कुबेर
कुबेर
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3 |
पृष्ठ संख्या | 63 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पांडेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1976 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | कृष्णदत्त वाजपेयी |
कुबेर यक्षों के अधिपति, यक्षराज, गुह्यपति, वैश्रवण, निधिपति आदि नामों से प्रसिद्ध। इनके पिता का नाम विश्रवा था, जिससे वे वैश्रवण कहलाए। कुबेर हिमालय के निवासी कहे गए हैं। इनकी रम्य राजधानी अलका का वर्णन कालिदास तथा अन्य कवियों ने किया है। इनके उद्यान का नाम चैत्ररथ तथा विमान का नाम पुष्पक था।
ऐश्वर्य और विलास के प्रतिनिधि देवता के रूप में कुबेर का वर्णन साहित्य में प्रचुरता से हुआ है। धन के अतिरिक्त कुबेर शक्ति के भी प्रतीक माने गए है। वे दिक्पालों में से भी एक हैं। उन्हें उत्तर दिशा का दिक्पाल कहा गया है जिससे उस दिशा की संज्ञा कौबेरी पड़ गई है।
यक्षों की, प्रमुख रूप में कुबेर की पूजा उत्तर भारत में विशेष प्रचलित रही। ये लोकदेवता के रूप में भी मान्य हुए। लौकिक मान्यता के अनुसार कुबेर अपने भक्तों को शक्ति, समृद्धि और कल्याण प्रदान करते थे। वास्तुशास्त्रों के व्यवस्थानुसार नगर में प्रमुख देवों के साथ वैश्रवण के मंदिर का भी निर्माण अपेक्षित था।
भारतीय कला में कुबेर का आलेखन बहुत मिलता है। भरहुत की वदिका में एक अर्धचित्र है, जिसपर अंकित कुपिरो यखो लेख के अनुसार वह प्रतिका कुबेर यक्ष की है। इस प्रकार यह उनकी एबसे प्राचीन प्रतिमा (समय लगभग ई. पू. १००) कही जा सकती है।
मथूरा, पद्यावती (पदमपवाया), विदिशा, पाटलिपुत्र आदि अनेक नगर कुबेरपूजा के केंद्र थे। इन स्थानों में आसवपायी तुंदिल कुबेर की अनेक प्रतिमाएँ उपलब्ध हैं। मथुरा से कुबेर तथा उनकी पत्नी हारीति की कुषाण एवं गुप्तकाल की अनेक प्रतिमाएँ मिली हैं जिनमें वे प्राय: एक हाथ में मदिरापात्र तथा दूसरे में धन की नकुली (थैली, जिसकी आकृति नवली की सी होती है) लिए अंकित हुए हैं। कुछ प्रतिमाओं में उन्हें पर्वत के ऊपर और कुछ में धन की थैलियों के ऊपर आसीन दिखाया गया है। कतिपय मूर्तियों में वे अपनी पत्नी हारिति के साथ तथा कुछ पर कमलधारिणी लक्ष्मी के साथ बैठे मिलते हैं। कुछ पर हारिति तथा लक्ष्मी दोनों कुबेर के साथ मिलती हैं। श्री या लक्ष्मी के धनाधिपति कुबेर की भार्या होने का उल्लेख साहित्य में भी मिलता हैं। कुछ प्रतिमाओं पर कुबेर के साथ उनकों सुरा प्रदान करते हुए अनुचर भी अंकित हैं।
अष्टनिधियों के स्वामी (निधिपति) होने के कारण अनेक कलाकृतियों में कुबेर के साथ शंख, पद्म आदि निधियों का भी उत्खचन मिलता है। दिक्पाल के रूप में कुबेर का चित्रण मध्यकालीन कला में उपलब्ध होता है। इस काल के कुछ मंदिरों में कुबेर की प्रतिमा मंदिर की उत्तराभिमुखी बाह्य दीवार पर मिलती हैं।
बौद्ध धर्म और कला में कुबेर की संज्ञा जंभाल है। वज्रयान और महायान में इसी रूप में उनका अंकन हुआ हैं। महायान में इनकी पत्नी का नाम वसुधारा तथा वज्रयान में मारीचि मिलता है। जैन धर्म में कुबेर को मल्लिनाथ तीर्थकर का यक्ष कहा गया है और इस रूप में वे जैन कलाकृतियों में मिलते हैं।
टीका टिप्पणी और संदर्भ