कीलाक्षर लिपि
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कीलाक्षर लिपि
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3 |
पृष्ठ संख्या | 45 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
लेखक | रोजर्स, ई. ए. डब्ल्यू. बज, |
संपादक | सुधाकर पांडेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1976 ईसवी |
स्रोत | रोजर्स : हिस्ट्री ऑव बेबिलोनिया ऐंड असीरिया, छठाँ संस्करण, खंड 1 (1915); ई. ए. डब्ल्यू. बज : राइज़ ऐंड प्रोग्रेस ऑव असीरियालोजी, 1925। |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | भगवतारण उपाध्याय |
कीलाक्षर एक प्राचीन लिपि। इसके अक्षर देखने में कील सरीखे जाने पड़ते हैं, इसलिए इस लिपि को इस नाम से पुकारते हैं। गीली मिट्टी की ईटों अथवा पट्टिकाओं पर कठोर कलम या छेनी से टंकित किए जाने के कारण अक्षरों की आकृति स्वाभाविक रूप से कील की सी हो जाया करती थी। इस प्रकार के अक्षरों और इनसे बनी लिपि का उपयोग पहले पहल गैर-सामी सुमेरियों ने किया। दक्षिणी बैबीलोनिया अथवा दजलाफरात के मुहानों के द्वाब में बसे प्राचनी सुमेरियों को इस लिपि के निर्माण का श्रेय दिया जाता है। कालक्रम से भाषाएँ बदलती गईं पर यही प्राचीन सुमेरी लिपि बनी रही। एलामी, बाबुली, असूरी (अथवा असुर), खत्ती, उरार्तू के निवासी, सभी ने बारी-बारी से इस कीलाक्षर लिपि का अपने अपने राज्याधिकारों में उपयोग किया। आज हजारों छोटे-बड़े अभिलेख इस लिपि में लिखे हुए उपलब्ध हैं जिनका संग्रह 7वीं सदी ई. पू. में ही प्राचीन पुराविद् और संग्रहकर्ता असीरिया के राजा असुरबनिपाल ने निनेवे के अपने ग्रंथागार में कर लिया था। निनेवे की खुदाई से संप्राप्त ये अभिलेख अब तुर्की, ईरान, सोवियत, जर्मनी, फ्रांस, इंग्लैंड, शिकागो और पेंसिलवेनिया के संग्रहालयों में सुरक्षित हैं। जलप्रलय की पहली चर्चा करने वाला बाबुली महाकाव्य गिलगमेश भी इन्हीं कीलाक्षरों में अनेक ईटों पर लिखा गया था जिसकी मूल प्रति लेनिनग्राद के एरमिताज संग्रहालय में सुरक्षित हैं। खत्ती रानी ने खत्तियों और मिस्री फराऊ नों के परस्पर युद्ध बंदकर शांति स्थापित करने के लिए अद्वैत के उपासक मिस्री नृपति इख़नातून को अंतर्जातीय विधिस्थापक स्वरूप जो पहला पत्र लिखा, वह इन्हीं कीलाक्षरों में लिखा गया था। बोग़्जाकोई का वह प्रसिद्ध संधिपत्र भी, जिसके द्वारा खत्तियों और मितन्नियों का आपसी युद्ध बंद किया गया था और जिसमें साक्षी स्वरूप भारतीय ऋग्वैदिक देवताओं-इंद्र मित्र, वरुण, नासत्यों-का उल्लेख किया गया है, इन्हीं कीलाक्षरों में लिखा है। कीलाक्षरों के उपयोग की सीमा एलाम से तुर्की तक, अरब से अर्मीनिया तक थी।
कीलाक्षर लिपि के लिए यूरोपीय भाषाओं में समानार्थक शब्द क्यूनीफ़ार्म है। इस लिपि का उद्भव कब हुआ, यह कह सकना संभव नहीं है, पर इसमें संदेह नहीं कि इसका व्यवहार ई. पू.तीसरी सहस्राब्दी से पूर्व अवश्य शुरू हो गया था। विद्वानों का मत है कि इस लिपि का प्रादुर्भाव प्रथमत: चित्रलिपि से हुआ और वह शब्दचिह्न, ध्वन्यात्मक, स्वरात्मक दशाओं से गुजरकर वर्णात्मक स्थिति को प्राप्त हुई। यह लिपि आरंभ में व्यंजनप्रधान थी; धीरे-धीरे स्वरों के उदय से वर्णात्मक बनी और इस कालाविधि में अनेक भाषाओं ने अपने को इसके द्वारा व्यक्त कर इसे मान्यता दी। अमरीकी, भारतीयों, चीनियों, सिंधियों, क्रीतियों और संभवत: मिस्रियों की चित्रलिपि को छोड़ संसार की प्राय: लिपियाँ-बाबुली और असूरी, खत्ती और फिनीकी इब्रानी और अरबी, ग्रीक और रोमन, अरमई और फारसी-इसी कीलाक्षर लिपि से निकली हैं। उसकी उपलिपियों का परिवार बड़ा है और आज समस्त संसार उसी लिपि का, उसके अनंत विकसित रूपों में, उपयोग कर रहा है।
इस लिपिका रहस्यभेद 19वीं सदी के मध्य में तब हुआ जब ईरान स्थित अंग्रेज राजदूत रालिंसन ने दारा के लिखवाए बेहिस्तून के शिलालेख की त्रिभाषिक इबारत को अन्य विद्वानों की सहायता से पढ़ डाला। उसमें प्राचीन फारसी, एलामी और बाबुली भाषाओं में दारा की विजय प्रशस्ति व्यक्तिवाची नामों के कारण आसान था। जब प्राचीन फारसीवाले पहले खाने की इबारत पढ़ ली गई तो उसकी मदद से दूसरे और तीसरे खानों की एलामी और बाबुली भी पढ़ने में देर न लगी। इस प्रकार रोज़ेट्टा स्टोन की मिस्री लिपि की ही भाँति बेहिस्तून की यह त्रिभाषिक कीलाक्षर लिपि भी पढ़ी गई, यह घटना 19वीं सदी के ऐतिहासिक आश्चर्यों में गिनी जाती है।