क्षणिकवाद
क्षणिकवाद
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3 |
पृष्ठ संख्या | 258 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पांडेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1976 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | राम चंद्र पाण्डेय |
क्षणिकवाद बुद्ध के मूलभूत उपदेशों में ‘सर्वं दु:खम् सर्वमनित्यम् और सर्वमनात्मन्’ का विशिष्ट स्थान है। बौद्ध धर्म और दर्शन का सारा विस्तार इन्हीं तीन सूत्रों के आधार पर हुआ है। संसार दु:खमय है क्योंकि वह अनित्य है और उसकी अनित्यता उसकी निस्सारता के कारण है। अनात्मवाद के अनुसार संसार में नित्य (आत्मा जैसी) वस्तु का एकदम अभाव है। यदि औपनिषदिक आत्मा नित्य होती तो या तो संसार की उत्पत्ति ही न होती या, फिर इससे छुटकारा ही न मिलता। यदि आत्मा स्वभावत: नित्य, शुद्ध बुद्ध, अद्वितीय और मुक्त हो तो उसमें अज्ञान की उत्पत्ति कैसे हो सकती है? बिना अज्ञान की उत्पत्ति के संसार कैसे हो सकता है? यदि थोड़ी देर के लिये मान लें कि आत्मा किसी कारणवश अज्ञान के बंधन में बँध जाती है और संसार का निर्माण होने लगता है, तो फिर आत्मा स्वभावत: दूषित हो जायगी। इस दोष से आत्मा का छूटकारा तभी संभव है जब आत्मा का नाश हो। इसी प्रकार बुद्ध ने मूलतत्व का भी खंडन किया और कहा कि उत्पत्ति का अर्थ है परिवर्तन और परिवर्तन एक रूप को त्याग कर दूसरे रूप का ग्रहण करना कहलाता है। नित्य तत्व में परिवर्तन संभव नहीं है क्योंकि परिवर्तन नित्यता का विरोधी है। अतएव उत्पत्ति और विनाशशील विश्व के पीछे किसी नित्य सत्ता का होना बुद्ध को स्वीकृत न हुआ। अनात्मवाद के विचार से सहमत होते ही हमें कहना होगा कि विश्व उत्पन्न और नष्ट होने वाली अनित्य सत्ता है और इसी लिये यह रागादि दोषों से युक्त लोगों के लिए दु:खमय है।
अनित्यता का अर्थ है अल्पकालिक स्थिति। मनुष्य की स्थिति यदि सौ वर्ष की मान ले तो मकान तो 100 वर्षों से भी अधिक समय तक चलता रहता है, परंतु एक समय ऐसा आता है जब सभी नष्ट हो जाते हैं। उत्पत्ति का अर्थ है विनाश। जो उत्पन्न न होगा उसका विनाश भी नहीं होगा, परंतु उत्पत्ति से परे संसार में कुछ भी नहीं है। बुद्ध ने अनित्यता का इसी अर्थ में प्रयोग किया, परंतु विचार करने पर मालूम होगा कि वस्तु का नाश आकस्मिक नहीं है। जरा के उदाहरण से स्पष्ट है कि उत्पत्ति से लेकर नाश तक के बीच में एक क्रम है और हर वस्तु को इस क्रम से गुजरना पड़ता है। अत: नाश क्रमिक है। कालसापेक्ष नाश की व्याख्या तभी संभव है जब हम यह मानें कि वस्तु उत्पन्न होते ही प्रतिक्षण परिवर्तित होने लगती है। आरंभ में परिवर्तन का प्रभाव परिलक्षित नहीं होता परंतु समय पाकर युवावस्था, प्रौढ़ावस्था और वृद्धवास्था आती है इससे स्पष्ट है कि वस्तु के भीतर निरंतर परिवर्तन हो रहा है। सभी भावात्मक पदार्थ प्रतिक्षण बदल रहे है। बुद्ध के अनित्यवाद का तार्किक विकास यही क्षणिकवाद अथवा क्षणभंगवाद कहलाता है।
काल का मानव-बुद्धि-गम्य लघुतम अंश क्षण कहलाता है। प्रत्येक वस्तु, चाहे वह आत्मा हो या अन्य कोई पदार्थ, उतने समय के लिये ही रहती है और फिर नष्ट हो जाती है। ग्रीक दार्शनिक हेरेक्लाइतीज कहा करता था कि आदमी एक ही धारा में दुबारा स्नान नहीं कर सकता क्योंकि एक बार स्नान करते ही वह धारा आगे बढ़ जाती है और उसका स्थान दूसरी धारा ले लेती है। अंग्रेज दार्शनिक ह्यूम के अनुसार जब कभी हम अपने भीतर किसी नित्य तत्व को ढूँढते हैं तब हमें कोई विशेष अनुभव, विचार या संवेदन ही मिलता है और ये सभी उत्पन्न होते ही नष्ट हो जाते हैं। बुद्ध के दर्शन में भी इसी गत्यात्मक दर्शन का प्रतिपादन है। सभी तत्व निरंतर स्वभावत: गतिशील हैं, वे अपने आप उत्पन्न और नष्ट होते हैं। यही कारण है कि संसार में नित्यता का दर्शन नहीं होता।
यदि सब क्षणिक है तो एकता का ज्ञान क्यों होता है? एकता के बिना परिवर्तन का ज्ञान असंभव है। हम स्थिर वस्तु के आधार पर ही गति का ज्ञान करते हैं। क्षणिकवाद में ऐसी सत्ता का अभाव है। फिर भी उसके अनुसार एकता का ज्ञान सापेक्षता से होता है। जिस प्रकार विपरीत में जाते समानांतर रथों पर बैठे व्यक्ति दूसरे रथ को अधिक वेग, शाली मानते हैं उसी प्रकार एक व्यक्ति स्वयं परिवर्तित होता हुआ भी, अपने परिवर्तन को भूलकर दूसरे के परिवर्तन को देखता है और उस परिवर्तन की तुलना में अपने को अपरिवर्तित समझता है। इसी प्रकार प्रतिक्षण परिवर्तित वस्तु को ‘यह वही है’ ऐसा समझना भी भ्रम मात्र है। कारण यह है कि बाल, युवा और वृद्ध की तीन अलग अवस्थाएँ हैं। क्या बाल ही युवा है और क्या वह बालक जो युवा था अब वृद्ध हो गया है? वे सभी एक नहीं हैं क्योंकि हम उनमें स्पष्ट भेद देखते हैं, वे भिन्न भी नहीं हैं क्योंकि व्यवहार में हम उन्हें एक मानते है। उनमें भेद तो सत्य है परंतु एकता काल्पनिक है। बहुत से भेद को हम अलग अलग नाम न दे सकने के कारण एक शब्द से ही जानते हैं। अत: भिन्नता में एकता का भान प्रातिभासिक और शाब्दिक है, परमार्थ में क्षण मात्र सत्य है।
एक क्षण स्वयं नष्ट होते ही दूसरे स्वसदृश क्षण को उत्पन्न करता है। एक क्षण में स्थित आत्मा के संस्कार दूसरे क्षण की आत्मा को मिल जाते है, जैसे एक दीपक से दूसरा दीपक जलता है। इसीलिये भेद होते हुए भी स्मृति होती है और व्यक्तित्व की एकता दिखाई देती है। यह कहा जाता है कि क्षणिकवाद को मानने पर आचार के नियमों का लोप हो जाएगा। उदाहरण के लिये, किसी की हत्या करनेवाला व्यक्ति दंड के समय बदल गया है और यह सिद्धांतविरूद्ध बात है कि दूसरे द्वारा किए गए कर्म का फल दूसरे को भोगना पड़े। संतोजषनक समाधान न देते हुए भी क्षणिकवादी कहता है कि व्यवहार दशा में व्यक्ति की एकता तो रहती है अत: वही व्यक्ति दंड पाता है जिसने हत्या की है। परमार्थ दशा में यद्यपि दोनों व्यक्तियों में भेद है तथापि यह भेद व्यक्तित्व के एक सीमित दायरे में ही होता है अत: व्यक्तित्व तो एक है परंतु अवस्था में भेद है। यह आरोप तब सही होता जब एक व्यक्तित्व की सीमा में बद्ध परिवर्तनशील प्राणी हत्या करता और उसके लिए दूसरे व्यक्तित्व की सीमा में बद्ध जीव दंड पाता, परंतु यहाँ व्यक्तित्व वही है क्योंकि उसके सारे संस्कार दंड के समय भी वर्तमान हैं, वह हत्या के समय का स्मरण करता है और उस हत्याकर्म में अपने व्यक्तित्व को लिप्त जानता भी है।
इस क्षणिकवाद का बौद्धों के अतिरिक्त सबने विरोध किया है। यह विरोध केवल इस आधार पर है कि एकता के बिना परिवर्तन संभव नहीं है। यदि व्यक्तित्व के दायरे में जीव को भिन्न मानते हैं तो भी व्यक्तित्व तो कम से कम अपरिवर्तित है। आत्मा और अन्य वस्तुओं में पूर्ण परिवर्तन मानना, उनके अनुसार, संभव नही है। हाँ, कुछ अंश में परिवर्तन माने बिना काम भी नही चल सकता।[१]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सं. ग्रं.नागसेन: मिलिद पञ्हो; बुद्धघोष: विसुद्धि मग्गो; शांतरक्षित और कमलशील: तत्वसंग्रह तथा पंजिका; विश्वनाथ: न्यायसिद्धांत-मुक्तावली; आत्मतत्वविवेक; कुमारिल : श्लोकवार्तिक; वाचस्पति: न्यायवार्तिकतात्पर्यटीक।