केवड़ा
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केवड़ा
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3 |
पृष्ठ संख्या | 123 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पांडेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1976 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | कैलााचंद्र मिश्र |
केवड़ा पैंडेनसी (Pandanacea) कुल के एकदली वर्ग का पौधा जो उष्ण कटिबंधीय, हिंद महासागर के तटीय देशों में तथा प्रशांत महासागर के टापुओं में पाया जाता है। दक्षिण भारत के तटीय भागों में केवड़ा प्राकृतिक रूप से उगता है। फूलों की तीक्ष्ण गंध के कारण यह बागों में भी लगाया जाता है।
इसका पौधा 5-7 मीटर ऊँचा होता है और बलुई मिट्टी पर नम स्थानों में अधिक पनपता है। इसका प्रधान तना शीघ्र ही शाखाओं में विभाजित हो जाता है और हर शाखा के ऊपरी भाग से पत्तियों का गुच्छा निकलता है। पत्तियाँ लंबी तथा किनारे पर काँटेदार होती है और तने पर तीन कतारों में लगी रहती हैं। जमीन से कुछ ऊपरवाले तने के भाग से बहुत सी हवाई जड़ें निकलती हैं और कभी कभी जब तने का निचला भाग मर जाता है तब पौधे केवल इन हवाई जड़ों के सहारे पृथ्वी पर जमे रहते हैं। इनके पुष्पगुच्छ में नर या मादा फूल मोटी गूदेदार धुरी पर लगे होते हैं। नर पुष्पगुच्छ में कड़ी महक होती हैं। मादा पुष्पगुच्छ में जब फल लगते हैं और पक जाते हैं तब वह गोलाकार नारंगी रंग के अनन्नास के फल की भाँति दिखाई पड़ता है। केवड़े के ये फल समुद्र की लहरों द्वारा दूर देशों तक पहुँच जाते है और इसी से केवड़ा समुद्रतटीय स्थानों में अधिकता से पाया जाता है। नर पुष्पगुच्छ से केवड़ाजल और इत्र बनाए जाते हैं। पत्तियों के रेशे रस्सी आदि बनाने के काम आते हैं। जड़ों से टोकरी तथा बुरुश बनाया जाता हैं।
टीका टिप्पणी और संदर्भ