कैशोर अपराध

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लेख सूचना
कैशोर अपराध
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3
पृष्ठ संख्या 146
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पांडेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1976 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक राजकुमार

कैशोर अपराध (जुवेनाइल डेलिंक्वेंसी) मनोवैज्ञानिक एवं समाजशास्रीय अध्ययनों द्वारा यह ज्ञात हुआ है कि मनुष्य में अपराधवृत्तियों का जन्म बचपन में ही हो जाता है। अंकेक्षणों (स्टैटिस्टिक्स) द्वारा यह तथ्य प्रकट हुआ है कि सबसे अधिक और गंभीर अपराध करनेवाले किशोरावस्था के ही बालक होते हैं। इस दृष्टि से कैशोर अपराध को एक महत्वपूर्ण कानूनी, सामाजिक, नैतिक एवं मनोवैज्ञानिक समस्या के रूप में देखा जाने लगा है।

कैशोर अपराधों का स्वरूप सामान्य अपराधों से भिन्न होता है। कानूनी शब्दावली में देश के निर्धारित कानूनों के विरुद्ध आचरण करना अपराध है, किंतु कैशोर अपराध समाजशास्रीय एवं मनोवैज्ञानिक प्रत्यय है। किशोर अवस्था के बालकों द्वारा किए गए वे सभी व्यवहार जो कानूनी ही नहीं वरन्‌ किसी भी दृष्टि से समाज तथा व्यक्ति के लिये अहितकर हों, कैशोर अपराध की सीमा में आते है। यथा---विद्यालय से भागना कानूनी दृष्टि से अपराध नहीं है, किंतु सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक दृष्टि से हानिकर है। यह एक ओर तो सभी प्रकार के उत्तरदायित्वों से भागना सिखाती है और दूसरी ओर बालक को उचित कार्य से हटाकर अनुचित कार्यों की ओर प्रेरित करती है। इस प्रकार कैशोर अपराध का क्षेत्र अधिक व्यापक है।

किशोरावस्था में व्यक्तित्व के निर्माण तथा व्यवहार के निर्धारण में वातावरण का बहुत हाथ होता है; अत: अपने उचित या अनुचित व्यवहार के लिये किशोर बालक स्वयं नहीं वरन्‌ उसका वातावरण उत्तरदायी होता है। इस कारण अनेक देशों में कैशोर अपराधों का अलग न्यायाविधान है; उनके न्यायाधीश एवं अन्य न्यायाधिकारी बालमनोविज्ञान के जानकार होते है। वहाँ बाल-अपराधियों को दंड नहीं दिया जाता, बल्कि उनके जीवनवृत्त (केस हिस्ट्री) के आधार पर उनका तथा उनके वातावरण का अध्ययन करके वातावरण में स्थित असंतोषजनक, फलत: अपराधों को जन्म देनेवाले, तत्वों में सुधार करके बच्चों के सुधार का प्रयत्न किया जाता है। अपराधी बच्चों के प्रति सहानुभूति, प्रेम, दया और संवेदना का व्यवहार किया जाता है। भारत में भी कुछ राज्यों में बालन्यायालयों और बालसुधारगृहों की स्थापना की गई है।

किशोर बालक अपराध क्यों करते है, इस संबंध में विभिन्न मत हैं। मानवशस्रियों (ऐं्थ्राोपालोजिस्ट्स्‌) ने यह निष्कर्ष निकाला है कि अपराध का संबंध वंशानुक्रम, शारीरिक बनावट एवं जातिगत विशेषताओं से है। इसी कारण अपराधी जाति (क्रिमिनल ट्राइब्ज़) के सभी व्यक्ति एक ही जातिगत विशेषताओं और एक सी शारीरिक बनावट के होते हैं तथा वे एक सा अपराध करते हैं। शरीरवैज्ञानिकों का मत भी इसी से मिलता जुलता है। उनके मतानुसार विशेष प्रकार की शारीरिक बनावट और प्रक्रियावाला व्यक्ति विशेष प्रकार का अपराध करेगा। किंतु मनोविज्ञान ने सिद्ध किया है कि अपराध का संबंध न तो उत्तराधिकार से होता है और न शारीरिक बनावट से ; उत्तराधिकार में केवल शारीरिक विशेषताएँ ही प्राप्त होती हैं, उनका व्यक्ति की भावनाओं, आकांक्षाओं, प्रवृत्तियों एवं बुद्धि से सीधा संबंध नहीं होता। समाजशास्रियों का कथन है कि अपराध का जन्मदाता दूषित वातावरण, यथा---गरीबी, उजड़े परिवार, अपराधी साथी आदि है। किंतु आधुनिक मनोवैज्ञानिक शोधों द्वारा यह जाना गया है कि एक ही वातावरण ही नही वरन्‌ एक ही परिवार में पले, एक ही मातापिता के बच्चों में से एकआध ही अपराधी होता है, सभी नहीं। यदि अपराध का जन्मदाता वातावरण होता है तो अन्य भाई बहिनों को भी अपराधी बनना चाहिए।

आधुनिक मनोविज्ञान कैशोर अपराधों का मूल मनोवैज्ञानिक स्थितियों में ढूँढ़ता है। उसके अनुसार हर बच्चे की कुछ इच्छाएँ, आकांक्षाएँ और आवश्यकताएँ होती हैं। उन्हें पूरा करने का वह प्रयत्न करता है। उसके इस प्रयास में अनेक बाधाएँ आती हैं, जिन्हें वह जीतने का प्रयत्न करता है। अपने प्रयत्नों के फल से वह या तो संतुष्ट होता है या असंतुष्ट अथवा उदासीन। किंतु उदासीनता के भाव कम ही हो पाते है। संतोष और असंतोष का संबंध सफलता या उपलब्धि से नहीं हैं वरन्‌ संतोष आपेक्षिक प्रत्यय है। निर्धन किसान अपनी स्थिति में संतुष्ट रह सकता है; किंतु करोड़पति व्यवसायी नहीं। असंतोष को दूर करने का प्रयास मानव स्वभाव है। इसे दूर करने के समाज द्वारा स्वीकृत ढंग जब असफल हो जाते है तब व्यक्ति ऐसा ढंग अपनाता है जो सफल हो, भले ही वह समाज के लिये हानिकर और उसके द्वारा अस्वीकृत ही क्यों न हो। तभी वह अपराधी बन जाता है। यथा---कोई कमजोर विद्यार्थी अनुत्तीर्ण होने पर अपनी कमजोरी का ध्यान करके अपनी स्थिति में संतुष्ट रह सकता है; किंतु कक्षा का तेज विद्यार्थी तृतीय श्रेणी में उत्तीर्ण होने पर आत्महत्या तक कर सकता है। प्रश्न संतोष और असंतोष की मात्रा का है।

निष्कर्ष यह कि बच्चा चाहे शारीरिक कमजोरी से पीड़ित हो, उसकी बुद्धि कम हो, उसके माता पिता अपराधी हों, उसका वातावरण खराब हो, उसी उपलब्धियाँ निम्न स्तर की हों, फिर भी वह तब तक अपराधी नहीं बनेगा, जब तक कि वह अपनी स्थिति से असंतुष्ट न हो और असंतोष को दूर करने के उसके समाजस्वीकृत प्रयास असफल न हो चुके हों।

अपराध एक प्रकार का आत्मप्रकाशन तथा व्यवहार है। किशोर अवस्था के अपराध भी स्वाभाविक व्यवहार के ढंग हैं, केवल उनका परिणाम समाज तथा व्यक्ति के लिये अहितकर होता है। अत: समाज को इस अहितकर स्थिति से बचाने के लिये मनावैज्ञानिक की सहायता से अभिभावकों तथा अध्यापकों को यह देखना होगा कि बच्चे के अपराधी आचरण की कारणभूत कौन सी असंतोषजनक स्थितियाँ विद्यमान है। रोग के कारण को दूर कर दीजिए, रोग दूर हो जाएगा, यह चिकित्साशास्र का सिद्धांत है। अपराधी व्यवहार भी सामाजिक रोग हे। इसके कारण असंतोषजनक स्थिति को दूर करने पर अपराधी व्यवहार स्वयं समाप्त हो जाएगा और अपराधी बालक बड़ा बनकर समाज का योग्य सदस्य तथा देश का उत्तरदायित्वपूर्ण नागरिक बन सकेगा।[१]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सं. ग्र.------बर्ट, सी : दि यंग डेलिंक्वेंट; क्वैरेसियस : जुवेनाइल डेलिंक्वेंसी ऐंड दि स्कूल ; हूटन : क्राइम ऐंड दि मैन; इस्लर : सर्चलाइट्स आन्‌ डेलिक्वेंसी (संकलन) ; हीली ऐंड ब्रानर : न्यू लाइट्स आन डेलिंक्वेंसी ऐंड इट्स ट्रीटमेंट; ्थ्रौशर : जुवेनाइल डेलिंक्वेंसी ऐंड क्राइम प्रिवेंशन (लेख) ; आइकहार्न : दि वेवर्ड यूथ ; स्मिथ, एच0 : अवर टाउंस : ए क्लोज अप; शा ऐंड मैकी : जुवेनाइल डेलिंक्वेंसी ऐंड अरबन एरियाज़; यंग : सोशल ट्रीटमेंट इन प्रोबेशन ऐंड डेलिंक्वेंसी; गोरिंग : दि इंग्लिश कन्‌विक्ट; लांब्रासा : क्राइम्‌, इट्स काज़ेज ऐंड रेमेडीज़; अपराध संबंधी भारत सरकार की रिपोर्टें; किशोरसदन, बरेली की रिपोर्टें।