क्रुसीफ़ेरी
क्रुसीफ़ेरी
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3 |
पृष्ठ संख्या | 215 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पांडेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1976 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | बच्चन सिंह |
क्रूसीफ़ेरी द्विदल वनस्पतियों का एक जगद्व्यापी कुल। इसके प्रतिनिधि विशेषत: उत्तरी समशीतोष्ण एवं भूमध्यसागरीय भूभागों में अधिक पाए जाते हैं। इसमें लगभग 1,900 उपजातियों की तथा प्राय: सभी क्षुप (कोई कोई गुल्मक) श्रेणी की वनस्पतियाँ हैं। इनमें कुछ वर्षायु, किंतु अधिकांश शाकीय, बहुवर्षायु होती हैं। ये प्रति वर्ष नवीन होकर उत्पन्न होती रहती हैं। किसी में खाद्य पदार्थों के संचय के कारण मूल कांड एवं पत्रादि स्थूल और मांसल होते हैं। यह कुल अहिफेन कुल (Papave raceae) और करीर कुल (Capparidaceae) से कुछ मिलता जुलता हैं, परंतु निम्नांकित लक्षणों से युक्त इसका वैशिष्ट्य स्पष्ट होता है।
पत्तियाँ प्राय: एकांतर, (alternate) अनुपपत्र और एककोशा, सशाख, या नि:शाख एवं रोमों से युक्त होती हैं। पुष्पमंजरी एकवर्ध्यक्ष (racene) अथवा समशिख (corymb) होती है और निपत्र तथा निपत्रक प्राय: सर्वदा अनुपस्थित पाए जाते हैं। पुष्प उभयलिंगी, नियताकार और अधोजाय (hypogynous) होते हैं, जिनका पुष्पसूत्र K+ 2C8 A2+8G(2) होता है। यहाँ के K2= कैलिक्स (Calyx, बाह्यदल पुंज) C = कौरोला (Corolla, दलपुंज); A=एंड्रोसियम (Androecium पुमंग) G= गाइनासियम (Gynacium जायांग)।
बाह्य तलपुंज (Calyx) में चार स्वतंत्र बाह्यदल दो चक्रों अर्थात् दो पार्श्वीय धरातल के भीतरी चक्रों, में स्थित रहते हैं। दलपुंज (corolla) में चार स्वतंत्र दल एक ही चक्र में और विकर्ण समतलों (diagonal planes) में निकलते हैं। ये दी कलाई के आकार के, अर्थात् नीचे पतले और ऊपर चौड़े, तथा समकोण पर मुड़कर बाहर की ओर फैले रहते हैं। इनकी इस स्वस्तिक आकृति के कारण ही इस कुल का नाम क्रूसीफ़ेरी पड़ा है। पुमंग (Andrcecium) छह पुंकसेरों का होता है। इसे चतुर्दीर्घक (tetradynamous) कहते हैं, क्योंकि पुंकसेरों में दो छोटे, पार्श्वीय समतल और बाहरी चक्र में, तथा चार बड़े मध्य समतल और भीतरी चक्र में,
रहते हैं। इनके परागकोश (anthers) अंतर्मुख (introrse) होते हैं। जयांग (Gynaecium) मध्य धरातल में परस्पर संयुक्त दो स्त्री केसरों का होता हैं। अंडाशय द्विगह्वर, परंतु जरायुन्यास (placentation) भित्तिलग्न होता हैं। दोनों ओर के जरायु भातर की ओर क्रमश: बढ़कर एक पतला परदा बना लेते हैं, जिसे रेप्लम (Replum, कूटपटी) कहते है। अंत्राशय में बीजांड (ovules) अधोभाव (anatropous) अथवा वक्रावत (campylotropous) होते हैं। दूसरे प्रकार के बीजांडों से बने हुए बीजों में भ्रूण और भ्रूणकोश इस तरह वक्रित होते हैं कि मूलांकर (radicle) बीज के एक भाग में और बीजपत्र (Cotyledons) दूसरे भागों में रहते हैं। दोनों जरायुजसंधियों के ठीक ऊपर दो वर्तिकाग्र (stigma) और इनके नीचे छोटी वर्तिका (style) होती है।
परागण प्राय: कीटों द्वारा होता है। पुंकेसरों के मूल के पास मधुकोश होते हैं, जिनसे मधु स्रवित होकर पार्श्वीय बाह्यदलों के पुटाकार (saccate) आधार भागों में एकत्र होता है। पृथक्पक्वता (dichogamy) आदि अनुकूल अवस्थाओं के कारण कीटादिकों द्वारा अपर परागण होता रहता है, परंतू सभी में अंतत: स्वयं परागण भी अनिवार्य रूप से होता है।
फल शिंबितुल्य (फली समान) और स्फोटी (dehiscent) होते हैं मोटाई अथवा चौड़ाई के लगभग तीन गुना या अधिक लंबा होने पर इन्हें सिलिक्वा (Siliqua) और छोटा होने पर सिलिकुला (Silicula) कहते हैं। पकने और सूखने पर फलावरण (pericarsp) दोनों संधियों पर नीचे से फटता हुआ दो भागों में पृथक् हो जाता है और दोनों जरायु, उनसे संबद्ध बीज और बीज की अंतर्भिति सब एक साथ बीच में रह जाती है। फल बेलनाकार अथवा चिपटा, कभी बीजों के बीच बीच में संकुचित, कभी अस्फोटी एवं एकबीज और कभी मूँगफली की तरह भौमिक भी होता है। चिपटा होने पर फल का चिपिट पार्श्व अंतर्भिति के समांतर, या उससे समकोण पर, होता है। बीज अभ्रूणपोषी (nonendospermic) और बीजकवच (tasta) प्राय: क्लेद (muscilage) युक्त होता है, जिससे भीगने पर ये लसलसे हो जाते हैं। फल, बीज, गर्भ एवं गर्भकोश आदि के उपर्युक्त लक्षण कुलांतर्गत (genera) वंशों के पृथक्करण में बहुत उपयोगी होते हैं।
उपयोगिता की दृष्टि से इस कुल की समस्त वनस्पतियाँ उल्लेखनीय हैं। इनमें सरसों, राई, मूली, तीनों प्रकार की गोभी और सलजम खाद्यापयोगी, चनसुर, खाकसीर, तोदरी, स्कर्वी घास और हॉर्स रैडिश चिकित्सापयोगी तथा वाल फ्लावर, मैथिओला, नैस्टर्शियम तथा कैथडीटपट शोभनार्थ उद्योनोपयोगी होते हैं। इस कुल की वनस्पतियों में प्राय: गंधक के यौगिक पाए जाते हैं। इनके कारण अवस्थाविशेष में दुर्गंध उत्पन्न होती है। स्कर्वी आदि कुछ रोगों में वनस्पतियों उपयोगी मानी जाती हैं।
टीका टिप्पणी और संदर्भ