कुलोत्तुंग प्रथम

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
चित्र:Tranfer-icon.png यह लेख परिष्कृत रूप में भारतकोश पर बनाया जा चुका है। भारतकोश पर देखने के लिए यहाँ क्लिक करें
लेख सूचना
कुलोत्तुंग प्रथम
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3
पृष्ठ संख्या 74
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पांडेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1976 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी

कुलोत्तुंग प्रथम (१०७०-११२२ ई.) दक्षिण भारत के चोल राज्य का प्रख्यात शासक। यह वेंगी के चालुक्य नरेश राजराज नरेंद्र (१०१९-१०६१ ई०) का पुत्र था और इसका नाम राजेंद्र (द्वितीय) था। इसका विवाह चोलवंश की राजकुमारी मधुरांतका से हुआ था जो वीरराजेंद्र की भतीजी थी। यह वेंगी राज्य का वैध अधिकारी था किंतु पारिवारिक वैमनस्य के कारण वीरराजेंद्र ने राजेंद्र (द्वितीय) के चचा विजयादित्य (सप्तम) को अधीनता स्वीकार करने की शर्त पर राज्य प्राप्त करने में सहायता की। इस प्रकार यह वेंगी का अपना पैत्रिक राज्य प्राप्त न कर सका। किंतु कुछ वर्षों बाद वीरराजेंद्र का उत्तराधिकारी और पुत्र अधिराजेंद्र एक जनविद्रोह में मारा गया तब चालुक्य राजेंद्र (द्वितीय) ने चोल राज्य को हथिया लिया और कुलोत्तुंग (प्रथम) के नाम से इसका शासक बना। तब इसने अपने पैतृक राज्य वेंगी से विजयादित्य (सप्तम) को निकाल बाहर किया और अपने पुत्रों को वहाँ का शासक बनाकर भेजा।

कुलोत्तुंग की गणना चोल के महान्‌ नरेशों में की जाती है। अभिलेखों और अनुश्रुतियों में उसका उल्लेख संगमतविर्त्त (कर-उन्मूलक) के रूप में हुआ है। उसके शासनकाल का अधिकांश भाग अद्भुत सफलता और समृद्धि का था। उसकी नीति थी अनावश्यक युद्ध न किया जाय और उनसे बचा जाए। परिणामस्वरूप श्रीलंका को छोड़कर चोल साम्राज्य के सारे प्रदेश १११५ ई. तक उसके अधीन बने रहे। उसे मुख्य रूप से वीरराजेंद्र के दामाद कल्याणी के चालुक्य नरेश विक्रमादित्य (षष्ठ) से निरंतर संघर्ष करना पड़ा। इसके कारण उसके अंतिम दिनों में चोल राज्य की स्थिति काफी दयनीय हो गई और वह तमिल देश और तेलुगु के कुछ भागों में ही सिमट कर रह गया।


टीका टिप्पणी और संदर्भ