कच्चे मकान

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लेख सूचना
कच्चे मकान
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 2
पृष्ठ संख्या 364-365
भाषा हिन्दी देवनागरी
लेखक एलबर्ट हब्बैल, जे.एस. लॉङ्‌ग
संपादक सुधाकर पांडेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1975 ईसवी
स्रोत एलबर्ट हब्बैल: अर्थ ब्रिक कंस्ट्रक्शन (ए पब्लिकेशन ऑव एड्यूकेशन डिवीज़न, डब्ल्यू.एस. आफ़िस इंडियन अफ़ेयर्स); जे.एस. लॉङ्‌ग: ऐडोबे कंस्ट्रक्शन (बुलेटिन नं 472, यूनिवर्सिटी ऑव कैलिफ़ोर्निया, बर्क्ले, कैलिफ़ोर्निया); अर्थ फ़ॉर हाइसेज़, 1955 (हाउसिंग ऐंड फ़ाइनैंस एजेंसी, वाशिंगटन 25, डी.सी.); वाटरप्रूफ़ रेंडरिंग्स फ़ॉर मड वाल्स (ए पब्लिकेशन ऑव एन.बी.ओ., नई दिल्ली, 1958); द वर्किंग ऑव 'लैंडक्रीट' मशीन फ़ॉर मेकिंग स्टैबिलाइज़्ड सॉयल हाउसेज़ (एन.बी.ओ. जरनल, मार्च, 1956); स्पेसिफ़िकेशंस फॉर द यूस ऑव रैम्ड सीमेंट-साँयल इन बिल्डिंग कंस्ट्रक्शन।
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक हरमंदललाल उप्पल

कच्चे मकान संभवत: मिट्टी ही सबसे पुरानी वस्तु है, जिसका उपयोग मनुष्य घर बनाने के लिए करता है। अनंत काल से मिट्टी से दीवारें बनाई जाती रही हैं, जो टेढ़ी-मेढ़ी होती थीं और धूप में भली प्रकार से सुखाई हुई ईटों की बनी, सीधी भी। ऐसे मकान दक्षिण और मध्य अमरीका, दक्षिण यूरोप, अफ्रीका, फारस तथा निकटवर्ती देश मिस्र और भारत, अर्थात्‌ संसार के प्राय: सभी भागों में मिलते हैं।

कच्चा माल

मकानों आदि की रचना में प्राय: चिकनी मिट्टी का ही प्रयोग होता है। किंतु कई स्थानों में मिट्टी में दृढ़ता एवं सुघट्यता लाने के लिए रेत भी मिला दी जाती है। यद्यपि सूखने पर मिट्टी सिकुड़ती है, तथापि सिकुड़न के कारण ईटों के छोटी पड़ने के अतिरिक्त अन्य कोई हानि नहीं होती। ऐसा भी विश्वास है कि सूखने पर ईटों के सिकुड़ जाने से उनकी दाब के प्रति सहनशीलता में वृद्धि जाती है। फलत: इन ईटों से बनी दीवारें अधिक बोझ सँभाल सकती हैं। विश्व के कतिपय ऐसे भागों में जहाँ मिट्टी में रेत मिलाने की परंपरा नहीं है, थोड़ा सा भूसा या सूखी घास मिला दी जाती है, जिससे मिट्टी की पुष्टता में वृद्धि हो जाए और सूखने पर चटखे नहीं।

जलवायु की परिस्थितियाँ

अल्प वर्षा वाले स्थानों में ही कच्चे मकान अधिक बनाए जाते हैं। कारण यह है कि वहाँ की मिट्टी की बनी हुई ईटों में 0.2 से लेकर 1 टन प्रतिवर्ग फुट तक की दाब की सहनशीलता होती है, जो शुष्कावस्था के एकमंजिले मकानों के लिए पर्याप्त होती है। अधिक वर्षावाले स्थानों में उचित प्रकार की छतोंवाले मकान बनाए जा सकते हैं।

मिट्टी सानना

इसका पुराना ढंग यह है कि एक गड्ढा खोद लिया जाता है और आवश्यकतानुसार पर्याप्त जल डाल दिया जाता है। ढेले तोड़ने के लिए दो दिन तक मिट्टी को पैरों से गूँधा जाता है। तब इस सुघट्य मिट्टी से मानक माप की ईटें बना ली जाती हैं। मिट्टी और पानी को एकरूप सानने के लिए आजकल इंजनचालित चक्की का भी प्रयोग किया जाता है, जिसे 'पग मिल' कहते हैं। इंजन के अतिरिक्त पग मिल पशुओं द्वारा भी चलाई जा सकती है।

पाथना

कच्ची ईटों को पाथने के लिए मिट्टी का चौरस, कड़ा फर्श चाहिए। साधारणतया साँचे में बालू छिड़क दी जाती है जिससे उसमें ईटं न चिपके। कच्ची ईटों की नाप कई बातों पर निर्भर होती है, उदाहरणत: भीत की मोटाई, मजदूर अधिक से अधिक कितना बोझ उठा सकता है, इत्यादि। काम में लाने के पूर्व इन ईटों को लगभग एक महीने तक धूप में सुखाना आवश्यक है। भारत के कुछ गाँवों में कच्ची ईटें बनाने के लिए भूमि पर सुघट्य मिट्टी वांछित मोटाई में फैला दिया जाता है। इस प्रकार बनाई गई ईटों का आकार ठीक नहीं रहता और बहुधा वे ऐंठ जाती हैं। इन दोषों का निराकरण मोटी संधियों से हो जाता है। इस प्रकार बनाई गई ईटों का आकार ठीक नहीं रहता और बहुधा वे ऐंठ जाती हैं। इन दोषों का निराकरण मोटी संधियों से हो जाता है। इस प्रकार ईटें बनाने में यह गुण है कि कोई भी परिवार अपनी सुविधा के अनुसार ऐसी ईटें बना सकता है। इन ईटों को बनाने के लिए कच्चा माल पास में ही मिल जता है और बनानेवाले में किसी विशेष योग्यता की आवश्यकता नहीं होती। अत: लड़के बच्चे सभी इस कार्य में सहायता कर सकते हैं। कच्ची ईटों से बने मकानों में यह दोष होता है कि वे बहुत टिकाऊ नहीं होते और उनके पृष्ठ पर बार-बार पलस्तर करना पड़ता है, अन्यथा उनके गिर जाने का डर रहता है। फिर, आस पास की भूमि से पानी की निकासी अच्छी होनी चाहिए, अन्यथा दीवाल की नींव के बैठ जाने का भय रहता है।

कच्ची ईटों के बनाने में सुधार-विज्ञान की प्रगति के साथ मृत्तिका विज्ञान में भी उन्नति हुई है। कच्ची ईटें अच्छी बन सकें, इसके लिए कई प्रकार के प्रयत्न किए गए हैं। इनका संक्षिप्त ब्योरा नीचे दिया जाता है :

  1. मिट्टी को ठोस करना (कंपैक्शन) : प्रयोगों से पता चला हे कि सूखी ईटों की पुष्टता उतनी ही अधिक होगी जितना अधिक मिट्टी के कण परस्पर सटे रहेंगे। इस गुण को संघनन (कंपैक्शन) कहते हैं। अधिक संघनन से आर्द्रावस्था में भी ईटें अधिक स्थायी होती हैं। बाजार में अब कई एक मशीनें आ गई हैं, जिनसे ईटों को पाथते समय उनमें अधिक संघनन आ जाता है। संघनन की मात्रा मिट्टी में पानी की मात्रा पर निर्भर है। इसलिए पाथते समय मिट्टी में जल की मात्रा पर पूर्ण नियंत्रण रखना आवश्यक है। प्राचीन रीतियों से कच्ची ईटें पाथने के समय 30 प्रतिशत आर्द्रता की आवश्यकता रहती है। परंतु प्राचीन विधियों से बनी सूखी ईटों में लगभग 1 टन प्रति वर्ग फुट की ही पुष्टता रहती है। इसकी तुलना में मशीन से पाथने में 8-10 प्रतिशत आर्द्रता की आवश्यकता पड़ती है। प्रयोगों से पता चला है कि मिट्टी को अच्छी तरह सानकर और मशीन से ठीक प्रकार से दबाकर बनाई ईटों मेंसूखने पर पुष्टता 8-10 टन प्रति वर्ग फुट होती है।
  2. बंधक (बाइंडर) मिलाना :

बिटुमेन

कच्ची ईटों की जल प्रतिरोधक शक्ति बिटुमेन से बहुत बढ़ाई जा सकती है। पाथनेवाली मिट्टी में 3 से 5 प्रतिशत तक बिटुमेन मिलाना पर्याप्त होता है। प्रयोगों से ज्ञात हुआ है कि इस प्रकार बनी ईटें पर्याप्त जलाभेद्य होती हैं और उनसे बनी भीतों पर पलस्तर करने की कोई आवश्यकता नहीं रहती।

सीमेंट

मिट्टी में सीमेंट मिलाने से पानी की क्रिया से कच्ची ईटोंं के नम हो जाने की प्रवृत्ति बहुत कम हो जाती है। किंतु सीमेंट की सफलता इसपर निर्भर है कि मिट्टी में कितना सीमेंट मिलाया गया है और ईटों के बनाने में कितना संघनन उत्पन्न कियागया है। प्रयोगों से पता चला है कि यदि पर्याप्त संघनन किया जाए और मिट्टी में छोटे बड़े गण उचित मात्रा में रहें तो 3 से 5 प्रतिशत तक सीमेंट से पर्याप्त स्थायित्व आ जाता है। यहाँ तक कि जहाँ ईटों का पकाना बहुत व्यवसाध्य होता है वहाँ सीमेंट मिलाकर ईटं पाथने का काम किया जा सकता है।

जलाभेद्य पलस्तर

मशीनों की सहायता से कच्ची ईटों को सीमेंट या बिटुमेन मिलाकर बनाने और स्थायी करने का कार्य गाँवों में प्रचलित होने में अभी कुछ समय लगेगा, किंतु यह सुधार तो तुरंत किया जा सकता है कि कच्ची दीवारों पर जलाभेद्य पलस्तर कर दिया जाया करे। भारत की कई अनुसंधान संस्थाओं ने इस काम के लिए कई रीतियाँ बताईं हैं। इनमें सीमेंट के साथ काठकोयला, साबुन तथा अन्य पदार्थ अथवा बिटुमैन के मिश्रण और घोल आज भी प्रयुक्त होते हैं। इन रीतियों की तुलनात्मक जाँच भारत की केंद्रीय सड़क अनुसंधान संस्था (सेंट्रल रोड रिसर्च इंस्टिट्यूट) ने की है। परीक्षण में निम्नोक्त कार्य किए गए हैं : (1) 144 घंटे तक 15-20 मील प्रति घंटे के वेग से दीवालों पर पानी का सतत छिड़काव, (2) उपरिलिखित ढंग से रात्रि के समय उतने ही वेग से छिड़काव और दिन में धूप लगने देना। यह कार्य दो महीने तक चालू रखा गया, अर्थात्‌ छिड़काव और सुखाने के 60 चक्र जारी रखे गए।

पता चला कि बिटुमेन और पानी के पायस (इमल्शन) से सर्वाधिक संतोषप्रद परिणाम निकलता है। बिटुमेन का मिट्टी के तेल के साथ घोल (कट बैक, ड़द्वद्य डaड़त्त्) इससे कुछ ही कम संतोषजनक था। बिटुमेन के पायस से जलाभेद्य पलस्तर बनाने की रीति इस प्रकार है-10 घन फुट अच्छी मिट्टी और 20 सेर छोटे कटे भूसे को एक में मिला दिया जाए। पर, जैसा साधारण मिट्टी के पलस्तर में किया जाता है, बीच-बीच में पैर या फावड़े से इसे अच्छी तरह उल्टा-पलटा जाए। पलस्तर करने के दो घंटे पूर्व इसमें बिटुमेन पायस डाल दियाजाता है और फावड़े से अथवा पैरों से गूँथकर अच्छी तरह दिया जाता है।

कच्ची दीवार पर पानी छिड़ककर ह इंच मोटा पलस्तर लगाना चाहिए और उसे करनी से रगड़कर पृष्ठ को चिकना कर देना चाहिए। यदि यह काम उष्ण ऋतु में किया जाए तो पलस्तर पर कभी-कभी पानी छिड़कना चाहिए, अन्यथा पलस्तर के चटख जाने का डर रहता है। जब पलस्तर थोड़ा सूख जाए तब उसपर एक बार गोबरी करनी चाहिए, अर्थात्‌ गाय के गोवर तथा मिट्टी और पानी के मिश्रण से लेप कर देना चाहिए। इस मिश्रण के लिए नुस्खा निम्नोक्त है :

मिट्टी- एक घन फुट

गोबर- दस सेर

पायस- (जलता) दो सेर

टीका टिप्पणी और संदर्भ

“खण्ड 2”, हिन्दी विश्वकोश, 1975 (हिन्दी), भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: नागरी प्रचारिणी सभा वाराणसी, 364-365।