कुमायूँ

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लेख सूचना
कुमायूँ
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3
पृष्ठ संख्या 64-65
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पांडेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1976 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक कृष्णमोहन गुप्तु.; परमेश्वरीलाल गुप्त

कुमायूँ भारतवर्ष के उत्तरप्रदेश राज्य में एक प्रशासनात्मक इकाई (२८०.५५’ उत्तरी अक्षांश से ३००.५०’ ३०' उत्तरी अक्षांश तक तथा ७८०.५२’ पूर्वी देशांतर से ८०० ५६’ १५' पूर्वी दे. तक)। इसमें नेपाल के पश्चिम हिमालय पर्वत की बाहरी श्रेणियॉ, तराई और भाभर की दो पट्टियाँ सम्मिलित हैं। इसका क्षेत्रफल २३,६७६ वर्ग किलोमीटर है। इसके अंतर्गत टेहरी-गढ़वाल, गढ़वाल, अल्मोड़ा और नैनीताल नामक चार जिले हैं। इसके उत्तर तिब्बत, पूर्व नैपाल और पश्चिम में शिवालिक पर्वतश्रृंखला है।

१८५० ई. तक तराई और भाभ्र क्षेत्रों में दुर्गम और घने जंगल थे, जिनमें केवल जंगली जानवर रहा करते थ। धीरे-धीरे जंगलों को साफ किया गया तथा पहाड़ पर रहनेवाले लोगों का ध्यान इधर आकर्षित हुआ। पहाड़ी लोग गर्मी और जाड़े में नीचे आकर इन क्षेत्रों में खेती करते हैं तथा वर्षा में पहाड़ों पर लौट जाते हैं। कुमायूँ में विशाल पर्वतश्रेणियाँ हैं। १४० मील लंबे तथा ४० मील चौड़े इस पहाड़ी क्षेत्र में लगभग ३० ऐसी चोटियाँ हैं, जिनकी ऊँचाई समुद्रतल से १८,००० फुट से भी अधिक है; जिनमें नंदादेवी, त्रिशूल, नंदाकोट और पंचूली विशेष प्रख्यात है। तिब्बत की जलविभाजक (Watershed) श्रेणियों की दक्षिणी ढालों से अनेक नदियाँ निकलती हैं तथा इन विशाल चोटियों को काटती हुई आगे बढ़ती हैं; इससे अत्यंत गहरी घाटियाँ बन गई हैं। इनमें से बहनेवाली प्रमुख नदियों के नाम शारदा या काली, पिंडारी और काली गंगा हैं। ये सभी नदियाँ अलकनंदा से मिल जाती हैं। जंगलों से मूल्यवान लकड़ियाँ मिलती हैं। इन जंगलों में चीड़, देवदार, सरो या साइप्रस, फ़र, साल, सैदान (Saidan) और ऐल्डर (Alder) आदि के वृक्ष मुख्य हैं। खनिज पदार्थों की दृष्टि से यह क्षेत्र अत्यंत धनी हैं; इसमें लोहा, ताँबा, जिप्सम, सीमा और ऐसबेस्टस जैसे महत्वपूर्ण खनिज मिलते है। तराई, भाभर और गहरी घाटियों को छोड़कर अन्य सभी भागों की जलवायु सम तथा अनुकूल हैं। बाह्य हिमालय की दक्षिणी ढालों पर अधिक वर्षा होती है, क्योंकि वे मानसून के मार्ग में सर्वप्रथम पड़ते हैं। ४० से ८० इंच तक इस क्षेत्र में औसत वार्षिक वर्षा होती है। जाड़े के दिनों में प्रति वर्षा ऊँची चोटियों पर हिमपात होता है। किसी किसी वर्ष तो पूरा क्षेत्र ही हिमच्छादित हो जाता है।

इस भूभाग का प्राचीन नाम कूर्मांचल है। पौराणिक आख्यानों के अनुसार अपने पिता दक्ष के यहाँ यज्ञ के अवसर पर पति महादेव का अपमान देखकर पार्वती ने यहीं अग्निप्रवेश किया था। स्वर्गयात्रा के समय पांडव यहीं आए थे ऐसा महाभारत में कहा गया है।

इस स्थान पर प्राचीन काल में किन्नर, किरात और नाग लोग रहते थे। तदनंतर यहाँ खस लोग आए और इन लोगों को पराजित कर यहाँ बहुत दिनों तक राज्य करते रहे। नवीं शती ई. के आसपास कत्यूरी वंश ने अपना प्रभुत्व स्थापित किया। कदाचित्‌ ये लोग शक थे। यह वंश १०५० ई. तक राज्य करता रहा। उसके बाद के तीन-साढ़े तीन सौ वर्ष के बीच अनेक वंश के राजाओं का अधिकार रहा किंतु उनके संबंध की जानकारी उपलब्ध नहीं है। १४०० ई. के लगभग चंद्रवंश के अधिकार में यह प्रदेश आया। भारतीचंद्र, रतनचंद, किरातीचंद, माणिकचंद, रुद्रचंद के पश्चात्‌ १७वीं शती में बाजबहादुरचंद्र (१६३८-७८ ई.) राजा हुए। उन्होंने तिब्बत पर आक्रमणकर उसे अपने अधिकार में कर लिया। १८वीं शती में रुहेलों में कुमायूँ पर आक्रमण किया और अनेक मंदिर ध्वस्त किए। उन्होंने स्वयं तो अपना राज्य स्थापित नहीं किया किंतु चंद्रवंश की स्थिति इतनी नाजुक हो गई कि नैपाल के गोरखा शासकों ने उसपर अधिकार कर लिया। १८१५ ई. में अंग्रेजों ने इसे गोरखों से ले लिया और यह भारत का एक अंग बन गया।

इस प्रदेशों के निवासी मुख्यत: ब्राह्मण, राजपूत और शिल्पकार (डोम) हैं। दूसरी से छठीं शती ई. तक इस प्रदेश पर बौद्ध धर्म का प्रभाव रहा।

उस समय अधिकांश खस और शिल्पकारों ने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया था। १२वीं शताब्दी के पश्चात उस प्रदेश पर हिंदू धर्म का प्रभाव बढ़ा।

अल्मोड़ा उस प्रदेश का एक प्राचीनतम नगर है। यहाँ कत्यूरी राजाओं का एक दुर्ग है। १५६० के आसपास यह चंद्रबंश की राजधानी थी। जगेश्वर उस प्रदेश का सबसे प्रमुख तीर्थ है। नैनीताल एक रमणीक स्थान है जो अब उत्तर प्रदेश शासन की ग्रीष्मकालीन राजधानी है। यह एक झील के किनारे बसा है और यहाँ नैना देवी का मंदिर है। मान्यता है कि वहाँ पार्वती का नयन उस समय गिरा था जब दक्षयज्ञ के विध्वंस के बाद व्योमकेश रुद्र उनका अग्निजर्जजर शव लेकर बह्माण्ड में विक्षिप्त से घूमते-फिरे थे। इस प्रदेश में अनेक स्वास्थ्यवर्धक केंद्र हैं जिनमें भुवाली क्षय रोग की चिकित्सा की दृष्टि से अत्यंत स्वास्थ्यकर माना जाता है। वहाँ और उसके आसपास क्षय रोग के कई चिकित्सालय हैं। ()

टीका टिप्पणी और संदर्भ