कुरू
कुरू
| |
पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3 |
पृष्ठ संख्या | 71 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पांडेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1976 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | चंद्रभान पांडे |
कुरु एक प्राचीन जनपद। इसका उल्लेख उत्तर वैदिक युग से मिलता है। यह जनपद उत्तर तथा दक्षिण दो भागों में विभक्त था। कुरुओं का संबंध उत्तर में स्थित बाह्लीकों तथा महावृषों से अधिक घना था। पुरुरवा ऐल का पिता (मध्य एशिया) से मध्यप्रदेश आया था। प्रपंचसूदनी में कुरुओं को हिमालय पार के देश उत्तर कुरु का औपनिवेशिक बताया गया है। महाभारत में उत्तरकुरु को कैलास और बदरिकाश्रम के बीच रखा गया है।[१]।
दक्षिण कुरु, उत्तर कुरु की अपेक्षा अधिक प्रसिद्ध है और वही कुरु के नाम से विख्यात है। यह जनपद पश्चिम में सरहिंद के पार्श्ववर्ती क्षेत्रों से लेकर सारे दक्षिणपश्चिमी पंजाब और उत्तर प्रदेश के कुछ पश्चिमी जिलों तक फैला हुआ था। ब्राह्मणों और उपनिषदों में कुरु और पांचाल का उल्लेख एक साथ हुआ है। किंतु दोनों की भौगोलिक सीमाएँ एक दूसरे से भिन्न थीं। कुरु के पूर्व में उत्तरी पांचाल तथा दक्षिण में दक्षिणी पांचाल के प्रदेश पड़ते थे। संभव है कि गंगा यमुना दोआब का कुछ उत्तरी भाग कुरुजनपद की सीमा में रहा हो। शतपथ ब्राह्मण में कुरु पांचाल को मध्यप्रदेश (ध्रुवामध्यमादिक्) में स्थित बताया गया है। मनुस्मृतिकार ने कुरु, मत्स्य, पांचाल और शूरसेन को ब्रह्मर्षियों का देश कहा है। महाभारत में (वनवर्ष, अध्याय 83) कुरु की सीमा उत्तर में सरस्वती तथा दक्षिण में दृषद्वती नदियों तक बताई गई है। यह श्रीमद्भगवती और श्रीमद्भगवत का वह क्षेत्र है, जहाँ कौरवों और पांडवों के बीच भीषण और विनाशकारी युद्ध हुआ था। राजा ययाति और अनेक ऋषियों ने वहाँ अपने अनेकानेक यज्ञ किए थे। हस्तिनापुर इसकी राजधानी थी जो गढ़मुक्तेश्वर के पास गंगा के किनारे बसा था।
पालि साहित्य में भी कुछ के यथावसर अनेक उल्लेख मिलते हैं। अंगुत्तरनिकाय और महावंश में उसे प्राचीन भारत के 16 महाजनपदों में गिनाया गया है। त्रिपिटको की बुद्धघोषकृत टीकाओं में बुद्ध को कुरुओं के बीच अनेक बार उपदेश करते बताया गया है। कुरुधम्म जातक के अनुसार बोधिसत्व ने कुरुराज की रानी के गर्भ से जन्म लिया था। महासुतसोम जातक में कुरुराज्य का विस्तार 300 योजन कहा गया है।
ऋग्वेद में कुरु जनपद के कुरुश्रवण, उपश्रवस् और पाकस्थामन् कौरायण जैसे कुछ राजाओं की चर्चा हुई है। कौरव्य और परीक्षित (अभिमन्युपुत्र परीक्षित नहीं) के उल्लेख अथर्ववेद में हैं। अधिकांश उपनिषदों और ब्राह्मणों की रचना कुरुपांचाल प्रदेशों में ही हुई थी। कुरु जनपद का इतिहास, विशद वर्णन महाभारत एवं पुराणों में मिलता है। उसका प्रारंभिक इतिहास तो पौरवों के इतिहास से संबद्ध है ही। परवर्तीकालीन इतिहास, कौरवों के नाम से प्रसिद्ध है। इसका परंपरागत इतिहास इस प्रकार है। स्वायंभुव मनु की पुत्री इला को बुध से पुरुरवा नामक पुत्र हुआ, जो चंद्रवंशी क्षत्रियों का प्रथम पुरुष था। नहुष और ययाति उसके वंश में अत्यंत प्रसिद्ध और पराक्रमी राजा हुए। ययाति के पुत्र पुरु के नाम पर पौरववंश का नाम पड़ा, जिसमें दुष्यंत के पुत्र भरत चक्रवर्ती सम्राट् हए। उसके बाद का मुख्य शासक संवरण का पुत्र कुरु था। उसी के वंश में आगे चलकर शांतनु हुए। शांतनु के पुत्र चित्रांगद और विचित्रवीर्य अधिक दिनों तक शासन नहीं कर सके और उनकी जल्दी ही मृत्यु हो गई। विचित्रवीर्य की रानियों से दो नियोगज पुत्र हुए-धृतराष्ट्र और पांडु। धृतराष्ट्र जन्म से ही अंधे थे, अत: पांडु को राजगद्दी मिली। पर वे भी जल्दी ही मर गए और धृतराष्ट्र ने राज्य की बागडोर अपने हाथों में ले ली। धृतराष्ट्र के गांधारी से दुर्योधनादि सौ पुत्र हुए, जो कौरव कहलाए। अंत में युधिष्ठिर का राज्याभिषेक हुआ। वे भी बहुत दिनों तक शासन नहीं कर सके। कृष्ण की मृत्यु और यादवों के अंत का समाचार सुनकर उन्होंने राजगद्दी त्याग दी और अपने भाइयों के साथ तपस्या के लिए वन में चले गए। उनके बाद अर्जुन के पौत्र परीक्षित (अभिमन्यु के पुत्र) हस्तिनापुर में सिंहासनारूढ़ हुए। परीक्षित के सर्पों के काटने से मृत्यु की जो अनुश्रुति हैं, वह कदाचित् तक्षशिला के तक्षकों अथवा नागों द्वारा हस्तिनापुर पर किए गए आक्रमण का संकेत करती है। परिक्षित के पुत्र और उत्तराधिकारी जनमेजय के नागयज्ञ की जो कथा है वह उनके तक्षशिला-विजय-प्राप्ति की कहानी हैं। ऐतरेय ब्राह्मण में भी उन्हें विजेता बताया गया है। इसी में उन्हें सार्वभौम बनने का महत्वाकांक्षी भी बताया गया है। जनमेजय के बाद शतानीक, अश्वमेघदत्त, अधिसीम कृष्ण तथ निचक्षु ने राज किया। इसी निचक्षु के राज्यकाल में हस्तिनापुर नगर गंगा की आप्लावित हो गया और उसके राज्य में टिड्डियों का भारी आक्रमण हुआ जिसके कारण निचक्षु और उसकी सारी प्रजा को हस्तिनापुर त्यागने को बाध्य होना पड़ा। वे इलाहाबाद के निकट कौशांबी चले आए। निचक्षु और कुरुओं के कुरुक्षेत्र से निकलने का उल्लेख शांख्यान श्रौतसूत्र में भी है। उसके अनुसार वृद्धद्युम्न से एक यज्ञ में भूल हो गई। उसके परिणामस्वरूप एक ब्राह्मण ने शाप दिया कि कुरुओं का निष्कासन हो जायेगा।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (म. भा. 3।145।12-19)