कोप्त

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लेख सूचना
कोप्त
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3
पृष्ठ संख्या 159
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पांडेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1976 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक पद्मा उपाध्याय

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कोप्त मिस्त्र निवासी प्राचीन ईसाई जाति एवं प्राचीन मिस्त्रवासियों के अवशिष्ट विशुद्ध प्रतिनिधि। 14वीं शताब्दी में यूरोपीय भाषाओं के संपर्क के कारण अरबी शब्द कुब्त ने कोप्त का रूप धारण किया। कुब्त स्वयं उस यूनानी शब्द से बना है जिसका अर्थ है मिस्र का रहनेवाला। 7वीं शताब्दी में जब उमर ने मुहम्मद के नए धर्म के प्रसार के लिये मिस्र की विजय की, उस समय वहाँ की संपूर्ण प्रजा ईसाई धर्म को मानती थी तथा परस्पर विरोधी दो संप्रदायों-मोनोफाइसीतिस एवं मेल्काइतिस-में बँटी हुई थी। मेल्काइतिस संप्रदाय रूढ़िवादी राजधर्म का अनुयायी था जो अधिकतर विदेशी जातियों के मिश्रण से बना था। परंतु प्रजा का एक बड़ा भाग मोनोफाइसीतिस संप्रदाय को मानता था और अपने आपको मिस्र की वास्तविक संतान कहता था। इनकी कोई राजनीतिक आकांक्षा नहीं थी। यह कहा जाता है कि कोप्तों ने मुसलमानों को देश पर आक्रमण करने के हेतु आमंत्रित किया और उनकी सहायता की ताकि वे पूर्वी रोमन साम्राज्य के राजधर्म के जुए से मुक्त हो सकें। यद्यपि यह बात विश्वसनीय नहीं है तथापि संदेह नहीं कि ईसाइयों के धार्मिक झगड़ों ने अरबों का कार्य सुगम बना दिया। शासन के इस परिवर्तन में मोनोफाइसीतिस संप्रदाय लाभान्वित रहा। हजरत मुहम्मद ने स्वयं अपनी मृत्यु से पूर्व इन कोप्तों के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त की थी। रोमन सेना के नष्ट हो जाने पर या उनके मिस्र छोड़कर चले जाने पर इन्होंने कहीं कहीं अरबों का विरोध किया, परंतु सन्‌ 646 ई. में जब रोमनों ने सिकंदरिया को फिर जीत लिया तब कोप्तों ने इन ईसाई आक्रमणकारियों के विरूद्ध मुसलमानों की सहायता की। कुछ कोप्तों ने इस्लाम धर्म अंगीकार कर लिया परंतु अधिकांश विजयी अरबों की सुरक्षा में स्वस्थ एवं संपुष्ट ईसाई जाति के ही अंग बने रहे। मुसलमानों तथा इन ईसाइयों में इतना स्पष्ट अंतर था कि जब ईसाई मुसलमान बन जाता था तब वह कोप्त अथवा मिस्री नहीं रह जाता था; व्यवहारत: उसकी राष्ट्रीयता ही बदल जाती थी।

मिस्र में ईसाई धर्म का प्रारंभ अंधकारपूर्ण है। देशवासियों में इस धर्म का अस्तित्व तीसरी शताब्दी में दृष्टिगोचर होता है, जब देसियाई अत्याचार के समय कुछ मिस्री शहीदों के नाम सम्मुख आते है। संत एंथनी (270) तथा 4थी शताब्दी में मठवाद का प्रवर्तक पैकोमियस कोप्त था। नैतिकता पर आधरित एवं मृत्युपरांत जीवन के स्पष्ट सिद्धांत के आधार पर अवलंबित धर्म ही मिस्रियों के अनुकूल था। अत: जहाँ समाज में निम्न वर्ग की जनता ने बड़े उत्साह से ईसाई धर्म को अंगीकार किया, वहाँ सिकंदरिया की समृद्ध जनता दार्शनिक प्रवृतियों में उलझी रही तथा धार्मिक उत्साह के कारण अपनी ईसाई किसान प्रजा को अत्याचार से पीड़ित करती रही। उस समय मिस्र का चारों ओर से शोषण हो रहा था, देश का उत्तरी भाग न्यूबिया एवं मरूभूमि की जनता द्वारा लूटा जा रहा था। इधर साम्राज्यवादी सरकार इतनी शक्ति हीन हो रही थी कि वह अपनी ईसाई प्रजा की ओर से आवाज उठाने में असमर्थ थी। ऐसी परिस्थिति में मठ सबसे सुरक्षित आश्रय बने हुए थे जो इन शक्तिशली सामंतों तथा बर्बर आक्रमणकारियों का निरंतर विरोध करते रहे। जब राष्ट्रीय चर्च के संस्थापक शिनांते ने इन्हें रक्षा के हेतु आमंत्रित किया तब उन्होंने अत्याचारियों का खुलकर विरोध किया, यहाँ तक कि इस विरोध के वे केंद्र बन गए। 5वीं शताब्दी तक इन ईसाइयों की स्थिति इतनी शक्तिशाली हो गई कि सामंतों का ये निरीह एवं दया का पात्र समझने लगे।

कोप्त जाति की अध्यात्मवाद में कोई विशेष रूचि नहीं थी। जब कोई विवाद उठ खड़ा होता तो ये सरल सिद्धांत को स्वीकार कर लेते। जब सन्‌ 451 में सिकंदरिया का कुलपति केलसिदॉन की सभा द्वारा पदच्युत कर दिया गया, तब एक भीषण धर्मभेद उत्पन्न हो गया तथा मोनोफाइसीतिस एवं मेल्काइतिस दोनों संप्रदायों में जमकर संघर्ष हुआ। इसके पश्चात्‌ इन दोनों प्रतिद्वंद्वी संप्रदायों के दो कुलपति चुने जाने लगे तथा कोप्त मेल्काइतिस के शिकार हो गए। 638 में ईरानियों के असफल आक्रमण के पश्चात्‌ हेराक्लियस ने इन दोनों संप्रदायों को एक करने की चेष्टा की, परंतु जब वह इस प्रयास में असफल हुआ तो वह मोनोफाइसीतिस संप्रदाय को नृशंसतापूर्वक उस समय तक दबाए रहा जब तक कि मिस्र उमर द्वारा मुस्लिम राज्य में मिला नहीं लिया गया। इस अत्याचार काल में बहुत से कोप्त मेल्काइतिस संप्रदाय की ओर खिंच गए। परंतु तब पे कुस्तुंतुनिया के सम्राट् के पक्षपाती होने के कारण उत्पीड़ित किए जाने लगे और मिस्र से इनका प्राय: लोप ही हो गया।

उमर के उदार शासन के कुछ वर्षोपरांत मिस्री जनता कर एवं धर्म के अत्याचार से पीड़ित होने लगी। कुछ समझदार ईसाइयों ने इस्लाम धर्म के सरल एवं उपयोगी सिद्धांतों को मान लिया; कुछ ने भौतिक लाभ से प्रभावित होकर उसे अंगीकार किया।

कोप्त अद्भुत लिपिक एवं गणितज्ञ थे, अत: अरब शासन में भी वे इन पदों पर बने रहे, परंतु उनकी यह योग्यता कभी कभी इनकी विपत्ति का कारण बन जाती थी; आरंभ में तो यह विपत्ति की प्रमुख स्रोत ही थी। मुसलमान इन ईसाइयों को अपने से ऊँचे पदों पर सह नहीं पाते थे और इनके विरूद्ध जनता को भड़काया करते थे। कोप्त जाति का निम्नवर्ग तो सदा ही उत्पीड़ित रहा। ईसाइयों को इस्लाम स्वीकार कर लेने के लिये अनेक प्रकार के लालच दिए जाते थे। उधर अरबों को भी मिस्र में बस जाने के लिये उस समय तक प्रेरित किया जाता रहा जब तक अरबों की संख्या कोप्तो से अधिक न हो गई।

इस जाति को मुसलमानों के अत्याचार का शिकार होना पड़ा। मठ के साधुओं को एक प्रकार का कर देना पड़ता था तथा उनका नाम एवं संख्या उनके शरीर पर दागी जाती थी। गृहस्थों पर भारी कर लगाया गया था। 722 ई. में गिरजाघर भी विध्वंस कर दिए गए तथा तस्वीरें और क्रास आदि नष्ट कर दिए गए। 9वीं शताब्दी के मध्य उन्हें अपमानजनक वस्त्र पहनने पड़े। 997 ई. में हाकिम के शासनकाल में उन्हें भारी क्रूस पहनना पड़ा एवं काली पगड़ी बाँधनी पड़ी। यही उनके ईसाई होने की पहचान थी। 12वीं एवं 14वीं शतााब्दियों में भी उन्हें ऐसे ही अपमानजनक नियमों का पालन करना पड़ा। अत: बहुत से कोप्तो ने इन नियमों के पालन के बजाय धर्मपरिवर्तन को अधिक उचित समझा और जब 14 वीं शताब्दी के मध्य काहिरा में इन दोनों धर्मावलंबियों के बीच धार्मिक युद्ध आरंभ हुआ तब अधिकांश कोप्ती धर्म में परिवर्तन का कहीं उल्लेख नहीं मिलता, अंतर्जातीय विवाह से भी ये बचते रहे, अत: इस जाति ने अरब आक्रमण के पूर्व की अपनी जातीय पवित्रता को बनाए रखा।

विदेशी प्रतिद्वंद्विता से पूर्व देश के उद्योग एवं व्यापार में भी कोप्त जाति का विशिष्ट स्थान था। यातायात के साधनों के विस्तार के साथ विदेशियों का आगमन हुआ तथा इतालवी, यूनानी, आरमेनियाई आदि शिल्पी अपने उत्तम साधनों से इस जाति के आगे निकल गए। इसके अतिरिक्त यूरोप के सस्ते माल के आयात के कारण देशी उद्योग नष्ट हो गए। अंग्रेजों के आगमन के साथ साथ इनके हाथों से वे पद भी निकल गए जो मुसलमानों ने इन्हें दे रखे थे। फिर भी कुछ कोप्तों ने राज्य के ऊँचे पदों का अधिकार पाया। 1908 में एक कोप्त प्रधान मंत्री तक बन गया। कृषि एवं अर्थ विभाग में भी कुछ कोप्तों ने अपना पुराना स्थान बनाये रखा। अब भी उत्तरी मिस्र में बहुत से कोप्त धनी जमींदार एवं कृषक हैं।

मिस्र में अब भी बहुत से संप्रदाय हैं, परंतु प्राचीन समय के अनुपात में उनकी संख्या बहुत कम है। 616 ई. में सिकंदरिया के पास ईरानियों द्वारा छह सौ मठों के विध्वंस का उल्लेख किया गया है। 12 वीं शताब्दी में अबूसालिह द्वारा दी हुई गिरजाघरों की संख्या आश्चर्यजनक है। ये प्राचीन मठ चट्टानों को का काटकर बनाए गए थे। कोंस्तांतीन तथा जुस्तीनियन के युग में बड़े बड़े शोभनीय प्रार्थनागृह बने, जैसे सिकंदरिया का संत मार्क का गिरजाघर तथा उत्तरी मिस्र का लाल मठ। ये कोप्ती वास्तुकला के नमूने हैं, वैसे बीजांतीनी पद्धति की गुंबदवाली छतों का भी प्रचलन था। अब मिस्र में एक भी गिरजाघर ऐसा शेष नहीं रहा जिसमें कांच की उस प्राचीन पच्चीकारी का दर्शन हो जिससे प्रार्थनागृह सुसज्जित रहा करते थे। परंतु कोप्ती वास्तुविशारदों की गुंबददार छत अब भी प्रचलित है। कोप्ती प्रार्थना अध्ययन का विशेष है। 7 वीं शताब्दी के पश्चात्‌ ये गिरजाघर एकाांतिक बने रहे तथा दूसरे संप्रदायों के परिवर्तन से सर्वथा अछूते रहे। परिणामत: ईसाई धर्म का यह प्राचीनतम रूप रहा, परंतु अब शताब्दियों की मुस्लिम दासता न इसे बहुत क्षीण बना दिया है। अंग्रेजो के संपर्क से इस जाति की धार्मिक एवं सामाजिक रीतियों में भी बहुत परिवर्तन आ गया है।[१]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सं. ग्रं. -ए. जे. बटलर: द एंशेंट कोप्टिक चर्चेज ऑव ईजिप्ट; आर. एम. वूली: कोप्टिक आफ़िसेज।