उपदंश

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
चित्र:Tranfer-icon.png यह लेख परिष्कृत रूप में भारतकोश पर बनाया जा चुका है। भारतकोश पर देखने के लिए यहाँ क्लिक करें
लेख सूचना
उपदंश
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 2
पृष्ठ संख्या 115
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पाण्डेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1964 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक सुरेंद्रनाथ त्रिपाठी, बी. एन. उपाध्याय

उपदंश एक प्रकार का गुह्य रोग है। आयर्वेद में उपदंश के पाँच भेद बताए गए हैं जिन्हें क्रमश:, वात, पित्त, कफ, त्रिदोष एवं रक्त की विकृति के कारण होना बताया गया है। इसकी उत्पत्ति के कारणों के मुख्य रूप से आघात, अशौच तथा प्रदुष्ट योनिवाली स्त्री के साथ संसर्ग बताया गया है। इस प्रकार यह एक औपसर्गिक व्याधि है जिसमें शिश्न पर ब्रण पाए जाते हैं। दोषभेद से इनके लक्षणों में भेद मिलता है। उचित चिकित्सा न करने पर संपूर्ण लिंग सड़ गलकर गिर सकता है और बिना शिश्न के अंडकोष रह जाते हैं।

वातज उपदंश में सूई चुभने या शस्त्रभेदन सरीखी पीड़ा होती है। पैत्तिक उपदंश में शीघ्र ही पीला पूय पड़ जाता है और उसमें क्लेद, दाह एवं लालिमा रहती है। कफज उपदंश में खुजली होती है पर पीड़ा और पाक का सर्वथा अभाव रहता है। यह सफेद, घन तथा जलीय स्रावयुक्त होता है। त्रिदोषज में नाना प्रकार की व्यथा होती है और मिश्रित लक्षण मिलते हैं। रक्तज उपदंश में व्राण से रक्तस्राव बहुत अधिक होता रहता है और रोगी बहुत दुर्बल हो जाता है। इसमें पैत्तिक लक्षण भी मिलते हैं।

इस प्रकार आयुर्वेद में उपदंश शिश्न की अनेक व्याधियों का समूह मालूम पड़ता है जिसमें सिफ़िलिस, सॉफ्ट शैंकर एवं शिश्न के कैंसर सभी सम्मिलित हैं।

एक विशेष प्रकार का उपदंश जो फिरंग देश में बहुत अधिक प्रचलित था और जब भारतवर्ष में वे लोग आए तो उनके संपर्क से यहाँ भी गंध के समान वह फैलने लगा तो उस समय के वैद्यों ने, जिनमें भाव मिश्र प्रधान हैं, उसका नाम फिरंग रोग रखा दिया। इसे आगंतुज व्याधि बताया गया अर्थात्‌ इसका कारण हेतु जीवाणु बाहर से प्रवेश करता है। निदान में कहा गया है कि फिरंग देश के मनुष्यों के संसर्ग से तथा विशेषकर फिरंग देश की स्त्रियों के साथ प्रसंग करने से यह रोग उत्पन्न होता है। यह दो प्रकार का होता है एक बाह्य एवं दूसरा अभ्यंतर। बाह्य में शिश्न और पर और कालांतर में त्वचा पर विस्फोट होता है। आभ्यंतर में संधियों, अस्थियों तथा अन्य अवयवों में विकृति हो जाती है। जब यह बीमारी बढ़ जाती है तो दौर्बल्य, नासाभंग, अग्निमांद्य, अस्थिशोष एवं अस्थिवक्रता आदि लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं।

वस्तुत: फिरंग रोग उपदंश से भिन्न व्याधि नहीं है बल्कि उसी का एक भेद मात्र है। बहुत लोग इसे पर्याय भी मानने लगे हैं।

आधुनिक दृष्टि से शिश्न के ्व्राणों के दो मुख्य भेद हैं-हार्ड शैंकर (hard chanchre) एवं साफ़्ट शैंकर (soft chanchre)। इसमें प्रथम तो ट्रिपोनिमा पैलिडम (treponema pallidum) जीवाणु से तथा द्वितीय हिमोफ़िलसड्यूकी (haemothilusducreyi) के कारण होता है। इसमें पहले को फिरंग और दूसरे को उपदंश मान सकते हैं। सिफ़िलिस (syphlilis) तीन अवस्थाएँ होती हैं। प्रदुष्ट स्त्री के साथ संभोग करने पर दस दिन से दस सप्ताह के अंदर शिश्न पर एक छोटे बटन के आकार काकठिन, स्रावयुक्त, वेदनारहित शोथ हो जाता है जो बिना किसी चिकित्सा के भी शांत हो जाता है। तत्संबंधी लसिका ग्रंथियों में भी शोथ हो जाता है; परंतु उसमें भी पाक नहीं होता है। यह रोग की प्रथम अवस्था है। द्वितीय अवस्था उपसर्ग के तीन से छह माल बाद उत्पन्न होती है जिसमें दौर्बल्य, शिर:शूल तथा सामान्य खाँसी के साथ-साथ निम्नांकित चार प्रकार की विकृतियाँ होती हैं :

1. त्वचा विस्फोट-ताम्र वर्ण के विस्फोट पूरे शरीर में पाए जाते हैं जिनमें न वेदना होती है न कंडू।

2. ग्रंथि-नम स्थान में, विशेषकर गुदा के किनारे, एक ग्रंथि बन जाती है। यह भी लगभग वेदनारहित होती है।

3. श्लेष्मिक-कला-विस्फोट-यह विशेषकर मुख में पाया जाता है। इसमें लाल रंग के अनेक ्व्राण मुख की श्लेष्मिक कला में हो जाते हैं जो सफेद झिल्ली से ढके रहते हैं।

4. लसिका-ग्रंथि-शोथ-शरीर की सभी लसिका ग्रंथियों में शोथ हो जाता है।

इसमें चारों प्रकार की विकृतियों का होना आवश्यक नहीं है। कोई एक या एक से अधिक एक साथ पाई जा सकती है। कुछ मास पश्चात्‌ इन विकृतियों का शमन हो जाता है और दो वर्ष से ३० वर्ष के पश्चात्‌ उत्पन्न हो सकता है, जैसे त्वचा, अस्थि, संधि, जिह्वा, स्नायु। प्रभावित अवयव में ग्रैन्यूलेशन टिशू का एकत्रीकरण हो जाता है और गाँठें बन जाती हैं जिससे अवयव के कार्य में बाधा उत्पन्न हो जाती है। ये गाँठें भी वेदनारहित होती हैं।

यह रोग आनुवंशिक भी होता हे। माता पिता में होने से इसके जीवाणु गर्भावस्था में ही गर्भ में प्रविष्ट हो जाते हैं और जन्मजात शिशु में तथा कालांतर में इस रोग के लक्षण उसके अंदर पाए जाते हैं। बच्चा उत्पन्न होते ही बहुत दुर्बल, शुष्क हो सकता है जो शीघ्र ही मर जाता है। जीवित रहने पर त्वचा पर तथा आल्यंतर अवयव में, दाँत, आँख तथा स्नायुओं में विकृति उत्पन्न होती है।

इस रोग का निदान लक्षणों से तथा विभिन्न स्रावों से जीवाणु के प्रत्यक्षीकरण से, वासरमैन तथा कान विधि से रक्त की परीक्षा करके की जाती है।

इसकी चिकित्सा का पारद का सर्वप्रथम प्रयोग भारतवर्ष में हुआ, तदनंतर संखिया का प्रयोग सफल पाया गया। आजकल इसकी चिकित्सा पेनिसिलीन से की जाती है। इस औषधि के आविष्कार से इसके हृद्रोग पक्षबध तथा आनुवंशिक होना आदि भयंकर परिणाम आजकल कम मिलते हैं।

इसमें प्रदुष्ट स्त्री से संसर्ग करने से, दो तीन दिन के अंदर लाल रक्तवर्ण का शोथ शिश्न पर हो जाता है। इसमें वेदना, पाक, पूयनिर्माण बहुतायत से होता है। ्व्राणों की संख्या बहुधा अनेक हो जाती है और वंक्षण प्रदेश की लसिका ग्रंथियों में भी शोथ हो जाता है और वंक्षण प्रदेश की लसिका ग्रंथियों में भी शोथ हो जाता है जिसमें पूय पड़ जाता है। इस प्रकार के लक्षण सिफ़िलिस से बिल्कुल विपरीत होते हैं। इसकी चिकित्सा टेट्रासाइक्लीन, स्ट्रेप्टोमाइसीन एवं क्लोरोफेनिकाल के द्वारा सफलतापूर्वक की जा सकती है।

इस प्रकार हार्ड शैंकर या साफ्ट शैंकर दोनों को उपदंश में सम्मिलित किया जा सकता है और सिफ़िलिस को फिरंग की संज्ञा दी जा सकती है। अब इनकी चिकित्सा सुगम एवं सफल हो गई है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ