केदारनाथ
केदारनाथ
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3 |
पृष्ठ संख्या | 116-117 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पांडेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1976 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | सर्वदानंद |
केदारनाथ उत्तर प्रदेश के गढ़वाल जिले में पवित्र मंदाकिनी नदी की मनोरम घाटी का मुकुटमणि मंदिर, जिसमें केदारेश्वर लिंग स्थापित है। यह संपूर्ण स्थल केदारधाम कहलाता है। यहाँ वनराजि की रमणीयता, सामने नभ:स्पृश हिमाद्रि तुंग की शोभा, प्रपातों से उत्थित कल कल रव, गहन चढ़ाई चढ़कर आए भगवान शंकर के श्रद्धालुओं के श्रम सीकर पोंछ देते हैं। वस्तुत: यह स्थल हिमालय के नाम को सार्थक करता है। ठीक केदारनाथ की पृष्ठभूमि में 22, 770 फुट ऊँचा केदारनाथ नाम का पर्वत भी है। हिमश्रृंगों के क्रोड में ही केदारनाथ मंदिर बना है। वैदिक धर्म को नए सिरे से प्रतिष्ठित कनेवाले श्री आदि शंकराचार्य इस क्षेत्र से विशेष रूप से संबंधित थे, उनकी एक समाधि मंदिर के पीछे बनी है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि बत्तीस वर्षों की वय में वह केदारनाथ आए और वहाँ से सदेह कैलास जाकर शिवत्व में लीन हो गए जिसका अर्थ केवल यही माना जा सकता है। कि वह केदारनाथ आकर हिमालय की ओर चले गए। समाधि नाम से जो वस्तु बनी है वह उनका स्मारक मात्र है।
पांडव लोग इस राह से ही प्राणत्याग करने आगे हिमशिखरों की ओर गए थे। कहते हैं, कुछ लोग, चुपके से संदेह स्वर्गाशा में, मंदिर से लगभग छह मील दूर, 16,000 फुट का ऊँचाई पर स्वर्गारोहिणी नदी के उद्गम स्थल के पास की महापंथ अथवा ब्रह्मझंप, पर्वत चोटी से नीचे कूद पड़ते थे। यद्यपि शासन की ओर से अब इधर आना बंद कर दिया गया है, फिर भी अंधविश्वासवश शायद कोई अब भी चला ही जाता है।
केदारनाथ मंदिर छोटा किंतु सुंदर बना है। बारह शैव तीर्थ प्रसिद्ध माने जाते हैं। इनमें स्थापित शिवलिंग ज्योतिर्लिंग माने जाते हैं तथा सिद्धपीठ हैं। केदार लिंग की गणना इन बारह ज्योतिर्लिंगों में होती है। यह देखने से स्पष्ट ही प्राचीन तथा नैसर्गिंक लगता है, मनुष्य के हाथों की कृति नहीं। बड़ी सी उठी हुई शिला है। इस संबंध में एक सत्य यह भी है कि यह शिवलिंग आकृति में भी अन्य शिवंलंगों जैसा नहीं है। शायद इसलिये एक कथा प्रचलित हो गई है। पंचपांडवों में से भीम ने शंकर को पकड़ना चाहा। शंकर बरदाकृति बन पृथ्वी में समाने लगे। भीम के हाथ शंकर की कमर के पास का भाग लगा। आकाशवाणी हुई कि मेरा शरीर काशी में (विश्वनाथ) और मस्तक पशुपतिनाथ (नेपाल) में है। यह तो मेरा नितंब मात्र है। यह कथा कितनी हास्यास्पद है, यह कहने की आवश्यकता नहीं। पांडवों के यहाँ आने की बात सत्य हो सकती हैं किंतु भीम द्वारा योगिराज भगवान शंकर को पकड़ने की मूर्खताभरी चेष्टा का क्या अर्थ हो सकता है? फिर, भीम के भय से देवाधिदेव महादेव बरदरूप धारण कर पृथ्वी में समाने की चेष्टा क्यों करते, क्योंकि वह तो इच्छा मात्र से ही अदृश्य हो सकते थे? भीम क्या भगवान से भी अधिक सामर्थ्य और शक्ति रखते थे कि पशु बने हुए भयभीत शंकर की कमर पकड़ ही ली ? वस्तुत: यह समूची कथा इसलिये गढ़ी हुई होगी कि केदारलिंग का साम्य अन्य शिवलिंगों सा नहीं है, किंतु यह असाम्य हिंदू की श्रद्धा जगने में किंचित् बाधक नहीं है।
मंदाकिनी के उस पार काली का प्रसिद्ध मंदिर है जहाँ शाक्तोपासक दूर दूर से दर्शनार्थ आते हैं।
स्कंदपुराण के माहेश्वर खंड में केदारधाम का सबसे पहले उल्लेख और वर्णन है। यात्रा का यथाविधि क्रम भी यही है कि पहले केदार यात्रा करके रु द्रप्रयाग लौटें और फिर बदरीनाथ जाएँ। पापनाशी केदार का दर्शन किए बिना लौटना व्यर्थ है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ