कम्यून

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लेख सूचना
कम्यून
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 2
पृष्ठ संख्या 411-413
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पांडेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1975 ईसवी
स्रोत एल्टन, जी. : द रिवोल्यूशनरी आइडिया इन फ्ऱांस, १७८९-१८७१, लंदन, १९२३; डिकिन्सन, जी.एल. : रिवोल्यूशन ऐंड रिऐक्शन इन माडर्न फ्ऱांस, लंदन, १८९२; पिरेन, एच. : मिडीवल सिटीज़, प्रिंस्टन, १९२५; पीपुल्स कम्यून्स इन चाइना, फ़ारेन लैंग्वेजेज़ प्रेस, पेकिंग, १९५८; मेटलैंड, एफ.डब्ल्यू. : टाउनशिप ऐंड बरी, कैंब्रिज, १८९८; मैसन, ई.एस. : द पेरिस कम्यून, न्यूयार्क, १९३०।
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक राजेन्द्र अवस्थी

कम्यून की परंपरा अति प्राचीन है, इसका संबंध आदिम और ईसाई कम्यूनिज़्म से भी पूर्व इजरायली 'किबूतों में संपत्ति पर सामूहिक स्वामित्व रहता रहा है। आज भी इजरायल में राष्ट्रीय संस्था के रूप में किबूतों का नए सिरे से निर्माण हुआ है। इस व्यवस्था में प्रत्येक सदस्य अपनी अर्जित संपत्ति किबूत को सौंप देता है, और बदले में केवल जीवनयापन के लिए आवश्यक सहायता उसके प्राप्त करता है।

वैधिक अर्थ में मध्ययुग के सभी नगर कम्यून थे। कम्यून की उत्पत्ति का प्रमुख कारण तत्कालीन विकसित होते हुए व्यावसायिक तथा श्रमिक वर्ग की नवीन आवश्कताओं की पूर्ति तथा उनकी सामान्य रक्षा के लिए आवश्यक संगठन था। इनका इतिहास ११वीं शताब्दी से स्पष्ट रूप में मिलता है, जब वाणिज्य और व्यवसाय के लिए भौगोलिक दृष्टि से सर्वाधिक लाभप्रद क्षेत्रों में इनकी स्थापना हुई। इनके निवासियों की सामाजिक स्थिति अन्य लोगों से इसलिए भिन्न थी कि उन्होंने कृषि के स्थान पर वस्तुओं के उत्पादन तथा विनिमय की जीविकापार्जन का साधन बनाया था। कम्यून की उत्पत्ति सामंतवादी संगठनों के बीच हुई क्योंकि इन संगठनों ने जब नवोदित व्यावसायिक वर्ग की आवश्यकताओं की अवहेलना को तब विवश हो उस वर्ग को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अपने साधन अपनाने पड़े। प्रारंभ में कम्यून का संगठन पूर्ण रूप से वैयक्तिक था; वह केवल उन्हीं लोगों से संबंधित था जो उसमें स्वेच्छा से सम्मिलित होने के लिए तैयार थे और इस संगठन के हेतु शपथ ग्रहण करते थे। १२वीं शताब्दी के अंत में कम्यून वैयक्तिक न होकर क्षेत्रीय हो गए जिसके फलस्वरूप नगर के सभी निवासियों को उसके अधीन रहने की शपथ लेनी अनिवार्य हो गई। मध्ययुगीन समाज के विभाजित तथा स्थानीय होने के कारण कम्यूनों के स्वरूप में स्थान तथा परिस्थितियों के अनुसार विभिन्नताएँ थीं, यद्यपि इन विभिन्नताओं के होते हुए भी कुछ सामान्य लक्षण भी थे।

फ्रांस के कम्यून आंदोलन का अभिप्राय बड़े नगरों को देश में स्थापित केंद्रीय सत्ता के नियंत्रण से मुक्ति दिलाना था। इस मुक्तिप्राप्ति के ढंगों के विषय में वहाँ दो मत थे। एक यह कि देश को विभिन्न स्वायत्तशासित कम्यूनों में बाँट दिया जाए और उन सबके सामान्य हितों का प्रतिनिधान करनेवाली किसी संघीय परिषद् में प्रत्येक कम्यून अपने-अपने सदस्य भेज सके। कम्यून विषयक यह सिद्धांत साम्यवादी सिद्धांत है, और इसी सिद्धांत को पेरिस के कम्यून ने अपनाया था। देसरे, कम्यून दूसरे देश में अपने विचारों की निरंकुशता स्थापित करने और देश पर आधिपत्य जमाने के लिए उन नगरों को संगठित करे जो उसके आदर्शों के प्रति संवेदनशील हों। यह विचार पेरिस के क्रांतिकारी दल के एक वर्ग में प्रचलित था। क्योंकि तत्कालीन परिस्थितियाँ इस विचार को बल प्रदान करने में सहायक थीं। इस विचार के समर्थकों ने बाहरी शत्रु से आतंकित देश के लिए तत्कालीन सरकार की निरर्थकता इस आधार सिद्ध करने की चेष्टा की कि वह अनुशासन और शासनप्रबंध के पुराने तथा असामयिक ढंगों पर चलनेवाली सरकार थी जब कि समयानुसार आवश्यकता थी अपने को स्वयं संगठित कर सकने के लिए जनशक्ति की स्वतंत्रता की, सार्वजनिक सुरक्षा के लिए जनमत द्वारा निर्वाचित एक समिति की, प्रांत के लिए आयुक्तों की, तथा देश द्रोहियों के लिए मृत्युदंड की उचित व्यवस्था की।

सन्‌ १८७१ ई. का पेरिस कम्यून एक क्रांतिकारी आंदोलन था जिसका प्रमुख महत्व फ्रांस के सामंशाही आधिपत्य से पेरिस के सर्वहारा वर्ग द्वारा अपने को स्वतंत्र करने के प्रयत्नों में है। सन्‌ १७९३ ई. के कम्यून के समय से ही पेरिस के सर्वहारा वर्ग में क्रांतिकारी शक्ति पोषित हो रही थी जिसने समय असमय उसके प्रयोग के निष्फल प्रयत्न भी किए थे। २ सितंबर, सन्‌ १८७० को तृतीय नेपोलियन की हार के फलस्वरूप उत्पन्न होनेवाली राजनीतिक परिस्थितियों ने पेरिस और सामंतशाही फ्रांस के बीच के संघर्ष और बढ़ा दिए। ४ सितंबर को गणतंत्र की घोषणा के साथ राष्ट्रीय सुरक्षा सरकार (गवर्नमेंट ऑव नैशनल डिफ़ेंस) की स्थापना हुई और दो सप्ताह बाद ही जर्मन सेना ने पेरिस पर घेरा डाल दिया जिससे आतंकित हो पेरिस ने गणतंत्र स्वीकार कर लिया। परंतु मास पर मास बीतने पर भी जब घेरा न हटा तब भूख और शीत से व्याकुल पेरिस की जनता ने पेरिस के एकाधिनायकत्व में लेवी आँ मास (levee en masse) की चर्चा प्रारंभ कर दी। सितंबर में ही नई सरकार के पास स्वायत्तशासित कम्यून की स्थापना की माँग भेज दी गई थी; इधर युद्ध की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए नए सैन्य जत्थों का संगठन, श्रमिकवर्ग के लोगों की भर्ती तथा उन्हें अपने अफसरों को नामजद करने के अधिकार की प्राप्ति के फलस्वरूप भी पेरिस के सर्वहारा वर्ग की शक्तियाँ बढ़ गई थीं। फरवरी, सन्‌ १८७१ ई. में इन सर्वहारा सैन्य जत्थों ने परस्पर मिलकर एक शिथिल संघ की तथा २० आरोंदिस्मों (arondissmonts) में प्रत्येक से तीन प्रतिनिधियों के आधार पर राष्ट्रीय संरक्षकों की एक केंद्रीय समिति (कोमिती द ला गार्द नात्सियोनाल) की स्थाना की।

२८ जनवरी को जर्मन सेना तथा राष्ट्रीय सुरक्षा सरकार के बीच किंचित्‌ काल के लिए उस उद्देश्य से युद्ध स्थगित करने की संधि हुई कि फ्रांस को राष्ट्रीय संसद् (नैशनल असेंब्ली) के निर्वाचन का अवसर प्राप्त हो सके जो शांतिस्थापना या युद्ध के चलते रहने पर अपना निर्णय दे। परंतु सामंतशाही फ्रांस की भावनाओं का प्रतिनिधान करने वाली इस संसद् ने सर्वहारा वर्ग को और अधिक क्रुद्ध किया। उसने महँगे दामों में केवल युद्धसमाप्ति को ही नहीं स्वीकार किया वरन्‌ फ्रांस की राजधानी वरसाई में स्थानांतरित कर पेरिस वासियों को अपमानित भी किया और कुछ ऐसे प्रस्ताव पास किए जो पेरिस वासियों के हितों के लिए घातक थे। पेरसि के स्वायत्तशासन संबंधी आंदोलन को आघात पहुँचाने के आशय से राष्ट्रीय संरक्षक समिति की सैन्य शक्तियाँ कम करने के हेतु १८ मार्च को सरकार द्वारा उसकी तोपों पर आधिपत्य प्राप्त करने के निष्फल प्रयत्न ने दोनों के बीच होनेवाले संघर्ष को क्रांतिकारी आंदालन का रूप दे दिया जिसमें सरकारी सेना ने राष्ट्रीय संरक्षकों पर वार अपना अस्वीकार कर दिया। फलत: सरकारी पक्ष के अनेक नेता माए गए और शेष ने वारसाई में भागकर शरण ली। इस प्रकार किसी विशेष संघर्ष के बिना नगर राष्ट्रीय संरक्षक समिति के आधिपत्य में आ गया जिसने तुंरत अंतरिम सरकार की स्थापना की तथा २६ मार्च को पेरिस कम्यून के प्रतिनिधियों के निर्वाचन का प्रबंध किया। ९० प्रतिनिधियों के निर्वाचन के लिए लगभग दो लाख व्यक्तियों ने मतदान किया। अंतरिम सरकार के रूप में अपना कार्य समाप्त कर चुकने के कारण राष्ट्रीय संरक्षक समिति ने राजनीतिक कार्य से अवकाश ग्रहण कर लिया और इस प्रकार अंतत: पेरिस नगर अपने हित में अपना शासनप्रबंध स्वयं करने का अवसर पा सका।

१८ मार्च की क्रांति केवल राष्ट्रीय सुरक्षा सरकार और उसी संसद् के ही नहीं वरन्‌ केंद्रीकरण की उस संपूर्ण व्यवस्था के विरुद्ध थी जिसके कारण न केवल स्थानीय प्रबंध केंद्रीय सत्ता द्वारा नियंत्रित था, वरन्‌ प्रांतों द्वारा आरोपित प्रतिक्रियावादी सरकार ने पेरिस तथा अन्य बड़े नगरों का सामाजिक और राजनीतिक विकास अवरुद्ध कर रखा था। क्रांतिकारियों के अनुसार इन सबका केवल एक उपचार था : केंद्रीय सत्ता के कार्यों को न्यूनतम करना ताकि स्थानीय संगठनों को न केवल अपने प्रबंध के लिए वरन्‌ अपने समाज के संपूर्ण संगठन एवं विकास के लिए भी सर्वाधिक संभावित शक्तियाँ प्राप्त हो सकें; दूसरे शब्दों में, फ्रांस की स्वशासित कम्यूनों के संघ में बदलना। १९ अप्रैल को प्रकाशित पेरिस कम्यून के घोषणापत्र के अनुसार कम्यून के अधिकार थे-बजट पास करना; कर निश्चित करना; स्थानीय व्यवसाय का निर्देशन; पुलिस, शिक्षा एवं न्यायालयों का संगठन; कम्यून की संपत्ति का प्रबंध; सभी अधिकारियों का निर्वाचन, उनपर नियंत्रण तथा उन्हें पदच्युत करना; वैयक्तिक स्वतंत्रता की स्थायी सुरक्षा; नागरिक सुरक्षा का संगठन आदि। इस दृष्टि से यह अधिकारपत्र ऐसे समाजवाद की घोषणा करता है जो पूरे आंदोलन का वास्तविक आधार है। कम्यून सिद्धांत पूर्ण से पेरिस, लियों तथा एक या दो अन्य बड़े नगरों के हितों की दृष्टि से प्रतिपादित किया गया था और इसलिए फ्रांस के अधिकतर भाग में यह लागू नहीं हो सकता था। इसके पीछे यह विचार था कि ग्रामों के कृषक तथा छोटे नगरों के निवासी अभी इतने योग्य नहीं हैं कि वे अपना सामान्य स्थानीय प्रबंध भी स्वयं कर सकें। इसलिए उन्हें वित्त, पुलिस, शिक्षा तथा समान्य सामाजिक विकास का उत्तरदायित्व तुरंत नहीं सौंपा जा सकता। इससे स्पष्ट है कि फ्रांस पर पेरिस का आधिपत्य क्रांतिकारियों के कम से कम एक भाग का उद्देश्य अवश्य था; दूसरे कम्यून सिद्धांत में प्रांरभ से ही एक अंतर्विरोध विद्यमान था। इस सिद्धांत ने पेरिस तथा अनरू प्रगतिशील नगरों को अप्रागतिक प्रांतों के नियंत्रण से मुक्त कर उनके लिए स्थानीय स्वायत्तशासन घोषित किया था, परंतु प्रांत इस सिद्धांत को, जैसा स्वयं सिद्धांत की प्रस्तावना में वर्णित है, स्वीकार करने के योग्य प्रगतिशील न थे। फलत: उन्हें इस आंदोलन में सम्मिलित होने के लिए पेरिस की अधीनता स्वीकार करनी पड़ी। दसूरे शब्दों में, कम्यून सिद्धांत की स्थापना के लिए यह अनिवार्य था कि उसे पहले नष्ट कर दिया जाए। जाकोबें (Jacobins) एक बार पुन: स्वतंत्रता के वेश में प्रकट होता है और स्थानीय स्वायत्तशासन एक केंद्रीय सत्ता द्वारा आरोपित होता है तथा राजधानी से प्राप्त बल के आधार पर स्वतंत्र संघ की नींव डाली जाती है।

शासनप्रबंध के लिए कम्यून की परिषद् ने अपने को दस आयोगों में विभक्त किया था। वे आयोग थे-वित्त, युद्ध, सार्वजनिक सुरक्षा, वैदेशिक संबंध, शिक्षा, न्याय, श्रम और विनियिम, खाद्य, सार्वजनिक सेवा, तथा सामन्य कार्यकारिणी संबंधी। प्रारंभ से ही कम्यून ने समाजवादी सिद्धांत अपनाने की घोषणा की थी; परंतु व्यवहार रूप में जिस सरकार की प्राय: सभी शक्तियाँ अपने शत्रु को नष्ट करने में ही प्रमुख रूप से व्यय हुई हों उसके लिए, दो मास की छोटी अवधि में क्रांतिकारी आर्थिक संगठन कर पाना असंभव था। कम्यून ने सैद्धांतिक रूप से स्थानीय स्वायत्तशासन को स्वीकार किया था, परंतु व्यवहार में उसकी प्रवृत्ति समस्त फ्रांस पर पेरिस की सरकार आरोपित करना था। उदाहरणार्थ, अप्रैल में पेरिस कम्यून ने स्वतंत्रता को फ्रांसीसी गणतंत्र का प्रथम सिद्धांत मानकर, और यह स्वीकार कर कि धार्मिक मतों का बजट इस सिद्धांत के प्रतिकूल है क्योंकि वह नागरिकों को उस धार्मिक विश्वास के प्रचार के लिए आर्थिक सहायता देने के लिए बाध्य करता है जो उनका नहीं है, तथा यह विचार कर कि पोप स्वतंत्रता के आदर्श के विरुद्ध राजतंत्र द्वारा किए गए अपराधों में सहायक हुआ है, यह आज्ञप्ति जारी की कि चर्च राज्य से अलग कर दिया जाए और धार्मिक मठों की संपत्ति राष्ट्र की संपत्ति घोषित कर दी जाए। अत: पेरिस की कम्यून परिषद् ने यद्यपि सैद्धांतिक रूप से केवल पेरिसवासियों के हितों का प्रतिनिधान स्वीकार किया था, तथापि स्वतंत्रता के नाम पर समस्त फ्रांस के पोप पर लागू होनेवाली आज्ञप्ति उसी ने जारी की।

कम्यून के अल्प जीवन तथा प्रशासकीय एवं आर्थिक सुधारों को कार्यरूप में परिणत करने की उसकी असफलता का प्रमुख कारण था ऐसे नेताओं की कमी जो विभिन्न तत्वों के परस्पर संबद्ध एवं सृजनात्मक कार्यक्रमों को निर्धारित कर सकें। अल्प समय में ही व्यावहारिक प्रशासन संबंधी न्यो-जाकोंबे (Neo-Jacobins) की अक्षमता प्रकट हो गई। १८ मार्च की क्रांति के ठीक ६४ दिन बाद वरसाई के सैन्य जत्थे पेरसि में घुस पड़े। भयंकर युद्ध के अनंतर २२ अक्टूबर को कम्यून की संसद् विनष्ट हो गई।

फिर भी १८ मार्च की इस क्रांति को तत्कालीन समाजवादी संगठनों ने समाजवादी आदर्श के लिए गई सर्वहारा वर्ग की क्रांति के रूप में स्वीकार किया और इस प्रकार कम्यून सिद्धांत समाजवादी दर्शन का एक अंग बन गया। इसमें संदेह नहीं कि कम्यून सिद्धांत ने वर्गसंघर्ष एवं समाजवादी विचारधारा के प्रचार में यथेष्ट योग दिया। जिस तत्परता, वीरता और बलिदान की भावना से पेरिस कम्यून ने विदेशी विजेताओं और उनसे मिले फ्रेंच देशद्रोहियों से पेरिस की सड़कों पर 'बैरिकेड' बनाकर इंच-इंच जमीन के लिए लोहा लिया था, वह स्वदेशरक्षा संबंधी युद्धों में अमर हो गया है। उसने सोवियत राज्यक्रांति से प्राय: आधी सदी पहले पेरिस में सर्वहाराओं का पहला राज कायम किया। पर इसका मूल्य उसे रक्त से चुकाना पड़ा। यदि अराजकतावादी विचारक बाकूनिन ने कम्यून आंदोलन में अपने राज्यविहीन संघवाद का संकेत पाया तो प्रिस क्रोपात्किन ने सन्‌ १८७१ की क्रांति को जनक्राति की संज्ञा दी तथा मार्क्स ने अपने साम्यवादी विचारों की अभिव्यक्ति के लिए उसे अपने एक महत्वपूर्ण ग्रंथ का विषय चुना और रूसी नेता, लेनिन, त्रोत्स्की आदि ने उसके महत्व को स्वीकार किया।

हाल में साम्यवादी चीन ने कम्यून व्यवस्था अपनाई है जिसे वहाँ के कृषकों ने समाजवादी चेतना के आधार पर आंदोलन के रूप में प्रारंभ किया है। चीन में कम्यून समाजवादी निर्माण के लिए साम्यवादी दल द्वारा निर्धारित नीति के पोषक तथा समाजवाद से साम्यवाद की ओर क्रमिक विकास के लिए आवश्यक संगठन माने जाते हैं। ७ अगस्त, सन्‌ १९५८ ई. को जनता के इन कम्यूनों के लिए अस्थायी संविधान का जो प्रस्ताव प्रस्तुत किया गया उसके अनुसार जनता का कम्यून समाज की मूलभूत इकाई है जिसमें श्रमिक साम्यवादी दल तथा जनता की अधीनता स्वीकार करते हुए स्वेच्छा से सम्मिलित होते हैं। इसका कार्य समस्त औद्योगिक तथा कृषि संबंधी उत्पादन, व्यवसाय तथा सांस्कृतिक, शैक्षिक एवं राजनीतिक कार्यों का प्रबंध करना है। इसका उद्देश्य सामाजिक व्यवस्था का संगठित करना और उसे साम्यवादी व्यवस्था में परिणत करने के लिए आवश्यक परिस्थितियों का सृजन करना है। इसकी पूर्ण सदस्यता १६ वर्ष से अधिक के सभी व्यक्तियों को प्राप्त है और उन्हें कम्यून के विभिन्न पदों पर निर्वाचित होने, मतदान करने तथा उसके प्रबंध का निरीक्षण करने का अधिकार है। कृषकों के सहकारी संगठन जब भी कम्यून में मिलें तब उन्हें अपनी समस्त सामूहिक संपत्ति कम्यून के अधीन करनी होगी और उनके ऋण कम्यून द्वारा चुकाए जाएँगे। उसी प्रकार कम्यून के सदस्य बनने पर व्यक्तियों को अपनी निजी संपत्ति तथा उत्पादन के समस्त साधनों को कम्यून को सौंपना होगा। कम्यून राजकीय व्यवसाय के प्रमुख अंग, वितरण तथा क्रय-विक्रय-विभाग की तथा जनता के बैंक की एजेंसी के रूप में ऋण विभाग की स्थापना करेगा। उसकी अपनी नागरिक सेना होगी। कम्यून का सर्वोच्च प्रशासकीय संगठन उसकी कांग्रेस होगी जो उसके सभी महत्वूपर्ण विषयों पर विचार करेगी तथा निर्णय देगी और जिसमें जनता के सभी अंगों के प्रतिनिधि होंगे। यह कांग्रेस एक प्रबंधक समिति का निर्वाचन करेगी जिसके सदस्यों में कम्यून के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष भी होंगे। इस समिति के अधीन, कृषि, जल, वन, पशुपालन, उद्योग तथा यातायात, वित्त, खाद्य, वाणिज्य सुरक्षा, नियोजन एवं वैज्ञानि अनुसंधान, सांस्कृतिक तथा शैक्षिक कार्य संबंधी विभाग होंगे। विभिन्न स्तरों पर प्रबंधकीय संगठनों द्वारा कम्यून एक केंद्रीय नेतृत्व की, चिकित्सालय तथा सार्वजनिक सांस्कृतिक एवं खेलकूद के केंद्रों की, वृद्धों और अपाहिजों के लिए उचित प्रबंध की, स्त्रियों की प्रगति के लिए उनके योग्य घरेलू उद्योग धंधों की, श्रमिकों के दैनिक वेतन तथा खाद्यान्न की व्यवस्था करेगा। पूरे कम्यून में प्रशासन की जनतंत्रात्मक व्यवस्था लागू होगी।


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