खत्री
खत्री
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3 |
पृष्ठ संख्या | 289 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पांडेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1976 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | राजाराम शास्त्री |
खत्री भारत की एक जाति, जिसका मुख्य तथ प्राचीन आवासक्षेत्र पंजाब और परंपरागत मुख्य व्यवसाय व्यापार है। कश्मीर को छोड़कर खत्री प्राय: समस्त पश्चिमोत्तर भारत में फैले हुए हैं, किंतु पंजाब के बाहर बहुधा कस्बों तथा नगरों तक ही सीमित हैं। सुदूर दक्षिण के सिवा भारत के मध्य तथा दक्षिणी भाग में भी नगरों में न्यूनाधिक संख्या में खत्री आबाद है। इसके अतिरिक्त खत्रियों की आबादी काबुल, कंधार और तुर्किस्तान तक में है जहाँ वे छोटे व्यापारिक समूहों के रूप में बहुत पहले से जा बसे हैं।
भारत के विभाजन के पहले सीमाप्रांत, पंजाब और सिंध का प्राय: समस्त व्यापार इसी जाति के लोगों में केंद्रित था किंतु उसके बाद अन्य हिंदुओं तथा सिक्खों के साथ पश्चिमी पाकिस्तान से खत्री भी पूर्वी पंजाब तथा भारत के अन्य भागों में जा बसे। गुजरात और मारवाड़ के ब्रह्मखत्री सोनारी, बढ़ईगिरी आदि अनेक शिल्पिक धंधे भी करते हैं और कांगड़ा घाटी के खत्री ्व्राात्य पशुपालक हैं। खत्री प्राय: हिंदू हैं, किंतु कुछ ने सिक्ख धर्म भी स्वीकार कर लिया है, जिन्हें सिखड़ा खत्री कहते हैं। सिखड़े खत्रियों का मूल खत्रियों से जातीय संबंध बना हुआ है।
पतली नाक, लंबी कपालका और गौर वर्ण से विदित होता है कि खत्री जाति की उत्पत्ति आर्य नस्ल की किसी जनजाति से हुई जो कभी प्राचीनकाल में पंजाब में संभवत: लुप्त सरस्वती नदी की घाटी में बस गई थी। कुछ विद्वानों का मत है कि खत्री शब्द संस्कृत के क्षत्रिय शब्द का अपभ्रंश है और यह एक ऐसी जाति है जिसने इतिहास में किसी समय सैनिक वृत्ति को छोड़कर व्यापार को अपना लिया। इसकी पुष्टि में वे यह भी कहते हैं कि खत्रियों के गोत्र वे ही हैं जो क्षत्रियों के हैं। कुछ विद्वानों का मत है कि प्राचीन आर्यों का कश्मीरियों से भी अधिक प्रतिनिधि होने का अधिकार इन खत्रियों को ही है। पंजाब में साधारणत: क्षत्रिय नहीं मिलते। आखिर पंजाब के क्षत्रिय हो क्या गए? प्रमाणत: खत्री ही उनके प्रकृत प्रतिनिधि हैं जो अब सैनिक वृत्ति छोड़ दूसरा व्यवसाय करने लगे हैं। ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में सिकंदर के साथ भारत में आए यूनानी इतिहासकारों ने सिंधु घाटी में जिस जथराई (एतरोई) जनपद का उल्लेख किया है, बहुत संभव है वह क्षत्रिय या खत्री जनपद के लिये प्रयुक्त हुआ हो।
खत्री अनेक उपजातियों और शाखोपशाखाओं में विभक्त हैं। फिर भी, समस्त खत्रियों को दो बड़े भागों में बाँटा जा सकता है-----ख्यातनामा खत्री और अख्यातनामा खत्री। ख्यातनामा खत्री उनको कह सकते हैं जो केवल खत्री नाम से विदित और मान्य हैं। अख्यतनामा खत्रियों में खुखरान, अरोड़ा, ब्रह्मखत्री (अथवा गुजराती खत्री), भाटिया, सरीन, पेशाबरिया, लोहाणे (नागपुर के आसपास), बाहुबल, सूद और कांगड़ा घाटी के खत्री (गद्दी) आदि हैं। अख्यातनामा खत्रियों का खत्रीत्व भी न्यूनाधिक विवादास्पद रहा है। परंपरा से खत्रियों की प्रत्येक जाति विवाह संबंध अपने आंतरिक समूहों में ही करती थी। किंतु धीरे धीरे इन बंधनों की सर्वमान्यता समाप्त हो रही है।
ख्यातनामा खत्री छह उपजातियों में विभक्त हैं। ये उपजातियाँ चौजाति पंजाजाति छैजाति, बारहजाति, बावन जाति, या बावनजाई और बहुजाति या बनजाई खुर्द के नाम से अभिहित हैं। इनमें से प्रत्येक उपजाति पछैंया या पछादे और पूरबिया या पवाधे, इन दो समूहों में विभक्त है। जो ख्यातनामा खत्री पंजाब से बहुत पहले निकलकर भारत के पूर्वी भागों में बस गए वे पवाधे और पंजाब में रहनेवाले या वहाँ से बाद में प्रवास करनेवाले पछादे कहलाए। शेरशाह के अर्थमंत्री और अकबर के नवरत्नों में प्रसिद्ध राजा टोडरमल खत्री ही थे। अनेक खत्रियों ने दिल्ली की सल्तनत के पाए मजबूत किए और मुगल संस्कृति तथा उर्दू भाषा के उन्नायक सिद्ध हुए। सिक्ख धर्म के प्रवर्तक और प्रथम गुरु नानक तथा अन्य गुरु भी खत्री परिवार में ही उत्पन्न हुए थे।
टीका टिप्पणी और संदर्भ