क्षेपण विज्ञान
क्षेपण विज्ञान
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3 |
पृष्ठ संख्या | 272 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पांडेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1976 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | रामशकर वर्मा |
क्षेपण विज्ञान प्रयुक्त भौतिकी की वह शाखा है जिसमें किसी गोले या स्फोट की गति तथा उस गति की नियामक परिस्थितियों के संबंध में विचार किया जाता है। स्थूलत: इस विषय के अध्ययन को तीन प्रमुख भागों में विभाजित किया जा सकता है:
आभ्यंतर क्षेपण विज्ञान ; 2. बाह्य क्षेपण विज्ञान तथा 3. अंतस्थ क्षेपण विज्ञान।
आभ्यंतर क्षेपण विज्ञान----इसमें गोले की गति तथा प्रक्षेप्य वस्तु के बंदूक या तोप की नाल के भीतर रहने तक गति की नियामक परिस्थितियों के संबंध में अध्ययन किया जाता है। चित्र 1 में तोप की योजना दिखाई है। जब कक्ष में रखा हुआ प्रणोदक (बारूद) जलता है, गैसें निकलती हैं। गैसों के निकलने से उत्पन्न दाब गोले को आगे ढकेलती है आर अंत
में वे तोप की मोहरी के सिरे ब (B) से वेग से निकलते हैं। इस वेग को मोहरी वेग (मज़ल वेलॉसिटी muzzla velocity) कहते हैं। नाल के भीतर गोले की गति के संबंध में विचार करने की दो पद्धतियां प्रचलित हैं। 1. अमरीकन पद्धति और 2. ब्रिटिश (अंग्रेज) पद्धति।
ब्रिटिश पद्धति अधिक सही है, इसीलिए उसके संबंध में यहाँ कुछ विस्तृत विवेचन किया जाएगा। अमरीकन पद्धति निम्नलिखित प्रयोगसिद्ध सूत्र पर निर्भर है जिसे लडुक का (Le Duc s) सूत्र कहते हैं
V= ax/b+x
यहाँ V गोले की गति, x नाल के भीतर गोले द्वारा पार की हुई दूरी तथा a और b दो नियतांक हैं। यह सरलता से दिखाया जा सकता है कि इस निकाय में दाब P तथा महत्ता दाब Pmax निम्नलिखित सूत्र से प्राप्त होते हैं:
P= Wa2bx/gA(b+x)3 Pmax= 4Wa2/27gAb
यहाँ W स्फोटके गोले का भार, A नाल की अनुप्रस्थ काट का क्षेत्रफल तथा g पृथ्वी का साधारण गुरूत्वाकर्षण है।
ब्रिटिश पद्धति में नाल के भीतर प्रक्षेप की गति के नियामक निम्नलिखित चार समीकरण हैं :
F Cz/A1 = p (1+x/1- Bz)+ l-1/2A1 W1v2
D df/dt +- bpa W1 dv/dx = Ap
z = (1-f) (1+qf)
यहाँ
F = प्रणोदक का बल नियतांक
C = प्रणोदक का द्रव्यमान
z = स (t) समय में प्रणोदक का जला भाग
A = नाल के छिद्र का क्षेत्रफल
k = कक्ष का अयतन
d = ठोस प्रणोदक का घनत्व
A1 = k0-C/d
p = गैस की औसत दाब
x = t समय में गाले की यात्रा दूरी
B = C/A1 (b-1/d)
b = गैस के इकाई द्रव्यमान का सह आयतन
l = नियत दाब तथा नियत आयतन पर विशिष्ट उष्माओं का अनुपात
W = गोले का भार
W1 = 1.04W +1/3C
v=t समय पर गोले का बेग
D = प्रणोदक की वह न्यूनतम मोटाई, जिसके जल जने पर समस्त प्रणोदक समाप्त हो जाता है।
f = t समय पर D का बचा हुआ अंश
b ज्वलन नियतांक की दर
a दाब का घातांक
उपयुक्त चार समीकरणों को ऊर्जा समीकरण, गति का गत्यात्मक समीकरण, रूपफलन तथा ज्वलन की दर का समीकरण कहते हैं। गोला नाल के भीतर तभी गतिमान होता है जब एक नियत दाव उत्पन्न हो जाती है। यह दाब मध्यम नाप की तोपों में 2 टन प्रति वर्ग इंच के क्रम की हाती है। प्रणोदक गैसें बड़ी तीव्रता से उत्पन्न होती हैं और यद्यपि प्रक्षेप चलना आरंभ कर देता है, फिर भी आरंभ में दाब बढ़ती जाती हैचित्र:Dumping Science-2.gif
और नियत महत्तम पर पहँुच जाती है। इसके पश्चात दाब घटती जाती है। चित्र 2 में लाक्षणिक दाब-अवकाश (आयतन) वक्र दिखाया गया है।
ऊर्जा समीकरण : तोप की नाल में प्रसारित होती गैसों को निम्नलिखित प्रतिरोधों का सामना करना पड़ता है:
गोले का अवस्थितत्व। ठीक मार्ग पर चलाने वाले ताम्रपट्ट और नाल में राइफिलंग की लकीरों के परस्पर स्पर्श से उत्पन्न घर्षण।
इन दोनों में से केवल प्रथम कारक (factor) ऊर्जा व्यय का लाभदायक अंश है। दूसरा तो प्राप्य ऊर्जा का अनुपयोगी भाग है। कुछ ऊर्जा तोप की नाल को गरम करने में व्यय होती है। ऊर्जा की अविनाशिता के सिद्धांत की सहायता से ऊर्जा का समीकरण प्राप्त किया जा सकता है। बल का नियतांक ब इस सूत्र से मिलता है : F = RT
यहां ........प्रणोदक गैसों से प्रति ग्राम में ग्राम अणुओं (gram-molecules) की संख्या है, R सार्वत्रिक गैस नियतांक तथा T विस्फोटन ताप है। इस अवस्था में प्रणोदक के ईकाई द्रव्यमान से प्राप्त कुल ऊर्जा f/l-1है। प्रक्षेप के स्थानांतरण करने की गतिक ऊर्जा ½ Wv2 है। और यदि हम उष्ण हो जाने के कारण होने वाली ऊर्जा की हानि, छिद्र का प्रतिरोध तथा प्रणोदक गैसों की गतिज ऊर्जा का विचार करें तो गोले के भार W के स्थान पर हमें गोले का कार्यकारी W1 रखना होगा ओर इस तरह गोले की कार्य कारी गतिक ऊर्जा ½ W1 v2 होगी।
प्रणोदक गैसों की उष्मीय ऊर्जा स्पष्टत: निम्नांकित है : Ja vTCz यहाँ J उष्मा का यांत्रिक तुल्यांक, av स्थिर आयतन पर गैसों की विश्ष्टि उष्मा तथा T तापक्रम है। गैस की अवस्था के समीकरण का प्रयोग कर पूर्वोक्त समीकरण को उपयुक्त रूप p (V-b)/l-1 Gz में रूपांतरित कर सकते हैं। यह स्मरण रखना चाहिए कि जब ताप T और दाब p हो तो उत्पन्न गैसों के इकाई द्रव्यमान में उष्मा के रूप में बची उर्जा की मात्रा P (V-b)/l-1 होती है।
गति का गतिवैज्ञानिक समीकरण-न्यूटन के द्वितीय गतिनियम के अनुसार गतिवैज्ञानिक समीकरण निम्नलिखित रूप में लिखा जा सकता है :
1.04W dv/dt = Aps
यहाँ ps गोले के आधार पर पड़नेवाली दाब है। यह ध्यान रखना चाहिए कि नाल के भीतर गैसों की दाब की प्रवणता होती है। यदि हम प्रणोदक गैसों की अवस्थितत्व के प्रभाव का भी विचार कर लें तो ps और औसत दाब p का पियोबर्ट (Piobert) के नियम के अनुसार निम्नलिखित निकट संबंध प्राप्त होता है:
Ps/1.04W = P/1.04W+1/3C = PB/1.04+½C
यहाँ pB तोप की पेंदी पर की दाब है जब गैस का वेग शून्य होता है। इस संबंध का उपयोग कर गतिवैज्ञानिक समीकरण निम्नलिखित रूप में मिला है:
W1 dv/dt = W1v dv/dx = Ap
ज्वलन की दर का समीकरण (व्येय (Vielle ,s) का नियम )-समय t पर विस्फोटक के आयाम D में (1-f) कमी होती है और इसलिए ज्वलन का मान – D df/dt होगा। बंद बर्तन में किए गए प्रायोगिक विस्फोटों से निम्नलिखित समीकरण प्राप्त होता है:
D df/dt = - bPa
दाब का घातांक a तथा ज्वलन नियतांक की दर ड प्रणोदक की व्याकृति तथा विस्फोटक के ताप पर निर्भर रहती है। ऋजु ज्वलन की दर के नियम का भी, जिसमें दाब का घातांक 1 मान लिया जाता है, प्रयोग किया जाता है। इस अवस्था में पूर्वोक्त समीकरण का रूप यह हो जाता है:
D df/dt = - bp 1
यहाँ पर b का मूल्य वही नहीं है जो पहले वाले समीकरण में है। तोपों के क्षेपण विज्ञान में बल नियम तथा ऋजु नियम दोनों का विस्तृत उपयोग किया जाता है, किंतु गणितीय प्रयोग में सुविधा के लिये पिछले का ही उपयोग करते हैं।
रूपफलन (पिओबर्ट का नियम)- पिओबर्ट ने प्रणोदक के ज्वलन के संबंध में एक सरल परिकल्पना प्रस्तुत की। इस नियम से प्रकट होता है कि प्रणोदक समांतर स्तरों में जलता है तथा इसके अनुसार यदि विस्फोटक नीली के रूप में हो तो
x = D0 – f D0/ D0 = 1-f
यहाँ D0 बेलन का आद्य आयतन है तथा f (D0) समय t के पश्चात् आयतन।
इसी प्रकार ऐसे बेलन सदृश रूपवाले विस्फोटक के संबंध में जो मोटाई D की तुलना में बहुत लंबा है,
p D21/4 – pf2 D21/4
z= 4/1/4pD21/4 = 1-2
जहाँ (1) विस्फोटक की लंबाई है।
उपयोग में आनेवाले अधिकांश प्रणोदकों के लिए पिओबर्ट का नियम निम्नलिखित रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है:
z= (1-f) (1-qf)
यहाँ q विस्फोटक के दोनों के रूप पर निर्भर रहनेवाला नियतांक है जिसे आकृतिगुणांक कहते हैं। बेलनाकार विस्फोटाकों के लिए q=0 और नलिकाकार विस्फोटकों के लिए q = 01 q का भौतिकीय अर्थ यह है कि q के ऋणात्मक, धनात्मक अथवा शून्य होने पर प्रणोदक का ज्वलंत तल क्रमानुसार बढ़ता, घटता या स्थिर रहता है।
क्षेपण यंत्राभ्यंतरीय समीकरणों का हल- यदि हम यंत्राभ्यंतरीय क्षेपण के चारो मुख्य समीकरणों को हल करने की चेष्टा करें तो हमारे संमुख बड़ी गणितीय कठिनाइयाँ उपस्थित हो जाती हैं। यदि ऐसा सरल उदाहरण लें जिसमें नियत ज्वलन तल हो और सह आयतन (co-voluma) गुणांक छोड़ दिया जाय तथा ज्वलन की गति के स्थान पर शक्ति का नियम लगाया जाए तो हमें निम्नलिखित रूप का अवकल समीकरण मिलता है:चित्र:Dumping Science-4.gif
a1 xy d2y/dx2 + a2x (dy/dx)2 + a3 y dy/dx = 1
यहाँ a1 a2 तथा a3 नियतांक हैं। यह अनेकघात (non-linear) अवकल समीकरण है और इसका हल सरलता से नहीं ज्ञात हो सकता। इस कारण किसी न किसी सरल स्थिति में पूर्वोक्त समीकरणों का फल निकालने की चेष्टा करनी पड़ती है। किंतु सांख्यिक रीतियों से ऐसे अवकल समीकरणों का हल निकालने की एक अन्य रीति भी है।
भारत में बहुत सा कार्य, विशेषकर मिश्रित विस्फोटकों (संरचना, आकृति, तथा आकार में भिन्न दो या इससे अधिक प्रणोदकों) के प्रयोग, गोले के चलने की आरंभवाली दाबका प्रभाव,का प्रभाव नाल के छिद्र का अवरोध तथा महत्तम दाव पर (विस्फोटक के)भराव का घनत्व, मोहरी वेग तथा अन्य संबंधित क्षेपणशास्त्रीय राशियों पर हो चुका है ।
बाह्य क्षेपण विज्ञान------बाह्य क्षेपण विज्ञान वह शास्त्र है जिसमें प्रक्षेप के मोहरी छोड़ देने के पश्चातवाली गति का विचार किया जाता है। यह तो सभी को ज्ञात है कि यदि वायु का प्रतिरोध न हो तो प्रक्षेप का मार्ग परवलय के रूप में होगा। वायु में गतिमान प्रक्षेप की गति के समीकरण निम्नलिखित हैं (चित्र 3):
d2 x/d t2 = - R cos q
d2 y/d t2 = - R sin q -g
यहाँ R वायु के प्रतिरोध का बल तथा q वह कोण है जो t समय पर प्रक्षेपपथ को स्पर्श रेखा क्षैतिज दिशा से बनाती है। वायु के प्रतिरोध के कारण क्षैतिज वेगसंघटक स्थिर नहीं रहता, वरन समय के साथ साथ घटता जाता है। ऊर्ध्वाधर संघटक भी प्रक्षेपमार्ग के चढ़ते हुए भाग पर
दो कारणों से घटता जाता है, एक तो गुरूत्व के कारण तथा दूसरे प्रतिरोध के कारण। सर्वोच्च विंदु पर वेग का ऊर्ध्वाध संघटक शून्य हो जाता है।
और इसके पश्चात वह बढ़ने लगता है। किसी बिंदु H पर ऊर्ध्वाधर संघटक की वृद्धि क्षैतिज संघटक की हानि को संतुलित कर देती है और इसलिये न्यूनतम वेग V बिंदु पर न होकर किसी बिंदु H पर होता है।
शीर्ष तक का परास कुल परास के 0.5 से 0.6 भाग तक तथा शीर्ष तक पहुंचने का समय साधारणत: उड़ान के कुल समय का 0.4 से 0.5 भाग तक होता है। प्रक्षेपपथ की महत्तम वक्रता शीर्ष तथा न्यूनतम वेगवाले बिंदु के मध्य किसी बिंदु D पर होगी।
प्रतिरोध के नियम तथा क्षेपणगुणांक------जब कोई प्रक्षेप वायु में गतिमान होता है तो वस्तुत: अनुभूत प्रतिरोध के निम्नलिखित कारण हैं:
गोले (shell) के सम्मुखवाली वायु संपीडित होती है ओर प्रक्षेप की कुछ दफर्जा वायु-तरंग-उत्पादर में व्यर्थ चली जाती है। इसे प्रक्षेपशीर्ष प्रतिरोध कहते हैं और यह प्रक्षेप की अनुप्रस्थ काट के क्षेत्रफल, गोले के शीर्ष तथा माक (Mach) संख्या पर निर्भर रहता है। गोले की पेंदी के चारों ओर वायु बिना बाधा के स्थान नहीं ले पाती, इसलिये गोले के पिछले भाग में कम दाब का क्षेत्र उत्पन्न हो जाता है। इस प्रकार के प्रतिरोध बल को पेंदी का खिंचाव (बेस ड्रैग base drag) कहते हैं और यह गोले की आकृति पर निर्भर रहता है, विशेषकर पिछले भाग की रचना पर। घर्षणप्रतिरोध द्वारा जनित कुछ ऊर्जा का उष्मा के रूप में अपव्यय हो जाता है। इस प्रभाव को धरातलघर्षण (skin friction) कहते हैं और यह गोले के पृष्ठ को घेरनेवाली पतली परत तक हर सीमित रहता है। यह गोले की आकृति तथा उसके धरातल के क्षेत्रफल ओर गुणों पर निर्भर रहता है।
भिन्न भिन्न देशों में गोलों की अंगीकृत आकृति के अनुसार भिन्न भिन्न प्रतिरोध के नियम व्यवहार में आ रहे हैं। अभी तक ज्ञात प्रतिरोध नियम निम्नलिखित हैं:
गैवर का नियम (Gavre Law)------इससे गैवर का फलन प्राप्त होता है तथा इसका प्रयोग साधारणत: फ्रांस में होता है। मायेव्स्की का नियम (Mayevski Law)-------इसका आधार सन् 1875 से 1881 तक के वर्षो में क्रूप (जर्मनी के संसारप्रसिद्ध अस्त्रों के कारखाने )के तोपों के दागने और सन् 1869 में किए गए मायेव्स्की के अपने तथा सन् 1866 से 1870 तक के बैशफोर्ड (Bashford) के प्रयोग थे। यह नियम निम्नलिखित सूत्र से प्राप्त होता है:
R(V) = Avn/C
यहां A तथा n एक मंडल से दूसरे मंडल में बदलते रहते हैं किंतु किसी एक मंडल में स्थिर होते हैं, R वेग की क्षति है तथा C गोले का क्षेपण गुणांक है, जिसकी परिभाषा आगे दी गई है। जे फलन नियम (J-Function law)------यह नियम संयुक्त राज्य, अमरीका, में अनेक प्रकार के गोलों का प्रयोग कर क्रमबद्ध परीक्षाओं पर आधारित है। 1910 का नियम------इस नियम का प्रयोग इंग्लैंड में किया जाता था। इसका आधार 2 c.r.h. गोले हैं। 1940 का नियम-------यह 5/10 c.r.h. प्रक्षेप पर आधारित है और इस समय यूनाइटेड किंगडम (इंग्लैंड) में प्रयुक्त होता है। 1950 का नियम------1940 के नियम में कुछ असंगतियाँ पाने के फलस्वरूप यह नियम प्रयोग में आया है।
अधिकतर गणना 1940 के नियम के आधार पर की जाती है, किंतु निम्नलिखित प्रक्षेपपथ के 1910 का नियम अभी तक वैध है।
राबिन्स (Robions) द्वारा सन् 1740 में, हुटेन (Hutten) द्वारा सन् 1775 में डीडिआँ (Didion) द्वारा सन् 1840 में तथा बैशफोर्थ (Bashforth) द्वारा सन् 1865 से सन् 1870 तक में किए गए प्रयोगों के फलस्वरूप यह पाया गया कि गोले का प्रतिरोध उसके व्यास d के वर्ग, वायु के घनत्व r तथा वेग के एक फलन f(v) का समानुपाती होता है। क्योंकि r v2 d2 के आयाम के बल होते है, अत: हम आयामों का विचार करके लिख सकते हैं
R= r v2 d2 k
यहाँ k आयामरहित राशियों +v/a तथा vd/n पर निर्भर करता है,
जिन्हें क्रमश: माक (Mach) संख्या ओर रेनॉल्ड्स (Reynolds) संख्या कहते हैं। यहाँ a से ध्वनि का स्थानीय वेग तथा n प्रगतिकी (किनेमैटिक, Kinematic) श्यानता का गुणांक है। इससे निम्नलिखित फल प्राप्त होता है:
R = r v2 d2 fR (v/a, vd/n,...)
क्षेपण विज्ञान में व्यावहारिक प्रयोजनों के लिए प्रतिरोध की पदसंहति को निम्नलिखित रूप में लिखते हैं:
R= r/r Ks d2 (v/100)2 r (v/a)
यहां r तथा r का अर्थ क्रमश: किसी भी ऊँचाई पर तथा समुद्रतल पर की वायु का घनत्व है Ks आकृति का गुणांक, या अमरीकनों के
कथनानुसार अज्ञान का गुणांक है, तथा P (n/a), जिसका परिणमन चित्र 4 में दिखाया गया है, वेग की हानि के गुणांक fR की समानुपाती एक राशि है।
प्रक्षेप (गोला) का मंदन r निम्नलिखित समीकरण से मिलता है:
r = R/m = 1/C r /r (v/100)2 r (v/a)
यहाँ C = K s md 2
राशि C जो गोले के द्रव्यमान, आकृति तथा आयतन पर निर्भर रहती है, क्षेपण गुणांक (Ballistic Coefficient) कहलाती है। वायु में गोले की गति के संबंध में इस गुणांक का महत्वपूर्ण स्थान है। वास्तव में यह गोले की वहनशक्ति की माप है, अर्थात जितना ही उच्च यह गुणांक होगा उतना ही अधिक परास होगा ।
यहाँ यह लिखना उचित होगा कि पूर्वोक्त प्रतिरोध के भिन्न भिन्न नियमों से जो मंदन प्राप्त होता है वह केवल विभिन्न प्रामाणिक प्रक्षेपों के कारण होता है और किसी नियत नियम तथा उससे संबंधित गोले के लिए (Ks) का मान 1 मान लिया जाता है।
बाह्य क्षेपण समीकरणों का हल-------प्रतिरोध फलन R सारणी के रूप में मिलता है। इसलिये पूर्ण प्रक्षेप पथ पाने के लिए गति के दोनों समीकरणों का उत्तर संख्यात्मक रीति से निकाला जाता है। समय, या प्रसार, निर्देशांक को छोटे अंतरालों में, जिनका आरंभ में अत्यल्प होना आवश्यक है, विभाजित करके खंडश: अनुकलन की रीति का प्रयोग किया जा सकता है।
तोपें यदि लघु कोणों पर दागी जायँ तो ऐसी स्थिति के लिये सियासी (Siaeci) ने चार फलनों का निर्माण किया है, जिन्हें सियासी के प्राथमिक फलन कहते हैं। ये नति फलन 1(u)अवकाश फलन S (u) समय फलन T (u) तथा उच्चता फलन A (u) निम्नांकित प्रकार के हैं :
I (u) = u/k 104/u3 gdu/P (u)
S(u) = u/k 104/du p(u)
T (u) = u/k 104 du/ u2 P (u)
A (u) = u/k 104I (u) du/u P (u)
यहाँ u तथा कथित मिथ्या वेग है और k इस मिथ्या वेग का यथेष्ट अल्पमान है। सन् 1940 की क्षेपण सारणियों में k का मान 400 माना गया है
गोले का स्थिरत्व-----गति के समय गोले का स्थित्वि बना रखने के लिए तोप या बंदूक की नाल में सर्पिल लकीर काट (राइफ्लिंग) कर गोले को एक कोणीय वेग दे दिया जाता है। मोहरी पर का घूर्णन (घुमाव) निम्नलिखित सूत्र से प्राप्त होता है :
w = 2v tan f/d
यहाँ w से मोहरी पर घुमाव का v से मोहरी पर के वेग का, d से गोले की मोटाई की माप (कैलिबर, calibre) तथा f से सर्पिल लकीर (राइफ्लिंग) की ऐंठन के कोण का तात्पर्य है। यदि निम्नलिखित समीकरण से प्राप्त स्थिरत्व गुणक S का मान 1 से अधिक हो तो गोला स्थिर है।
S= C2 N2/4 Am
यहाँ C तथा A गोले के अवस्थितत्व के क्रमश: ध्रुवीय तथा तिर्यक घूर्ण हैं, N घूर्णन है तथा m दाव के केंद्र तथा गोले के गुरूत्व केंद्र के मध्य की दूरी है। कुछ गोलों के लिए स्थिरत्व गुणक 5 तक उच्च पाया जाता है।
पृथ्वी की वक्रता का प्रभाव----ऊपर गोले के पथ के संबंध में जो कु छ विचार किया गया है उसका आधार यह मान्यता है कि गोले के परास तक पृथ्वी चौरस है तथा इस कारण गुरूत्व का बल सदा अपनी प्रारंभिक दिशा के समांतर रहता है। जब परास दीर्घ होता है, इस मान्यता का प्रभाव अत्यधिक स्पष्ट हो जाता है। दूसरे, हमें पृथ्वी की वक्रता के प्रभाव को भी अपनी गणना में स्थान देना पड़ता है। गुरूत्व का बल पृथ्वी के केंद्र से दूरी के वर्ग का प्रतिलोमानुपाती होता है। इसकी दिशा पृथ्वी के केंद्र की ओर होती है और फलस्वरूप गुरूत्व का बल प्रक्षेपपथ पर बदलता रहता है। इसके सिवाय प्रक्षेप के संघात बिंदु का पृथ्वी की वक्रता के कारण अवनमन हो जाता है और इस कारण परास में वृद्धि हो जाती है। इन प्रभावों का विवेचन अवकलशोधन की रीति से किया जाता है।
पृथ्वी के घूर्णन का प्रभाव-----गोले के मोहरी से निकल जाने के पश्चात् उसकी स्थिति पृथक् तथा पृथ्वी के घूर्णन से स्वतंत्र हो जाती है। उसके प्रारंभिक वेग का एक संघटक गोला दागने के समय पृथ्वी के तल का वेग होता है। इस कारण जब गोला संघात बिंदु के निकट पहुंचता है तो वह अपने लक्ष्य से चूक जायगा। यह चूक प्रक्षेप पथ के क्षितिज चाप (Azimuth), परास तथा प्रक्षेप पथ के क्षितिज चाप परास तथा प्रक्षेप पथ की ऊँ चाई पर निर्भर रहती है। इसे कोरिओलिस (Coruiles) का प्रभाव कहते हैं। गणना में कोरिओलिस प्रभाव का भी अवकल शोधन से विचार कर लेते हैं।
अंतस्थ क्षेपण विज्ञान-----यह क्षेपण विज्ञान की यह शाखा है जिसमें इस बात पर विचार किया जाता है कि जब गोला लक्ष्य को बेधता है तो क्या होता है।
साधारण प्रक्षेप जिसके गोले में टी. एन. टी. (बारूद) के समान उच्च विस्फोटक भरा रहता है, दो प्रकार से हानि पहुँचाता है : खंडित होकर तथा वायुवेग से।
जब गोला लक्ष्य को वेधता है तो गोले के अग्रभाग में लगे यंत्र उच्च विस्फोटक का विस्फोट करा देते हैं। इससे गोले की पेटी (धातु का आवरण) टुकड़े हो जाती है, जिन्हें खंड कहते हैं। ये खंड वेग से उड़ते हैं और इसलिये किसी इमारत की दीवार को, या मनुष्य के शरीर को, छेदकर अत्यधिक हानि पहँुचा सकते हैं। खंडों का आकार के अनुसार विभाजन मॉट (Mott) के सूत्र से प्राप्त होता है:
N = C MA exp (-M/MA)
यहाँ N उन खंडों की संख्या है जिनका द्रव्यमान m से अधिक है, M= m½ तथा C औरMA नियतांक हैं, जो गोले तथा विस्फोटक की जाति पर निर्भर है।
गोले के अंदर रखे विस्फोटक के विस्फोट से जो वायुवेग उत्पन्न होता है उससे भी हानि होती है। टी. एन. टी. या पेंटोलाइट (Pentolite) के N पाउंड को दागने पर विस्फोटन बिंदु से S सेंटीमीटर की दूरी पर उत्पन्न महत्तम दाब l m ज्ञात करने के लिए निम्नलिखित सूत्र हैं :
lm = a/z-b/z2 + c/z3
यहाँ Z=S/10 (M) 1/3 तथा a,b,c नियतांक हैं, जो विस्फोटक की जाति तथा आकृति पर निर्भर हैं।
कवच का छेदन------लक्ष्य को हानि पहुंचाने की उपर्युक्त दो रीतियों का प्रभाव टैंकों पर कुछ नहीं होता, क्योंकि इनके सम्मुखवाले कवच लगभग छह इंच तक मोटे होते हैं। प्रचलित प्रकार के कवच छेदनेवाले गोले में साधारणत: टंग्सटेन कारबाइड का बना एक ठोस शंकु होता है, जो अत्युच्च वेगवाले शंकु से बाहर फेंके जाने पर कवच को छेदता है, किंतु यह छेदन ऐसे अवसरों पर तीन या चार इंच तक ही सीमित रहता है। इसके सिवाय ऐसे ठोस गोले को उच्च वेग देने पर यह छटककर लौट पड़ता है।
अधिक मोटे कवच को छेदने के लिए आकृति दिए हुए विस्फोटक के सिद्धांत का प्रयोग किया जाता है (चित्र 5) । इस सिद्धांत पर आधारित गोले में ताँबे के बने धातु के शंकु के बाहर विस्फोटक रखा जाता है। इस शंकु को लाइनर (liner) कहते हैं। उच्चविस्फोटक के दगने पर
लाइनर का अवसाद हो जाता है, जिसके फलस्वरूप एक अति वेगवान धार (jet) , जिसे मनरो (Munroe) जेट भी कहते हैं, तथा तुलना में उससे कम वेगवाली एक अन्य धार (जेट) उत्पन्न होती है। इस धार के शीर्ष तथा पश्च सिरों के वेगक्रमश: 8,000 तथा 2,000 मीटर प्रति सेकंड के क्रम के होते है। जब यह वेगवान धार किसी लक्ष्य पर टकराती है, तो यह वायुमंडल की दाब की ढाई लाख गुनी दाब उत्पन्न करती है। इस अत्युच्च दाब पर लक्ष्य का पदार्थ सुघट्य द्रव्य हो जाता है और धार (जेट) कवच में, चाहे वह इस्पात हो या अन्य कोई सवस्तु, कई इंच घुस जाती है।
भारत में भिन्न भिन्न प्रकार के विस्फोटक, भिन्न पदार्थों से बने लाइनर, भिन्न कोणोंवाले शंकु तथा विस्फोटन विंदु से भिन्न दूरियां लेकर आकृति दिए विस्फोटकों पर अधिक प्रयोग किए गए हैं।
जब आकृति दिया हुआ (shaped) विस्फोटक अपने अक्ष के चतुर्दिक घूमता है तो छेदन में कमी हो जाती है। घूर्णन करते हुए लाइनर का प्रत्येक भाग धार के संगत भाग को कोणीय वेग दे देता है और इसका फल यह होता है कि ज्यों ज्यों धार आगे बढ़ती जाती है त्यों त्यों उसकी अनुप्रस्थ काट का क्षेत्रफल अधिक होता जाता है तथा साथ ही साथ छेदन की गहराई घटती जाती है। घूर्णन करते हुए विशेष आकृतिवाले (Shaped) विस्फोटक के लाइनर के कोणीय वेग में तथा छेदन की गहराई में एक सैद्धांतिक संबंध रहता है। इस युक्ति से कड़े इस्मात का कवच लगभग 10 इंच तक छेदा जा सकता है।[१]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सं. ग्रं.----इंटर्नल बैलिस्टिक्स (1951), हिज़ मैजेस्टीज़ स्टेशनरी आफिस पब्लिकेशन, लंदन ; कार्नर जे. : थ्योरी ऑव इंटीरिअर बैलिस्टिक्स ऑव गंस (1950), जॉन विली, न्यूयॉर्क ; टेक्स्ट बुक ऑव बैलिस्टिक्स ऐंड गनरी, पार्ट 1 (1938) हिज़मैजेस्टीज़ स्टेशनरी ऑफिस पब्लिकेशन, लंदन ; एडवर्ड जे. मैकशेन, जान एल. केली तथा फ्रैंकलीन वी. रेनो : एक्स्टीरियर बैलिस्टिक्स (1953), युनिवर्सिटी ऑव डेनवर प्रेस, यू. एस. ए ; ब्लिस जी. ए. : मैथेमैटिक्स फॉर एक्स्टीरियर बैलिस्टिक्स (1944), जान विली, न्यूयॉर्क ; डिफेंस सायंस जरनल, खंड 5 संख्या 3,1955, स्टडीज़ ऑन एक्सप्लोज़िव्स विथ लाइंड कैविटीज़ (स्पेशल नंबर) ; मेलविन ए. कूक : द सायंस ऑव हाई एक्सप्लोज़िव्स (1958), राइनहोल्ड पब्लिशिंग कॉरपोरेशन, न्यूयार्क।