कोषाध्यक्ष कोष

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लेख सूचना
कोषाध्यक्ष कोष
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3
पृष्ठ संख्या 190
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पांडेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1976 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक मंगलनाथ सिंह

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कोषाध्यक्ष कोष आधुनिक विचारकों की भाँति प्राचीन भारत के राज्यशास्त्रियों ने भी राज्य के लिये कोष (धन, खजाना) का बड़ा महत्व माना है : कोष मूलो ही राजेति प्रवाद: सार्वलौकिक (काम. 21, 33)-संक्षेप में इसी महत्व की अभिव्यक्ति करता है कर आदि के रूप में राज्य को जो कुछ भी मिलता उसे कोष में संचित किया जाता था। उसी के लिये विशेष राज्य का सब कारोबार चलता था। कोष की रक्षा के लिये विशेष प्रबंध करने की सलाह सभी राज्यशास्त्री देते हैं। मनु. (7, 65) राजा को स्वयं कोष की देखरेख करने का आदेश देती है।

कोष के प्रधान अधिकारी का पदनाम कोषाध्यक्ष था। यद्यपि कोषाध्यक्ष का वर्णन स्पष्ट रूप में अर्थशास्त्र के अधि. 2, प्रक. 29 में ही आया है तथापि इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि इस प्रकार का पद मौर्यों से पहले और बाद में भी था। ब्राह्मण ग्रंथों में (शत. 5,1,1,12, मिला. तैत्ति. ब्रा. 1,7,3,2 (पूना संस्क0) 1,पृ. 308-10,तैत्ति. संहि. 1,8,9, (मैसूर संस्क.) 1, पृष्ठ 146-49) रत्नियों (राज्य के प्रधान अधिकारियों) में संग्रहीता नामक पदाधिकारी का भी उल्लेख आया है। ऐसा प्रतीत होता है कि ब्राह्मण काल को कोषाध्यक्ष यही था। राजा अपने अभिषेक के समय इसे उसके घर जाकर रत्नहवि देता था, इसी से इस पद की महत्ता स्पष्ट हो जाती है। बाद में इसी संगृहीता का परिवर्तित पदनाम संनिधाता था। कौटिल्य (अधि. 2, प्रक. 23) राजकीय वस्तुओं का संचय करनेवाले विभाग के सर्वोच्च अधिकारी के रूप में इसका उल्लेख करता है। ऐसा प्रतीत होता है कि कोषाध्यक्ष इसी संनिधाता के अंतर्गत कोष विभाग, का मुख्य अधिकारी था। इसका कार्य कोष में इकट्ठे किए जानेवाले रत्न (मणि, मोती आदि), सार (चंदन, अगरु आदि) फल्गु (पट, दुकूल आदि वस्र) और कुप्य (धातु, चमड़ा आदि) की उनके विशेषज्ञों से जाँच करा कर उनकी उपस्थिति में कोष में रखना और उनकी रक्षा का प्रबंध करना था। उसे इन पदार्थों की बारीकियों का भी पारखी होने की आवश्यकता थी। कौटिल्य का अर्थशास्त्र इतना प्रामाणिक ग्रंथ बन गया कि बाद में राजा अर्थशास्त्र के अध्यक्षप्रचार अधिकरण के आधार पर ही विभागोंध्यक्षों की नियुक्तियाँ करने लगे। परवर्ती स्मृतियों में (मनु. 7.81, याज्ञ. 1.322) तो इन विभागाध्यक्षों का अलग अलग नाम गिनाने की भी आवश्यकता नहीं समझी जाती थी। अभिलेखों से भी यही बात प्रकट होती है। भोजवर्मदेव के बेलवा ताम्रपत्र (ए0 इं., जिल्द 12, पृ. 4.) और विजयसेन के बैकरपुर के दानपत्र (ए. इं., जिल्द 15, पृ0 283) में अन्यांश सकल राजपादोपजीबिनोध्यक्ष प्रचारोक्ताप्‌ इहाकीत्तितान्‌- के अन्यांश्च सकल राजपादोपजीविनो में कोषाध्यक्ष भी अवश्य ही रहा होगा।

कोषाध्यक्ष के अतिरिक्त कभी कभी इस पदाधिकारी का दूसरा पदनाम गंजधिकारिन्‌ (कश्मीर, 10वीं शतीं) और गंजवर (मथुरा के उत्तरी क्षत्रप) भी मिलता है। आज भी कश्मीरी ब्राह्मणों की एक शाखा की उपाधि गंजू है। इनके पूर्वज संभवत: यही गंजाधिकारिन्‌ या गंजवर रहे होंगे।[१]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सं. ग्रं.-का. प्र. जायसवाल : हिंदू राजतंत्र, ना. प्र. स.; उ. ना. घोषाल : कंट्रिब्यूशंस टु दि हिस्ट्री ऑफ दि हिंदू रेवेन्यू सिस्टम्‌, कलकत्ता विश्वविद्यालय, 1929; कौटिलीय अर्थशास्त्र।