ईश्वर की कर्तृत्व शक्ति

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अधिकांश दर्शन एवं धर्म ‘ईश्वर’ को सृष्टि एवं जीवों को उत्पन्न करने वाला, उनका पालन करने वाला एवं उनके भाग्य का निर्धारण करने वाला मानते हैं। कर्ता/पालनकर्ता /संहारकर्ता के रूप में ‘परम शक्ति’ की अवधारणा अधिकांश धर्मों में है। मध्ययुगीन चेतना के केन्द्र में ‘ईश्वर’ प्रतिष्ठित है। परमशक्ति के कहीं अवतार के रूप में, कहीं पुत्र के रूप में, कहीं प्रतिनिधि के रूप में संसार में प्रतिष्ठित होने की धारणा है। विज्ञान ने दुनिया को समझने और जानने का वैज्ञानिक मार्ग प्रतिपादित किया है। विज्ञान ने स्पष्ट किया है कि यह विश्व किसी की इच्छा का परिणाम नहीं है। भौतिक विज्ञान ने सिद्ध किया है कि भौतिक द्रव्य/पदार्थ का कभी विनाश नहीं होता, उसका केवल रूपान्तर होता है। विज्ञान ने शक्ति के संरक्षण के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। भौतिक द्रव्य अथवा पदार्थ के ध्रौव्यता/अविनाश-सिद्धान्त की पुष्टि की है। समकालीन अस्तित्ववादी दर्शन ने भी ईश्वर का निषेध किया है। साम्यवादी दर्शन भी ईश्वर का अस्तित्व स्वीकार नहीं करता। इस प्रकार विज्ञान, साम्यवाद तथा अस्तित्ववादी दर्शन-तीनों ईश्वर की सत्ता का निषेध करते हैं। आधुनिकता-बोध का मूल प्रस्थान-बिन्दु यह है कि ईश्वर मनुष्य का स्रष्टा नहीं है अपितु मनुष्य ही ईश्वर का स्रष्टा है। मनुष्य ने ईश्वर नामक सत्ता को गढ़ा है। मध्ययुगीन चेतना के केन्द्र में ईश्वर प्रतिष्ठित था। आधुनिकता-बोध की चेतना के केन्द्र में ईश्वर प्रतिष्ठित था। मनुष्य ही सारे मूल्यों का स्रोत है। वही सारे मूल्यों का उपादान है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि हजारों वर्ष पूर्व से प्रवर्तित श्रमण परम्परा ने भी ईश्वर कर्तृत्व को मान्यता नहीं दी है। यहाँ यह द्रष्टव्य है कि भारतीय आत्मवादी दर्शनों के अनुयायी साधकों ने भी मध्य युग में ‘ईश्वर कर्तृत्व’ को सिद्धान्त रूप में अथवा लौकिक व्यवहार में मान्यता प्रदान की। जिन्होंने आत्मा को अनादि-निधन, अविनाशी और अक्षय माना उन्होंने भी मध्य युग में ईश्वर कर्तृत्व में आस्था व्यक्त की। इसी ईश्वर की भक्ति, स्तुति एवं जयगान को ही धर्म-आचरण का पर्याय मान लिया गया। यदि आत्मा अनादि-निधन है तथा भौतिक द्रव्य/पदार्थ भी अनादि-निधन है तब सृष्टि के कर्ता-धर्ता तथा जीवात्माओं के शरीर, इन्द्रिय एवं मन के कारण तथा उनके भाग्य-विधाता के रूप में ‘ईश्वर’ की सत्ता मानने का क्या औचित्य है। इस दृष्टि से विचार अपेक्षित है। क्या ईश्वर ही मनुष्य के भाग्य का निर्माता है ? क्या वही उसका भाग्यविधाता है ? यदि कोई मनुष्य सत्कर्म न करे तो भी क्या वह उसको अनुग्रह से अच्छा फल दे सकता है ? मनुष्य के जितने कर्म हैं वे सबके सब क्या पूर्व निर्धारित हैं ? उसके इस जीवन के कर्मों का उसकी भावी नियति से क्या किसी प्रकार कोई सम्बन्ध नहीं है ? मनुष्य ईश्वराधीन होकर ही क्या सब कर्म करता है या उसकी अपनी स्वतन्त्र कर्तृत्व शक्ति है। वह अपनी निजी चेतना शक्ति एवं पुरुषार्थ के कारण कर्मों के प्रवाह को बदल सकता है अथवा नहीं। यदि ईश्वर ही भाग्य निर्माता है तब तो वह मनुष्य को बिना कर्म के ही स्वेच्छा से फल प्रदान कर सकता है। यह मानने पर मनुष्य के पुरुषार्थ, धर्म, आचरण, त्याग एवं तपस्या मूलक जीवन व्यवहार की क्या प्रासंगिकता है। यदि जीव ईश्वराधीन ही होकर कर्म करता है तो इस संसार में दुख एवं पीड़ा का क्या कारण हैं। इस संसार मंे तो मनुष्य अनेक कष्टों को भोगता है। यदि ईश्वर या परमात्मा ही निर्माता, नियंता एवं भाग्य विधाता है तो इसके अर्थ हैं कि ईश्वर इतना परपीड़ाशील है कि वह ऐसे कर्म कराता है जिससे अधिकांश जीवों को दुख प्राप्त होता है। निश्चय ही कोई भी व्यक्ति ईश्वर की परपीड़ाशील स्वरूप की कल्पना नहीं करना चाहेगा। इस स्थिति में यह मानना होगा कि जीव में कर्म-संपादन की स्वतंत्र शक्ति है। कर्मों को सम्पादित करने की स्वतंत्र शक्ति या पुरुषार्थ की स्वीकृति मानने के अनन्तर क्या ईश्वर कर्मों का फल एक न्यायाधीश के रूप में देता है अथवा कर्मानुसार फल प्राप्ति होती है। दूसरे शब्दों में फलोद्भोग में ईश्वर का अवलम्बन अंगीकार करना आवश्यक है अथवा नहीं ? तार्किक दृष्टि से यदि विचार करें तो ईश्वर को नियामक एवं पाप पुण्य का फल प्रदाता मानने की कोई आवश्यकता नहीं है। कारण कार्य के सिद्धान्त के आधार पर विश्व की समस्त घटनाओं की तार्किक व्याख्या करना सम्भव है। यदि ऐसा न होता तो प्रकृति के नियमों की कोई भी वैज्ञानिक शोध सम्भव न हो पाती। यह तर्क दिया जा सकता है कि ईश्वर ने ही प्रकृति के नियमों की अवधारणा की है। इन्हीं के कारण जीव सांसरिक कार्य प्रपंच करता है। यदि ईश्वर के द्वारा ही प्रकृति के नियमों की अवधारणा हुई होती तो उसमें जागतिक कार्य प्रपंचों में परिवर्तन करने की भी शक्ति होती। यह सत्य नहीं है। इसका कारण यह है कि यदि ऐसा होता तो तथाकथित परम दयालु ईश्वर के संसार के जीवों के जीवन में किंचित भय, दुख, अशान्ति एवं क्लेश नहीं होता। यदि हम ईश्वर की कल्पना प्रशांत, परिपूर्ण, रागद्वेष रहित, मोह विहीन, वीतरागी, सच्चिदानंद रूप में करते हैं तो भी उसे फल में हस्तक्षेप करने वाला नहीं माना जा सकता। उस स्थिति में वह राग द्वेष तथा मोह आदि दुर्बलता से पराभूत हो जाएगा। यदि यह मान लिया जाए कि जीव स्वेच्छानुसार एवं सामथ्र्यानुकूल कर्म करने में स्वतंत्र है, उसमें ईश्वर के सहयोग की कोई आवश्यकता नहीं है; वह अपने ही कर्मों का परिणाम भोगता है, फल प्रदाता भी दूसरा कोई नहीं है, तो ऐसी स्थिति में क्या उसकी उत्पत्ति एवं विनाश के हेतु रूप में किसी परम शक्ति की कल्पना करना आवश्यक है ? इसी प्रकार क्या सृष्टि विधान के लिए भी किसी परम शक्ति की कल्पना आवश्यक है ? कर्तावादी सम्प्रदाय पदार्थ का तथा उसके परिणमन का कर्ता (उत्पत्ति-कर्ता, पालनकर्ता तथा विनाशकर्ता) ईश्वर को मानते हैं। इस विचारधारा के दार्शनिकों ने ईश्वर की परिकल्पना सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की परम शक्ति के रूप में की है जो विश्व का कर्ता तथा नियामक है तथा समस्त प्राणियों के भाग्य का विधाता है। ईश्वर की सत्ता सिद्ध करने हेतु जो तर्क दिए जाते हैं उनकी मीमांसा आवश्यक है - (1) कुसुम वच्चमणिः:- जिस प्रकार शुद्ध स्फटिकमणि में लाल फूल का प्रतिबिम्ब दिखाई पड़ता है उसी प्रकार असंग, निर्विकार, अकर्ता पुरुष के सम्पर्क में प्रकृति के साथ-साथ रहने से उसमें उस अकर्ता पुरुष का प्रतिबिम्ब पड़ता है। इससे जीवात्माओं के अदृष्ट कर्म संस्कार कलोन्मुखी हो जाते हैं तथा सृष्टि प्रवृत्त होती है। यह स्थापना ठीक नहीं है। इसके अनुसार चेतन जीवात्माओं को पहले प्रकृति में लीन रहने की कल्पना करनी पड़ेगी। उन्हें प्रकृति से उत्पन्न मानने पर जड़ को चेतन का कारण मानना पड़ेगा। इसके अतिरिक्त यदि अदृष्ट कर्म संस्कार फल प्रदान करते हैं तो फिर परमात्मा के सहकार की क्या आवश्यकता है ?

(2) अकार्यत्वेपि तद्योगः पारवश्यात् - सूत्र के आधार पर स्थापना की गई है कि प्रकृति कारण रूप है, कार्य नहीं है। चूंकि प्रकृति जड़ है अतएव सृष्टि के लिए उसमें पुरुष के योग की आवश्यकता होती है। यह तर्क भी संगत नहीं है। हाइड्रोजन के दो एवं आक्सीजन के एक परमाणु के संयोग से जल बन जाता है। इसमें परमात्म सहकार की अनिवार्यता दृष्टिगत नहीं होती। (3) एक स्थापना यह है कि परमात्मा सर्ववित् एवं सर्वकर्ता है और वह प्रकृति से अयस्कान्तवत् (चुम्बक सदृश्य) सृष्टि करता है। वह प्रेरक मात्र है। यदि इस स्थापना को माना जाए तो परमात्मा को असंग, निर्गुण, निर्लिप्त, निर्विकार कैसे माना जा सकता है ? (4) जिस प्रकार सेना की जय एवं पराजय का आरोप राजा पर किया जाता है उसी प्रकार प्रकृति के क्रियाकलापों का मिथ्या आरोप परमात्मा पर किया जाता है। तत्वतः परमात्मा कर्ता नहीं है। प्रकृति ही दर्पण के समान उसके प्रतिबिम्ब को प्राप्त करके सृष्टि विधान में प्रवृत्त होती है। सृष्टि-विधान में प्रकृति की प्रवृत्ति तर्क संगत है किन्तु पुरुषाध्यास की सिद्धि के लिए पुरुष प्रतिबिम्ब की कल्पना व्यर्थ प्रतीत होती है। अलिप्तकर्ता की शक्ति से मायारूप प्रकृति का शक्तिमान बनकर जगत की सृष्टि करना संगत नहीं है। युद्ध में राजा सेना सहित स्वयं लड़ता है अथवा युद्ध एवं विजय के लिए समस्त उद्यम करता है। इस स्थिति में राजा को अकर्ता नहीं कहा जा सकता। चेतन, सूक्ष्म, निर्विकल्प, निर्विकार, निराकार परमात्मा का अचेतन, स्थूल, विकल्पों से व्याप्त, सविकार एवं साकार जैसी पूर्ण विपरीत प्रकृति का संयोग सम्भव नहीं है। जीवात्मा का प्रकृति से सम्बन्ध बन्धन के कारण है किन्तु क्या परमात्मा जैसी परिकल्पना को भी बन्धनग्रस्त माना जा सकता है जिससे उसका जड़ स्वभावी प्रकृति से सम्बन्ध सिद्ध किया जा सके। निष्काम परमात्मा में सृष्टि की इच्छा क्यों ? पूर्ण से अपूर्ण की उत्पत्ति कैसी ? आनन्द स्वरूप में निरानन्द की सृष्टि कैसी ? जिसकी सभी इच्छायें पूर्ण हैं, जो आप्तकाम है उसमें सृष्टि की रचना की इच्छा कैसी ? इस प्रकार ईश्वर द्वारा उत्पादित सृष्टि की धारणा तर्क संगत नहीं है। 5. कर्तावादी दार्शनिकों ने विश्व स्रष्टा की परिकल्पना इस सादृश्य पर की है कि जिस प्रकार कुम्हार घड़ा बनाता है उसी प्रकार ईश्वर संसार का निर्माण करता है। बिना बनाने वाले के घड़ा नहीं बन सकता। सम्पूर्ण विश्व का भी इसी प्रकार किसी ने निर्माण किया है। यह सादृश्य ठीक नहीं है। यदि हम इस तर्क के आधार पर चलते हैं कि प्रत्येक वस्तु, पदार्थ या द्रव्य का कोई न कोई निर्माता होना जरूरी है तब इस जगत के निर्माता परमात्मा का भी कोई निर्माता होगा और इस प्रकार यह चक्र चलता जाएगा। अन्ततः इसका उत्तर नहीं दिया जा सकता। 6. ईश्वर से सृष्टि विधान इस आधार पर माना जाता है कि ईश्वर अपने में से जगत रूप आकार बनकर आप ही क्रीड़ा करता है। यह मानने पर पृथ्वी आदि जड़ के अनुरूप ईश्वर को भी जड़ मानना पड़ेगा अथवा ईश्वर को चेतन मानने पर पृथ्वी आदि को चेतन मानना पड़ेगा। यदि ईश्वर ने सृष्टि विधान किया है तो इसका अर्थ यह है कि सृष्टि विधान के पूर्व केवल ईश्वर का अस्तित्व मानना पड़ेगा। इसी आधार पर शून्यवादी कहते हैं कि सृष्टि के पूर्व शून्य था, अन्त में शून्य होगा, वर्तमान पदार्थ का अभाव होकर शून्य हो जाएगा। शांकरवेदांती ब्रह्म को विश्व के जन्म, स्थिति और संहार का कारण मानते हुए भी जगत को स्वप्न एवं माया रचित गंधर्भ नगर के समान पूर्णतया मिथ्या एवं असत्य मानते हैं। क्या सृष्टि विधान का कारण परमात्मा ही है ? क्या सृष्टि की आदि में जगत न था, केवल ब्रह्म था? प्रश्न उपस्थित होते हैं कि सृष्टि की सत्ता सत्य है या मिथ्या है, नित्य है या अनित्य है, जड़ है या चेतन है ? यदि परमात्मा से सृष्टि विधान माना जाता है तो या तो परमात्मा की चेतन रूप की परिकल्पना के अनुसार पृथ्वी आदि को भी चेतन मानना पड़ेगा अथवा पृथ्वी आदि के अनुरूप परमात्मा को जड़ मानना पड़ेगा। सत्यस्वरूप ब्रह्म से जगत की उत्पत्ति मानने पर ब्रह्म का कार्य असत्य कैसे हो सकता है ? यदि जगत की सत्ता सत्य है तो उसका अभाव कैसा ? जगत को स्वप्न एवं माया रचित गंधर्व नगर के समान पूर्णतया मिथ्या एवं असत्य मानना क्या संगत है ? क्या जगत को माया के विवर्त रूप में स्वीकार कर रज्जु में सर्प अथवा शुक्ति में रजत की भांति कल्पित माना जा सकता है ? कल्पना गुण है। गुण तथा द्रव्य की पृथकता नहीं हो सकती। स्वप्न बिना देखे या सुने नहीं आता। सत्य पदार्थों के साक्षात सम्बन्ध से वासनारूप ज्ञान आत्मा में स्थित होता है। स्वप्न में उन्हीं का प्रत्यक्षण होता है। स्वप्न और सुषुप्ति में बाह्य पदार्थों का अज्ञान मात्र होता है, अभाव नहीं। इस कारण जगत को अनित्य भी नहीं माना जा सकता। जब कल्पना का कर्ता नित्य है तो उसकी कल्पना भी नित्य होनी चाहिए अन्यथा वह भी अनित्य हुआ। जैसे सुषुप्ति में बाह्य पदार्थों के ज्ञान के अभाव में भी बाह्य पदार्थ विद्यमान रहते हैं वैसे ही प्रलय में जगत के बाह्य रूप के अभाव मंा भी जगत का मूल वर्तमान रहता है। कोयले को जितना चाहे जलावें, वह राख बन जाता है, उसका बाह्य रूप नष्ट हो जाता है किन्तु ‘कोयला’ में जो द्रव्य तत्व है वह सर्वथा नष्ट कभी नहीं हो सकता। विश्व जिन जीवों (चेतनाओं) एवं पुद्गल (पदार्थों) का समुच्चय है वे तत्वतः अविनाशी एवं आंतरिक हैं। इस कारण जगत को मिथ्या स्वप्नवत् एवं शून्यवत नहीं माना जा सकता। किसी भी नवीन पदार्थ की उत्पत्ति नहीं होती। पदार्थ में अपनी अवस्थाओं का रूपान्तर होता है। इस प्रकार इस ब्रह्माण्ड के प्रत्येक मूल तत्व की अपनी मूल प्रकृति है। कार्य कारण के नियम के आधार पर प्रत्येक मूल तत्व अपने गुणानुसार बाह्य स्थितियों में प्रतिक्रियाएं करता है। इस कारण जगत मिथ्या नहीं है। संसार के पदार्थ अविनाशी हैं। इस कारण विश्व को स्वप्नवत् नहीं माना जा सकता। ब्रह्माण्ड के उपादान या तत्व अनादि, आन्तरिक एवं अविनाशी होने के कारण अनिर्मित हैं। शून्य से किसी वस्तु का निर्माण नहीं होता। शून्य से जगत मानने पर जगत का अस्तित्व स्थापित नहीं किया जा सकता। जो वस्तु है उसका अभाव कभी नहीं होता। इस प्रकार जगत सत्य है तथा उसका शून्य से सद्भाव सम्भव नहीं है। विज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया है कि पदार्थ अविनाशी है। क्या परमात्मा या ईश्वर को समस्त जीवों के अंशी रूप से स्वीकार कर जीवों को परमात्मा के अंश रूप में स्वीकार किया जा सकता है। आत्मवादी दार्शनिक आत्मा को अविनाशी मानते हैं। गीता में भी इसी प्रकार की मान्यता का प्रतिपादन हुआ है। यह जीवात्मा न कभी उत्पन्न होता है, न कभी मरता है, न कभी उत्पन्न होकर अभाव को प्राप्त होता है। यह अजन्मा है, नित्य है, शाश्वत है, पुरातन है और शरीर का नाश होने पर भी नष्ट नहीं होता। इस जीवात्मा को अविनाशी, नित्य, अज और अव्यय समझना चाहिए। जैसे मनुष्य जीर्ण वस्त्रों का त्याग करके नवीन वस्त्रों को धारण कर लेता है, वैसे ही यह जीवात्मा पुराने शरीरों को छोड़कर नवीन शरीरों को ग्रहण करता है। इसे न तो शस्त्र काट सकते है, न अग्नि जला सकती है, न जल भिगो सकता है और न वायु सुखा सकती है। यह अच्छेदय्, अदाह्य एवं अशोष्य होने के कारण नित्य, सर्वगत, स्थिर, अचल एवं सनातन है। इस दृष्टि से किसी को आत्मा का कर्ता स्वीकार नहीं कर सकते। यदि आत्मा अविनाशी है तो उसके निर्माण या उत्पत्ति की कल्पना नहीं की जा सकती। यह सम्भव नहीं कि कोई वस्तु उत्पन्न तो हो किन्तु उसका विनाश न हो। इस कारण जीव ही कर्ता तथा भोक्ता है। सूत्रकाल में ईश्वरवाद अत्यन्त क्षीण प्रायः था। भाष्यकारों ने ही ईश्वर वाद की स्थापना पर विशेष बल दिया। आत्मा को ही दो भागों में विभाजित कर दिया गया- जीवात्मा एवं परमात्मा। ‘ज्ञानाधिकरणमात्मा । सः द्विविधः जीवात्मा परमात्मा चेति।’1 इस दृष्टि से आत्मा ही केन्द्र बिन्दु है जिस पर आगे चलकर परमात्मा का भव्य प्रासाद निर्मित किया गया। आत्मा को ही बह्म रूप में स्वीकार करने की विचारधारा वैदिक एवं उपनिषद् युग में भी थी। ‘प्रज्ञाने ब्रह्म’, ‘अहं ब्रह्मास्मि’, ‘तत्वमसि’, ‘अयमात्मा ब्रह्म’ जैसे सूत्र वाक्य इसके प्रमाण है। ब्रह्म प्रकृष्ट ज्ञान स्वरूप है। यही लक्षण आत्मा का है। ‘मैं ब्रह्म हूँ’, ‘तू ब्रह्म ही है; ‘मेरी आत्मा ही ब्रह्म है’ आदि वाक्यों में आत्मा एवं ब्रह्म पर्याय रूप में प्रयुक्त हैं। आत्मा एवं परमात्मा का भेद तात्विक नहीं है; भाषिक है। समुद्र के किनारे खड़े होकर जब हम असीम एवं अथाह जलराशि को निहारते हैं तो हम उसे समुद्र भी कह सकते हैं तथा अनन्त एवं असंख्य जल की बूँदों का समूह भी कह सकते हैं। तात्विक दृष्टि से मुक्त आत्मा अथवा मुक्त जीव को जैन दर्शन में परमात्मा कहा गया है। स्वभाव की दृष्टि से सभी जीव समान है। भाषिक दृष्टि से सर्व-जीव-समता की समष्टिगत सत्ता को ‘परमात्मा’ वाचक से अभिहित किया जा सकता है।

प्रोफेसर महावीर सरन जैन सेवानिवृत्त निदेशक, केन्द्रीय हिन्दी संस्थान 123, हरि एन्कलेव चाँदपुर रोड बुलन्द शहर


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टीका टिप्पणी और संदर्भ