित है, पहले पहल चौधरी घासीराम द्वारा संपादित होकर मेरठ के ज्ञानसागर प्रेस से प्रकाशित हुआ था। कन्नोजी पाठ का संग्रह 1865 में पहली बार फर्रुखाबाद के कलक्टर चार्ल्स इलियट ने अल्हैतों से सुनकर करवाया था जो श्रीठाकुरदास द्वारा फतेहगढ़ से प्रकाशित हुआ। इसके कुछ अंशों का अंग्रेजी पद्यानुवाद डब्ल्यू. वाटरफील्ड ने कलकत्ता रिब्यू (1875-76 ई.) में प्रकाशित करवाया था। आल्हखंड के भोजपुरी रूपांतर के अध्ययन का श्रेय ग्रियर्सन को है। उन्होंने 1885 में इंडियन ऐंटिक्वेरी (खंड 14) में इसके कुछ अंशों का अंग्रेजी गद्यानुवाद छपवाया था। बुंदेली रूपांतर के कुछ अंश 'लिंग्विस्टिक सर्वे ऑव इंडिया' (खंड 9, भाग1) में हैं जिनका संग्रह विर्न्सेट स्मिथ ने किया था।

आल्हखंड के कुछ प्राचीन हस्तलिखित रूपांतर भी मिलते हैं। एक तो सं. 1925 वि. में लिपिबद्ध 'महोबासमय' है जो चंदकृत पृथ्वीराजरासो से संबद्ध है और दूसरा सं. 1849 वि. में लिपिबद्ध 'महोबाकांड' है जिसका संपादन डा. श्यामसुंदरदास ने 'परमालरासो' (काशी नागरीप्रचारिणी सभा) नाम से किया है। वस्तुत: ये दोनों ग्रंथ लोकप्रिचलित आल्हखंड के साहित्यिक रूपांतर हैं और आकार में काफी छोटे हैं।

इस प्रकार आल्हखंड के दो रूप प्राप्त हैं: एक साहित्यिक काव्य और दूसरा लोककाव्य। साहित्यिक आल्हखंड के रचयिता जगनिक नामक एक भाट माने जाते हैं जो कालिंजर के राजा परमर्दिदेव (परमाल; 13वीं सदी) के राजकवि थे। विद्वानों का अनुमान है कि आल्हखंड मूलत: 13वीं सदी में रचित एक कवि की साहित्यिक रचना थी जो आगे चलकर एक ओर अल्हैतों द्वारा लोककाव्य की मौखिक परंपरा में परिवर्धित और विकसित होता रहा और दूसरी ओर चारणों और भाटों द्वारा साहित्य की लिंखित परंपरा में भी रूपांतरित होता चला गया।

आल्हखंड मध्ययुगीन सामंती शौर्य का रोमासं काव्य है जिसमें प्रेम और युद्ध के अनेक गाथाचक्र घटनासूत्र में जुड़े हुए हैं। इसमें नैनागढ़ की लड़ाई सबसे रोचक और लोकप्रिय है तथा सोना के हरण की कथा सबसे प्रसिद्ध हैं। यों तो इसके नाम से आल्हा के ही कथानायक होने का आभास होता है, परंतु इस काव्य का सबसे आकर्षक वीर ऊदल है जो आल्हा का छोटा भाई है। बड़े भाई आल्हा का चरित्र महाभारत के युधिष्ठिर की तहर अधिक मर्यादापूर्ण हैं, जबकि छोटे भाई ऊदल के चरित्र में अर्जुन की तरह एक रोमांस काव्य के चरितनायक के गुण अधिक हैं। परंतु संपूर्ण आल्हखंड में किसी एक वीर की वीरता इतनी प्रधान नहीं है जितनी उनके वंश-बनाफर--की वीरता। इसीलिए यह काव्य तत्कालीन अन्य राजप्रशस्त्रियों से भिन्न है और इसकी अत्यधिक लोकप्रियता का कारण भी संभवत: यही है कि इसमें किसी राजा का गुणगान न करके साधारण परिवार में उत्पन्न होनेवाले लोकवीरों का चरित गया गया है।

संपूर्ण आल्हखंड 'वीरछंद' में है जो आल्हखंड से संबद्ध हो जाने के बाद से लोक में आल्हा छंद कहलाता है। इस छंद में विषयानुरूप ओजपूर्ण गेयता है[१]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सं.ग्रं.-शंभूनाथ सिंह: हिंदी महाकाव्य का स्वरूपविकास (1956 ई.); उदयनारायण तिवारी: वीरकाव्य (1948 ई.)।