कृष्णासंज्ञक
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कृष्णासंज्ञक
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3 |
पृष्ठ संख्या | 106 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पांडेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1976 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | परमेश्वरीलाल गुप्त |
कृष्णसंज्ञक व्यक्ति का प्राचीनतम उल्लेख ऋग्वेद में हुआ है। वे ऋषि कहे गये है और उन्हें अनुक्रमणी में कृष्ण आंगिरस कहा गया है। वे सोमपान के लिये अश्वनी कुमार का आह्वान करते हैं तथा अहिंसनीय गृह प्रदान करने की प्रार्थना करते हैं (8।85।1-7)। एक अन्य ऋचा से कृष्णपुत्र विश्व की जानकारी मिलती है (1।116।7)। दो अन्य ऋचाओं में अपत्यवाचक कृष्णीय शब्द का प्रयोग हुआ है (1।116।23; 1।117।7)। इनके अनुसार कृष्ण विष्णापु के पिता थे। कृष्ण आंगिरस का उल्लेख कौषीतकी ब्राह्मण में भी है। ऐतरेय आरण्यक में कृष्ण हारीत नामक उपाध्याय की चर्चा है। कुछ विद्वानों की धारणा है कि ऋग्वेद में कृष्ण नामक एक असुरराज का उल्लेख जो अपने दश सहस्त्र सैनिकों के साथ अंशुमती (यमुना) तटवर्ती प्रदेश में रहता था इंद्र ने उसे वृहस्पति की सहायता से हराया था (8।96।13-15)। अन्यत्र इंद्र को कृष्णासुर की गर्भवती स्त्रियों का वध करनेवाला कहा गया है (1।101।1)।
कुछ लोग ऋग्वेद में उल्लिखित कृष्ण और पुराणों में उल्लिखित कृष्ण (वासुदेव कृष्ण) को एक अनुमान करते है । किंतु पुराणों में कृष्ण को न तो मंत्रद्रष्टा कहा गया है न उनके अंगिरस के साथ संबंध की ही चर्चा की है। इसलिये ऋषि कृष्ण, उक्त कृष्ण से सर्वथा भिन्न है। इसी प्रकार कुछ लोग असुर कृष्ण में पौराणिक कृष्ण के विकास की कल्पना करते है। किंतु असुर कृष्ण का उल्लेख ऋग्वेद की मूल ऋचाओं में नहीं है। सायण के भाष्य से ही उनका अनुभव किया जाता है। यदि सायण के आधार पर असुर कृष्ण हों भी तब भी उनके पौराणिक कृष्ण के साथ तादाम्य की संभावना नहीं है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ