कंटशुंडी
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कंटशुंडी
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 2 |
पृष्ठ संख्या | 347-348 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
लेखक | भृगुनाथप्रसाद |
संपादक | सुधाकर पांडेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1975 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
कंटशुंडी (अकांथोसेफ़ाला, Acanthocephala), एक प्रकार की पराश्रयी अथवा परोपजीवी कृमियों की श्रेणी है जो पृष्ठवंशी प्राणियों की सभी श्रेणियों-स्तनपायियों, चिड़ियों, उरगमों, मेंढ़कों और मछलियों-में पाई जाती है। श्रेणी का यह नाम इसकी बेलनाकार आकृति तथा शिरोभाग में मुड़े हुए काँटों के कारण पड़ा है। काँटे कृमि को पोषक की आंत्र की दीवार में स्थापित करने का काम करते हैं। इस श्रेणी में कृमियों में मुख, गुदा तथा अंतत्र आदि पाचक अवयवों का सर्वथा अभाव रहता है। अतएव, पोषक से प्राप्त आत्मसात्कृत भोजन कृमि के शरीर की दीवार से व्याप्त होकर कृमि का पोषण करता है। भिन्न-भिन्न जातियों (स्पीशीज़) की कंटशुंडियों की लंबाई भिन्न होती है और दो मिलीमीटर से लेकर 650 मि.मि. तक पाई जाती है। किंतु प्रत्येक जाति के नर तथा नारी कृमि की लंबाई में बड़ा अंतर रहता है। सभी जातियों की कंटशुंडियों में नारी सर्वदा नर से अधिक बड़ी होती है। विभिन्न जातियों की आकृति में भी बड़ी भिन्नता पाई जाती है। किसी का शरीर लंबा, दुबला और बेलनाकार होता है तो किसी का पार्श्व से चिपटा, छोटा और स्थूल होता है। शरी की वतह चिकनी हो सकती है, किंतु प्राय: झुर्रीदार होती है। मांसपेशियों की कारण इनमें फैलने तथा सिकुड़ने की विशेष क्षमता होती है। शरीर का रंग पोषक के भोजन के रंग पर निर्भर रहता है। गंदे भूरे रंग से लेकर चमकीले रंग तक की कंटशुंडियाँ पाई जाती हैं।
इस श्रेणी का कोई भी सदस्य स्वतंत्र जीवन व्यतीत नहीं करता। सभी सदस्य अंत:परोपजीवी (एंडोपैरासाइट, endoparasite) होते हैं। और प्रत्येक सदस्य अपने जीवन की प्रारंभिक अवस्था (डिंभावस्था अर्थात् लार्वल स्टेज) संधिपाद समुदाय की कठिनी (Crustacea) श्रेणी के प्राणी में और उत्तरार्ध अवस्था (वयस्क अवस्था अर्थात् adult state) किसी पृष्ठविंशी प्राणी में व्यतीत करता है। सभी श्रेणियों के पृष्ठवंशी इन कंटशुंडियों के पोषक हो सकते हैं; यद्यपि प्रत्येक जाति किसी विशेष पृष्ठवंशी में ही पाई जाती हैं।
इस श्रेणी में परिगणित 300 जातियों का नामकरण हो चुका है और उनमें से अधिकांश मछलियों, चिड़ियों तथा स्तनपायियों में पाई जाती हैं। कंटशुंडी संसार के सभी भूभागों में पाई जाती है।
इस श्रेणी की मुख्य जाति (genus) शल्यतुंड (Echinorhynchus), वा बृहत्तुंड (Gigantorhynchus) है, जो सुअरों में पाई जाती है। इसकी लंबाई एक गज से भी अधिक तक की होती है। यह अपने पोषक की आंत्र की दीवार से अपने काँटों द्वारा, लटकी रहती है। जब इसका भ्रूण तैयार हो जाता है तब यह पोषक के मल के साथ शरीर से बाहर चली आती है। सुअर के मल को जब एक विशेष प्रकार का गुबरैला खाता है तब उस गुबरैले के भीतर यह भ्रूण पहुँचकर डिंभ (लार्वा) में विकसित हो जाता है। इस प्रकार के संक्रमित गुबरैले को जब सूअर खाता है तो डिंभ पुन: सूअर के आँत्र में पहुँच जाता है, जहाँ वह वयस्क हो जाता है। नवशल्यतुड (Neoechinorhynchus) एक अन्य उदाहरण है। यह कंटशुंडी वयस्क अवस्था में मछलियों तथा डिंभावस्था में प्रजालपक्ष डिंभों (Sialis larvae) में परोपजीवीजीवन व्यतीत करती हैं।
पहले कंटशुंडी सूत्रकृमि (Nemathelminthes) समुदाय की श्रेणी में गिनी जाती थी, किंतु अब इसकी एक अलग श्रेणी निर्धारित की जा चुकी है। इस श्रेणी की वंशावली अभी अनिर्णीत है।
इस श्रेणी का वर्गीकरण विभिन्न वैज्ञानिकों ने भिन्न-भिन्न प्रकार से किया है, किंतु सबसे आधुनिक वर्गीकरण हाइमन का है। इन्होंने संपूर्ण श्रेणी को तीन वर्गों में विभक्त किया है:
(क) आदिकंटशुंडी (Archinacanthocephala),
(ख) पुराकंटशुंडी (Palaeacanthocephala) तथा
(ग) प्रादिकंटशुंडी (Coacanthocephala)।
इसी वर्गीकरण के मुख्य आधार शुंड (Proboscis) में वर्तमान काँटों की संख्या तथा कुछ अन्य विशेषताएँ हैं।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
“खण्ड 2”, हिन्दी विश्वकोश, 1975 (हिन्दी), भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: नागरी प्रचारिणी सभा वाराणसी, 347-348।