क्षयचक्र
क्षयचक्र
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3 |
पृष्ठ संख्या | 263 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पांडेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1976 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | नर्मदेश्वर प्रसाद |
क्षयचक्र समुद्रतल के ऊपर उठने के उपरांत धरातल के किसी भाग पर होने वाली भूम्याकृतियों के क्रमिक परिवर्तन को ही क्षयचक्र (Cycle of Erosion) अथवा भूम्याकृतिचक्र (जियोमार्फिल साइकिल) कहते हैं। भू-भागों की आकृति सदा एक सी नहीं रहती। कालांतर में उनका रूपांतर होता रहता है। उनका क्रमिक विकास नियमबद्ध रहता है। उसमें जीवन चक्र भी चलता रहता है। प्रारंभिक अवस्था के बाद उसके जीवन की किशोरावस्था, प्रोढ़ावस्था एवं वृद्धावस्था पहचानी जाती सकती है। उनका कायाकल्प भी होता है। उनकी आकृतियों में हो रहे इस परिवर्तन का मुख्य कारण क्षयक्रिया ही है, जिससे किसी न किसी में वे सर्वदा प्रभावित होती रहती हैं। इनका व्यापक अध्ययन आज के युग में एक स्वतंत्र विषय भूम्याकृतिशास्त्र (जियोमॉर्फोलॉजी) की संज्ञा दी जा सकती है। इस विषय के गहन अध्ययन एवं मौलिक शोध कार्य के लिये अमरीकी वैज्ञानिक डब्लू. एम. डेविस तथा जर्मन वैज्ञानिक वाल्थर पैंक के नाम उल्लेखनीय हैं। डेविस इस शास्त्र की जटिल समस्याओं की गुत्थियों को सुलझाने में अग्रगण्य माने जाते हैं और पेंक उनके कुछ सिद्धांतों के कटु आलोचक एवं स्वतंत्र विचारक। आज भी लोग उन दोनों वैज्ञानिकों की देन की सराहना करते रहते हैं और उनके पांडित्य का लोहा मानते हैं।
भूम्याकृति में होने वाले परिवर्तनों की परंपरा तथा परिमाण मुख्यत तीन बातों पर निर्भर है : भूभाग की संरचना, क्षयक्रिया की रीति एवं उस विशेष भूभाग के जीवनचक्र की अवस्था। विभिन्न भूभागों पर क्षयक्रिया की जो रीतियाँ कार्यरत है उनका उदाहरण लेकर भूम्याकृति में अवस्थानुसार होने वाले क्रमिक परिवर्तनों का अध्ययन किया जा सकता है।
आर्द्र जलवायु वाले भूभाग पर क्षयकार्य मुख्यत नदियों (जलप्रवाहों) के द्वारा होता है, अत ऐसे प्रांत में क्षयचक्र को नदीकृत (fluvian) क्षयचक्र कहते हैं। धरातल के अधिकांश भाग पर मुख्यत नदीकृत क्षयचक्र होने के कारण इसे सामान्य क्षयचक्र (Normal cycle of erosion) भी कहते है। किसी नवीन धरातल के समुद्रतल से ऊपर उठते ही उसपर ऋतुक्षरण (weathering) का प्रहार आरंभ होता है। वर्षा का जल उसकी ढाल पर प्रवाहित होने लगता है। प्रारंभिक अवस्था में अपेक्षाकृत अधिक जलप्रवाह वाले स्थान पर प्राकृतिक नालियों (gullies) का विकास होता है। तत्पश्चात् कुछ बड़ी और बलवती नालियाँ नदियों का रूप धारण कर घाटियों का निर्माण आरंभ करती हैं और वह भूभाग किशोरावस्था को प्राप्त होता है। क्रमश सहायक नदियों का विकास होता है और नदियाँ अपनी घाटियों का लंबवत् अपक्षरण करती हैं। उस भूभाग के प्रारंभिक तल का क्षेत्र घटते घटते टेड़े मेड़े जलविभाजक के रूप में परिणित हो जाता है। जलविभाजक और घाटी का तलांतर (relative relief) बढ़ने लगता है। जलविभाजक, ढाल के विकास के कारण, धार सदृश प्रतीत होते हैं और उस भूभाग की प्रौढ़ावस्था प्रारंभ होती है। इस अवस्था में विभाजकों की ऊँचाई ऋतुक्षरण द्वारा घटती है और इसके परिणामस्वरूप तलांतर में भी कमी होती है। फिर घाटियाँ क्रमश: चौड़ी होती हैं, ढ़ाल मंद होते हैं, विभाजक नींचे एवं खंड़ित होते हैं और आसन्न घाटियों का बीच बीच में प्राकृतिक मार्गों द्वारा मिलन होता है। अंत में वृद्धावस्था आने पर प्रयासमभूमि (peneplain) का विकास होता है, जिस पर कहीं कहीं अवरोधी अवशिष्टशैल (मोनाडनॉक्स, monadnocks) उपस्थित रहते हैं। इस अवस्था में नदियाँ बलहींन होती हैं और अपक्षरण की क्षमता नहीं रखतीं। क्षयचक्र की पूर्णता नहीं हो पाती। इसके पूर्णत्व के लिये बाधारहित करोड़ों वर्ष का समय चाहिए और इतने दीर्घकाल तक भूपर्पटी शांत नहीं रह सकती। यदि भूचाल (earth movement) के कारण क्षयचक्र की किसी भी अवस्था में बाधा उत्पन्न हुई, अर्थात् यदि उस भूभाग की ऊँचाई (समुद्रतल से) अपेक्षाकृत कुछ बढ़ गई, तो उस क्षेत्र में प्रवाहित नदियों का कायाकल्प हो जायेगा। वे पुन बलवती होकर अपक्षरण कार्य में लीन हो जाएगी और उस भूभाग पर द्वितीय क्षयचक्र का प्रादुर्भाव होगा। इस तरह धरातल के अनेक भागों पर बहुचक्रीय भूम्याकृतियाँ देखने को मिलती हैं। नदी की तलवेदी (terraces) इसके उपयुक्त उदाहरण है।
कार्स्ट क्षेत्र के चक्रीय विकास में चूने के पत्थर से बनी उस क्षेत्र की संरचना का विशेष महत्व है। किशोरावस्था में जलप्रवाह धरातल से भूमिगत मार्गों में प्रविष्ट होता है। इस अवस्था की प्रमुख भूम्याकृति निगिरछिद्र (dolines) होते हैं। प्रौंढ़ावस्था में भूमिगत प्रवाह तथा निगिरछिद्र का चरम विकास होता है। धरातल के जलप्रवाह का प्राय पूर्णतया लुप्त होना, निगिरछिद्रों, कुंड़ों, एवं सकुंड़ों (उवाला) की संख्या में अत्यधिक वृद्धि, भूमिगत कंदराओं का पूर्णविकास, आदि इस अवस्था के मुख्य लक्षण हैं। वृद्धावस्था में भूमिगत कंदराओं की छत टूटने के कारण जलप्रवाह का भूपृष्ठ पर पुनरागमन होता है, प्राकृतिक सेतुओं का निर्माण होता है, राजकुंड़ बनते हैं और अद्रवित अवशेष चूनापत्थरटीले (hums) के रूप में विराजमान रहते है।
मरु प्रदेश के चक्रीय विकास के लिये पर्वतों से घिरे प्राकृतिक खातों का होना आवश्यक है। ऐसे भूभाग पर प्रारंभिक अवस्था में स्थानीय तलांतर (local relief) अधिकतम रहता है। किशोरावस्था में ऋतु क्षरण द्वारा पर्वतश्रेणियों की ऊँचाई घटती है। खातों के तल अवसादों के निक्षेपता से ऊँचे होते हैं। अवसाद खातों की सीमा के बाहर नहीं जा पाते। अत तलांतर क्रमश घटता रहता है। प्रौढ़ावस्था आने पर भी यह क्रम चलता रहता है और अपेक्षाकृत ऊपरी खात क्रमश भरते जाते हैं। अपक्षरण जनित अवसाद निचले खातों में निक्षिप्त होते रहते हैं। इस क्रम के द्वारा उस भूभाग के उच्चतम स्थान से निम्नतम स्थान तक सामान्य ढाल स्थापित हो जाती है। इस अवस्था तक के भूम्याकृति विकास में जल प्रवाह का विशेष हाथ रहता है। किंतु इसके बाद पर्वतश्रेणियों के नीची होने के कारण वर्षा की मात्रा घट जाती है और ढाल मंद होने से अवसाद भी केंद्र तक नहीं पहुँच पाते। अत इस अवस्था में पथरीली ढाल (bajda) मृण्यम समतल (playa) एवं लवण-पर्पटी-युक्त समतल (salina) का निर्माण होता है। इसके बाद वृद्धावस्था में मुख्यत वायु द्वारा संपन्न अपक्षरण, परिवहन, एवं निक्षेपण होता है। इस अवस्था की मुख्य भूम्याकृतियाँ उच्छेंल, वरखन तथा विभिन्न प्रकार के बालुकाकूटों की श्रृंखलाएँ होती हैं।
हिमनदियों द्वारा आक्रांत पर्वतीय ढालों पर सर्वप्रथम हिमज गह्वरों (cirques) का निर्माण होता है। गह्वर के नीचे की ढाल पर हिमनदी अपनी घाटी बनाती है, जो हिम के अपक्षरण कारण U आकृति की हो जाती है। किशोरावस्था में गह्वरों एवं घाटियों का विकास होता है। कभी कभी हिमानियों द्वारा अपक्षरित घाटियों में सीढियों जैसी भूम्याकृति का विकास होता है। ऐसी घाटियों को भीम सोपान कहते हैं। हिमसुमार्जित (roche moutonnee) तथा लंबित घाटियाँ (hanging valleys) भी इसी अवस्था में बनती हैं। प्रौढ़ावस्था में गह्वरों के विस्तृत होने से हिमज गह्वर (compound cirques) बनते हैं। विपरीत ढालों पर स्थित गह्वरों के शीर्षोंन्मुख हिमानी अपक्षरण द्वारा रीढ़ सदृश धारयुक्त प्रशिखा (arete) तथा श्रृंगों (horns) का निर्माण होता है। जब घाटियाँ शीर्षोंन्मुख अपक्षरण द्वारा हिमज गह्वरों का अंत करके अपना विस्तार कर लेती हैं तब प्रौंढ़ावस्था का अंत माना जाता है। वृद्धावस्था में उस भूभाग का तलांतर क्रमश: घटता ही जाता है और अंत में पर्वतीय ऊँचाई घटने के कारण हिमनदियाँ जलप्रवाह में परिणित हो जाती हैं। प्रारंभिक भूभाग के उच्च अवशेष हिमावृतशैल (nunatak) कहे जाते हैं, जो टीलों के रूप में वर्तमान रहते हैं।
सागर के तटीय भूभाग पर सागर की लहरें निरंतर आक्रमण करती रहती है। समुद्रतल से ऊपर वाले भाग लहरों द्वारा अपक्षरित हो क्रमश नष्ट हो जाते हैं और अवसादों का लहरों द्वारा ही समुद्र के छिछले भाग में निक्षेपण होता है। यह कार्य अविराम चलता रहता है, जिसके परिणाम स्वरूप उपकूलीय समतल भूमि का निर्माण होता है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ