कोकेन
कोकेन
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3 |
पृष्ठ संख्या | 152 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पांडेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1976 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | विनोदप्रसाद |
कोकेन कोका नामक झाड़ से प्राप्त होनेवाला एक क्षार तत्व (ऐलकालायाड) लोग इसका प्रयोग अफीम की भाँति लत के रूप में करते हैं। इसके खाने से मस्तिष्क उद्दीप्त होता है। थोड़ी मात्रा में खाने से मन प्रसन्न होता है और कुछ समय तक मानसिक तथा शारीरिक शक्ति में वृद्धि जान पड़ती है; साथ ही धर्माधर्म की पहचान बंद हो जाती है। बाद में शिथिलता और मानसिक खिन्नता का अनुभव होता है। जब तक कोकेन का प्रभाव रहता है, भूख और थकान कम हो जाती है। अधिक मात्रा में कोकेन विष है। इससे अचैतन्य (narcasis) और वेदनास्नायुओं का संस्तंभ (paralysis) हो जाता है। हाथ पैर चलाने वाली स्नायुएँ भी बहुत कुछ शिथिल हो जाती है। मात्रा कुछ कम रहने से तीव्र मानसिक उत्तेजना, बेचैनी, मिचली, दुर्बलता, पीलापन, पसीना आदि लक्षण उत्पन्न होते हैं। अधिक मात्रा में शीघ्रश्वसन, मंद हृदयगति, सिर की पीड़ा सूखा कंठ आदि क्षण होते हैं। आँख की पुतलियाँ बड़ी हो जाती है और हाथ पैर में ऐंठन उत्पन्न होती हैं। अधिक मात्रा में प्रयोग से हृदयगति रुक जाती है। कोकेन का उपचार यह है कि आमाशय तुरंत खाली कर दिया जाए और तनु ऐमोनिया, काफी या थोड़ी मदिरा पीने को दी जाए। यदि आपेक्ष (convulsion) और हो तो डाक्टर ईथर या क्लोरोफार्म सूंघने को देते हैं। इसकी थोड़ी सी मात्रा भी कुछ लोगों पर तीव्र विष का प्रभाव उत्पन्न करती है।
कोकेन का उपयोग कभी कभी अफीम की लत छुड़ाने के लिये किया जाता है; फलस्वरूप एक लत के स्थान पर दूसरी विनाशकरी लत लग जाती है; लोगों को कोकेन की लत जुकाम सर्दी इत्यादि दूर करने के लिये सुंघनी के रूप की प्रयोग की जानेवाली कतिपय बाजारू ओषधियों के उपयोग से लग जाती है जिनमें कोकेन मिला रहता है। इनसे जो अस्थायी लाभ प्रतीत होता है उससे उत्साहित होकर लोग इनका उपयोग निरंतर करने लग जाते है और कुछ दिनों पश्चात् अपने को इस घातक द्रव्य की दासता में फँसा पाते हैं। जिन्हें इस प्रकार कोकेन की लत लग जाती है उसकी नाक की उपास्थि गल जाती है, शरीर के मांस तथा शक्ति का निरंतर ह्रास होता जाता है और हाथ पैर का सदा काँपना, अनिद्रा, सिरदर्द तथा चक्कर आना इत्यादि व्याधियाँ घेर लेती हैं। दृष्टिभ्रम, मतिभ्रम और यहाँ तक कि प्रचंड क्रोधयुक्त उन्माद इत्यादि साधारणत: होने लगते हैं और पूर्ण मानसिक तथा नैतिक पतन हो जाता है। कोकेन की लतवाले के लिये नियम या उत्तरदायित्व का कोई बंधन नहीं रह जाता। कोकेन की लालसा मिटाने के लिये वह मिथ्याचरण, चोरी या अन्य गहित दुष्कर्म करने से नहीं हिचकता। कर्त्तव्य या समाज का बंधन उसको इन कामों से नहीं रोक पाता। इसलिये कोकेन की लत के विनाशकारी प्रभावों से जनता की रक्षा करने के उद्देश्य से लगभग सभी देशों के शासनों ने कड़े काननू बनाए है। भारत में भी इसके उपयोग तथा बिक्री पर कठोर प्रतिबंध है।
कोका की पत्तियों में चार प्रकार के ऐलकालायड होते हैं। कोकेन निकालने के लिये पत्तियों को कुचलकर सल्फ्यूरिक अम्ल मिले पानी में चार दिन तक भिगो दिया जाता है। इस मिश्रण में सोडे का विलयन डालने पर कोकेन पृथक् हो जाता है और विलयन में अन्य ऐलकालयड रह जाते हैं। उन्हें निकालने के लिये विलयन को हाइड्रोक्लोरिक अम्ल के साथ उबाला जाता है और तब विलयन को पानी में डाल दिया जाता है। इससे ट्रक्सिलिक (Truxillie) अम्ल अलग जो जाता है, जिसे छानकर अलग कर दिया जाता है। विलयन को गाढ़ा करने पर एकगोनिन हाइड्रोक्लोराइड (Ecgonine hydrochloride) मणिभ के रूप में अलग हो जाता है। इसपर बेनजोइक अम्ल तथा मेथिल ऐलकोहल की क्रिया से कोकेन प्राप्त होता है। फिर कोकेन को स्वच्छ किया जाता है। इस प्रकार बाजारों में बिकनेवाला अधिकांश कोकेन रसायन द्वारा बनाई हुई वस्तु है।
ऐलकोहल के विलयन से कोकेन मणिभ के रूप में निकलता है। ये मणिभ चार या छह पहल के एकतन समपार्श्व (Monoclinic prism) होते हैं। इनका गलनांक 98 सें. है। कोकेन ऐलकोहल, ईथर, बेंजीन और हलके पेट्रोलियम में विलेय है, परंतु ठंडे पानी में बहुत कम घुलता है। कोकेन वामावर्ती (laevorotatory) है। इसका विलयन लिटमस के प्रति क्षार है, स्वाद कुछ कड़वा होता है और इससे जिहवा संवेदनारहित हो जाती है।
कोकेन का रासायनिक सूत्र C17 H2 NO4 तथा संरचना सूत्र निम्नलिखित है : चित्र:Cocaine.gif
कोकेन के पृथक् करने की विधि का पता 1860 ई. में लगा था उसके बाद उसके संवेदनाहारी गुण का पता लगा और उसका उपयोग 1884 ई. के बाद संवेदनाहारी के रूप में लघु शल्यक्रिया यथा-आँखों और दातों की शल्यक्रिया में किया जाने लगा। इसका विलयन लगाने से त्वचा की पीड़ा अनुभव करने की शक्ति जाती रहती है ; आँख में लगाने से वहाँ की संवेदनाशक्ति मिट जाती है; नाक के भीतर लगाने से घ्रााणशक्ति नष्ट हो जाती है। संवेदनाहरण के लियेे 3 से 10 प्रतिशत के विलयन का उपयोग किया जाता है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ