खनिकर्म
खनिकर्म
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3 |
पृष्ठ संख्या | 291 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पांडेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1976 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | विद्यासागर दुबे |
खनिकर्म पृथ्वी के गर्भ से धातुओं, अयस्कों, औद्योगिक तथा अन्य उपयोगी खनिजों को बाहर निकोलना खनिकर्म हैं। संसार के अनेक देशों में, जिनमें भारत भी एक है, खनिकर्म बहुत प्राचीन समय से ही प्रचलित है। वास्तव में प्राचीन युग में धातुओं तथा अन्य खनिजों की खपत बहुत कम थी, इसलिए छोटी छोटी खान ही पर्याप्त थी। उस समय ये खानें 100 फुट की गहराई से अधिक नहीं जाती थीं। जहाँ पानी निकल आया करता था वहाँ नीचे खनन करना असंभव हो जाता था; उस समय आधुनिक ढंग के पंप आदि यंत्र नहीं थे।
आधुनिक युग में खनिजों तथा धातुओं की खपत इतनी अधिक हो गई है कि प्रति वर्ष उनकी आवश्यकता करोड़ों टन की होती है। इस खपत की पूर्ति के लिए बड़ी बड़ी खानों की आवश्यकता का उत्तरोत्तर अनुभव हुआ। फलस्वरूप खनिकर्म ने विस्तृत इंजीनियरों का रूप धारण कर लिया है। इसको खनिज इंजीनियरी कहते हैं।
किसी भी प्रकार के खननविकास के लिये खनन के पूर्व की दो अवस्थाएँ----पूर्वेक्षण (Prospecting) तथा गवेषणा (Exploration) बहुत महत्वपूर्ण हैं। पूर्वेक्षण के अंतर्गत खनिजों तथा अयस्कों की खोज, निक्षेपों का सामान्य अध्ययन तथा खनन की संभावनाओं को सम्मिलित किया जाता है। इन तथ्यों की जानकारी के लिए किन साधनों की सहायता ली जाय, यह उस क्षेत्र की आवश्यकाताओं पर निर्भर करता है। गवेषणात्मक कार्य के अंतर्गत संभाव्य निक्षेपों का विस्तार और क्षेत्र, उनकी औसत मोटाई, खनिज की संभाव्य मात्रा तथा मूल्य, निक्षेपों के अंतर्गत खनन योग्य क्षेत्रों का वितरण, खान को खोलने, विकसित करने तथा खनन को प्रभावित करनेवाली अवस्थाएँ एवं खान के विकास के लिये उपयुक्त विधि का निश्चय आदि महत्वपूर्ण तथ्य सम्मिलित हैं। गवेषणा के तीन मुख्य अंग हैं : तलीय गवेषणा, वेधन (Drilling) तथा भूमिगत गवेषणा।
खनिकर्म को मुख्य रूप से तीन भागों में विभाजित किया गया हैं : तलीय खनन (Surface mining), जलोढ़ खनन (alluvial mining) तथा भूमिगत खनन (Underground mining)।
तलीय खनन----इस प्रकार के खनन में धरातल के ऊपर जो पहाड़ आदि हैं उनको तोड़कर खनिज प्राप्त किए जात हैं, जैसे चूने का पत्थर, बालू का पत्थर, ग्रैनाइट, लौह अयस्क आदि। इस विधि में मुख्य कार्य पत्थर को तोड़ना ही हैं। शिलाएँ कठोरता, मजबूती तथा दृढ़ता में भिन्न होती हैं। जो शिलाएँ कोमल होती हैं, उनको तोड़ने में कोई कठिनाई नहीं होती। ऐसी शिलाओं के उदाहरण जिप्सम, चीनी मिट्टी, सेलखड़ी आदि हैं। जिन शिलाओं में धातुएँ मिलती हैं वे अत्यंत कठोर होती हैं, जैसे ग्रैनाइट, डायोराइट आदि। इन शिलाओं को विस्फोटक पदार्थों द्वारा तोड़ा जाता हैं। प्राचीन तथा मध्यकालीन युगों में खनन की विधियां नितांत अनुपयुक्त थीं। धीरे धीरे खनन विधियों का विकास हुआ और उनमें बारूद आदि का उपयोग होने लगा। विगत एक शताब्दी में डायनेमाइट, जेलिग्नाइट, नाइट्रोग्लिसरीन आदि अनेेक प्रकार के अन्याय विस्फोटक पदार्थों का विकास हुआ। खनन में विस्फोटक पदार्थों का उपयोग करने के लिये पहले शिलाओं में छिद्र बनाया जाता है तथा उसमें ये विस्फोटक जो कारतूस के रूप में मिलते हैं, रख दिए जाते हैं और विद्युतद्धारा या फ्यूज़ लगाकर उनमें आग लगा दी जाती हैं। विस्फोट के साथ ही पत्थर के टुकड़े टुकड़े हो जाते हैं। फिर इनको धन आदि से तोड़कर और छोटा कर लिया जाता है, जिससे उन्हें हटाने में सुविधा हो। पत्थरों में छिद्र बनाने के लिय जैक हैमर आदि अनेक प्रकार के वेधनयंत्रों का उपयोग किया जाता है। ये यंत्र संपीड़ित वायु अथवा किसी द्रव ईधंन द्वारा संचालित होते हैं। छिद्रों की गहराई 3-4 फुट तक तथा व्यास 1-1/2 इंच से लेकर 2 1/2 इंच तक होता है। कभी कभी शिलातल पर ऐसे बहुत से छिद्र कर दिए जाते है और सब में विस्फोटक कारतूस भर दिए जाते हैं तथा विद्युत् द्वारा सभी को एक साथ ही जला दिया जाता है, इससे पूरे का पूरा पहाड़ टूट जाता है। भारत में इस प्रकार के तलीय खनन के उदाहरण चूना पत्थर तथा लौह अयस्क आदि हैं। पत्थरों के हटाने के लिये बड़ी खानों में रेल की पटरियाँ बिछाकर ठेलों का उपयोग किया जाता है। इस काम में यांत्रिक खुरपे भी बड़े उपयोगी सिद्ध हुए हैं। ये खुरपे उन पत्थरों को उठाकर बड़े ट्रकों में भर देते हैं। भारत में इस प्रकार के खनन की लागत 5 रु0 से लेकर 9-10 रु0 प्रति टन तक पड़ती है। तलीय खनन में 40-50 फुट तक गहराई के पत्थर निकाले जाते हैं।
खुले हुए गड्ढों से खनन करके अयस्क तथा खनिज निकालने की विधि ताँबा, लोहा, कोयला, चूना पत्थर तथा अन्य औद्योगिक खनिजों के उत्खनन में प्रयुक्त होती है। कुछ अंशों तक यह विधि सोने, चाँदी, जस्ते तथा सीसे के खनन में भी सहायक सिद्ध हुई हैं। इस प्रकार के खनन में खुदाई करनेवाले विशाल यंत्र तथा अयस्क या खनिज को लादकर खान से बाहर ले जानेवाले यंत्र प्रमुख है। खुदाई के लिये शक्तिशाली यांत्रिक खुरपों का प्रयोग होता है। ये खुरपे विस्फोट द्वारा उड़ाए हुए पत्थरों के टुकड़ों को ट्रक अथवा मालगाड़ी के डिब्बों में भर देते हैं। कम दूरी के लिये खनन गाड़ियों (cars), डिब्बों तथा ट्रकों से काम चल जाता है और अधिक दूरी के लिये भारी ट्रकों का उपयोग किया जाता है जो लदे हुए पत्थरों को स्वचालित ढंग से किसी एक स्थान पर इकट्ठा कर देते हैं।
खुली हुई खनिजों के रूप में खनन करने से पूर्व उस क्षेत्र की स्थालाकृति के मानचित्र बनाए जाते हैं और फिर खाइयाँ, परीक्षाणात्मक गड्ढे तथा वेधन द्वारा निक्षेप की मोटाई तथा खनिज की उपलब्ध मात्रा का निश्चय किया जाता है। पानी के निकास की दशाओं पर भी सावधानी से विचार किया जाता है। खनन कार्य प्रारंभ होने पर सबसे पहले निक्षेपों पर स्थित मिट्टी हटाने का काम होता हैं। कभी कभी बड़ी खानों को खोलने के लिये मिट्टी हटाने में 2-3 वर्ष तक लग जाते हैं। खनन कार्य चोटी से प्रारंभ होता है तथा एक के बाद एक सपाट बेंचें तब तक काटी जाती हैं जब तक तलहटी नहीं आ जाती। आजकल आधुनिक बोरिंग यंत्रों के आविष्कार के फलस्वरूप 25-30 फुट तक मोटाई की बेंचें काटना सरल हो गया हैं। इन बेंचों के ऊपर हल्के ट्रक तथा लोहे की पटरियों पर चलने वाले ठेलों के आने जाने का प्रबंध किया जाता है। साधारणतया बेंच बनाने के लिये शिलाओं में कई छिद्र किए जाते है तथा विस्फोट करने के लिये लचकीली विस्फोटक टोपिकाओं का प्रयोग किया जाता है। एक पौंड विस्फोटक पदार्थ से 4 से 15 टन तक शिलाएँ टूट सकती हैं। यह मात्रा शिलाओं की दृढ़ता पर निर्भर करती है।
भारत में खुली हुई खानों के रूप में खनन की प्रणाली मुख्यत: चूना पत्थर आदि के लिये बड़े स्तर पर प्रयुक्त होती है। जिन खानों से सीमेंट उत्पादन के लिये चूना पत्थर निकाला जाता है, वहाँ 2000 टन तक का दैनिक उत्पादन असामान्य नहीं समझा जाता। बिहार, मध्य प्रदेश तथा उड़ीसा आदि में लौह अयस्क के उत्खनन में भी इसी विधि का उपयोग होता है। अन्य अयस्कों तथा खनिजों के अतिरिक्त इस प्रकार की खनन प्रणाली कोयले के लिये भी वहाँ प्रयुक्त की जा सकती है जहाँ कोयले के स्तरों की गहराई अधिक न हो। इस प्रकार कोयले के स्तर की मोटाई से यदि उस पर स्थित मिट्टी की मोटाई दस गुनी तक अधिक होती है तो भी इस प्रकार का खनन आर्थिक दृष्टि से उपयुक्त ही समझा जाता है।
जलोढ़ खनन-----कुछ प्राचीन नदियों में जो अवसाद एकत्रित हुए हैं उनमें कभी कभी बहुमूल्य धातुएँ भी निक्षिप्त हो जाती है। इन अवसादों को तोड़कर धातुओं की प्राप्ति करना इस प्रकार के खनन के अंतर्गत आता है। कभी भी ये धातुएँ नदी की तलहटी में मिलती हैं और कई बार इनमें सोने जैसी बहुमूल्य धातुएँ पर्याप्त मात्रा में मिल जाती हैं। कुछ अवस्थाओं में ये अवसाद दूसरे नए अवसादों से ढक भी जाते हैं। तब उन्हें हटाकर धातुओं की प्राप्ति की जाती है। विशेष परिस्थितियों में ये धातुएँ संपीडित शैलों (conglomerates) में भी एकत्रित हुई देखी गई हैं। प्रक्षालन निक्षपों (Placer deposits) के खनन में विशेष रूप से इसे प्रयुक्त किया जाता है। ये शिलाएँ मलवा निर्मित (detrital) होती हैं तथा इनके कणों का आकार भी भिन्न होता है। प्रक्षालन निक्षपों के प्रमुख उपयोगी खनिज सोना, टिन, प्लैटिनम तथा विरल मिट्टियाँ हैं। शिलाओं में इन धातुओं की प्रतिशत मात्रा बहुत कम होती है। इस विधि में ऊँचे दबाव पर पानी बड़े वेग के साथ नाज़ल से निकलता है और शिला पर टकराता है। पानी के टक्कर के फलस्वरूप शिला टूट जाती है तथा सूक्ष्म कणों में विच्छिन्न हो जाती है। पानी की धारा के साथ ये कण आगे चल देते हैं, जहाँ पानी स्लूस बक्सों जिनमें बाधक (baffle) प्लेटें लगी रहती हैं, प्रवाहित किया जाता है। बाधक प्लेटों के समीप भारी धातुएँ एकत्रित हो जाती है तथा धातुकणों से विहिन पानी विच्छिन्न शिला को लिए आगे बह जाता है।
जलोढ खनन विधि में प्रमुख आवश्यकता विशाल मात्रा में जल की होती है। पानी का दबाव 50 से 600 फुट तक हो सकता है। खनन का मूल्य भी कम होता है, क्योंकि इसमें पानी से उत्पन्न शक्ति के अतिरिक्त अन्य किसी शक्ति की आवश्यकता नहीं होती। इस प्रकार खनित पदार्थों की माप घन गजों में की जाती है। बड़े निक्षेपों के खनन में यांत्रिक साधनों का भी उपयोग किया जाता है तथा कभी कभी इस विधि से 30 फुट मोटाई के निक्षेपों तक का खनन होता है। भारत में जलोढ खनन व्यवहार में नहीं है; कुछ क्षेत्रों में रेत छानकर तथा धोकर सोना आदि प्राप्त किया जाता है। बिहार में स्वर्णरेखा नदी के तट पर रहनेवाले निवासी इसी प्रकार सोने की प्राप्ति किया करते है।
जलोढ खनन की एक अन्य विधि में एक विशेष प्रकार की यांत्रिक नौकाओं का भी उपयोग होता है। इन नौकाओं में घूमनेवाली बाल्टियों की व्यवस्था रहती है, जो तलहटी से बालू को खरोंचकर नाव पर ला देती हैं। इस बालू के साथ ही अनेक अपघर्षी खनिज भी आ जाते हैं जिनको उपर्युक्त विधि द्वारा पृथक् कर लिया जाता है। बर्मा और मलाया के टिन क्षेत्रों के प्रक्षापालन निक्षेपों के खनन में यही विधि प्रयुक्त की गई है। इस खनन में शक्ति की आवश्यकता तथा धन की लागत भी यथेष्ट पड़ती है। ये नौकाएँ 20 फुट की गहराई तक की बालू खरोंच सकती हैं। इनमें प्रयुक्त बाल्टियों का समावेशन 1 1/2 से 14 घनफुट तक का होता है।
भूमिगत खनन-----उन अनेक प्रकार के खनिजों तथा अयस्कों के उत्खनन में भूमिगत खनन का सहारा लेना पड़ता है जिनका खुली हुई खानों के रूप में खनन, गहराई पर स्थित होने के कारण, आर्थिक दृष्टि से अनुपयुक्त अथवा असंभव होता है। यद्यपि भूमिगत खनन में भी बड़ी पूंजी की आवश्यकता होती है, तथापि इन निक्षेपों के खनन के लिये कोई अन्य विकल्प नहीं है। भूमिगत निक्षेप दो प्रकार के हो सकते हैं : (1) जो स्तर रूप में मिलते हैं, जैसे कोयला तथा (2) धात्विक पट्टिकाएँ।
इन दोनों प्रकार के निक्षेपों की प्रकृति नितांत भिन्न होती है, इसलिये इनके खनन की विधियाँ भी सुविधानुसार अलग अलग होती है। खानों में कार्य आरंभ होने से पहले पूर्वेक्षण तथा गवेषणात्मक कार्यों को सावधानी से समाप्त कर लिया जाता है। इसके पश्चात् खान का विकास कार्य प्रारंभ होता है। सर्वप्रथम कूप (shaft) बनाए जाते हैं। इनका व्यास 10-12 फुट तक हो सकता है। यदि निक्षेपों की गइराई कम होती है तो प्रवणकों का ही निर्माण कर लिया जाता है। यदि आवश्यकता हुई तो भूमिगत मार्ग तथा गैलरियाँ भी बना ली जाती हैं जिन शिलाओं से होता हुआ कूप जाता है, यदि वे सुदृढ नहीं होती तो इस्पात, सीमेंट आदि के अस्तर की भी आवश्यकता पड़ती है। भूमिगत खनन में कूपों का बड़ा महत्व है, क्योंकि कर्मचारियों का खान में आना जाना, खनित पदार्थों का बाहर आना, वायु का संचालन तथा खान से पानी बाहर फेंकने के लिये पंपों का स्थापन इन्हीं से संचालित होता है। किसी भी खान में कम से कम दो कूप अवश्य होते हैं।
खनिजों तथा अयस्कों को तोड़ने में फावड़े, कुदाली तथा सब्बल अथवा यंत्रों या विस्फोटक पदार्थों की सहायता ली जाती है। प्रयत्न इस बात का किया जाता है कि खनिज की अधिकाधिक मात्रा निकाल ली जाय। किंतु इससे खान में शिलाओं का संतुलन बिगड़ने लगता है। यह बहुत कुछ अंशों तक शिलाओं के लचीलेपन तथा उनकी शक्ति पर निर्भर करता है। खान में शिलाओं का संतुलन बिगड़ने से बचाने के लिये खान की दीवारों तथा छत को सहारे की आवश्यकता होती है। इसके लिए जिस स्तर पर कार्य चल रहा है उसमें स्तंभ छोड़ दिए जाते है और आसपास से खनिज निकाल लिया जाता है। किंतु इसमें खनिज की काफी मात्रा का ्ह्रास होता है। इसलिये आजकल प्रयत्न यह किया जाता है कि खानी स्थानों में बालू अथवा वैसा ही कोई अन्य पदार्थ भर दिया जाय तथा उन स्तंभों का खनिज भी निकाल लिया जाय। यह विधि अधिकांश भारतीय कोयला खानों में प्रयुक्त होती है। इसके अतिरिक्त, लकड़ी, लोहा, कंक्रीट, पत्थर, ईटं आदि भी प्रयुक्त होते है। खनिज पदार्थ को खान से ऊपर लाने के लिये पिंजड़े के आकार का झूला, इस्पात के रस्से तथा वाइंडिंग इंजन की आवश्यकता होती है। खानों के अंदर खनिज को एक स्थान से दूसरे स्थान तक लाने के लिये ट्रालियाँ प्रयुक्त होती हैं, जो अधिकतर लोहे की पटरियों पर चलती हैं। कूप से होकर खान के कर्मचारी भी खान में इन्हीं झूलों से उतरते हैं। कुछ खानों में सीढ़ियाँ भी काम में आती हैं, जैसे कोडर्मा (बिहार) की अभ्रक खानों में।
भूमिगत खानों में उपयुक्त प्रकाश तथा शुद्ध वायु के आवागमन का प्रबंध अत्यंत आवश्यक है। अधिकांश खानों में अब विद्युत् प्रकाश उपलब्ध है। अभ्रक आदि की खानों में मोमबत्तियाँ भी प्रयुक्त होती है। वायु के आवागमन के लिये वायुमार्ग बड़े होने चाहिए तथा वायु का प्राकृतिक प्रवाह नहीं रुकना चाहिए। कुछ स्थितियों में इसके लिये कुछ यांत्रिक साधनों की भी आवश्यकता होती है। ये यंत्र खान में शुद्ध वायु का संचालन करते हैं।
खान में कूप खोदते समय, अथवा जलपटल आ जाने पर, पानी का प्राकृतिक प्रवाह प्रारंभ हो जाता है। यह पानी नाली बनाकर एक जगह ले जाया जाता है तथा वहाँ से पंप द्वारा खान से बाहर निकाल दिया जाता है।
भूमिगत खानों में दुर्घटनाएँ भी बड़ी भयावनी होती हैं। इनमें आग लगना एक बड़ी समस्या है। आग की दुर्घटनाएँ विषाक्त गैसों के अचानक विस्फोट से, विस्फोटक पदार्थों के माध्यम से या किसी अन्य कारणवश हो सकती हैं। कोयले की खानों में आग बुझाना बहुत जटिल होता है। झरिया क्षेत्र की कुछ खानों में वर्षों से आग लगी हुई हैं, किंतु अभी तक उनको बुझाया नहीं जा सका है। कुछ दुर्घटनाएँ खान के बैठने से या उसमें अचानक पानी भर जाने से हो जाया करती है। अभी गत 27 दिसंबर, 1975 को धनबाद से 27 किलोमीटर दूर स्थित चासनाला कोयला खान के 80 फुट ऊपर स्थित पानी के एक विशाल हौज में अकस्मात् 8.35 मीटर छेद हो गया और पानी बड़ी तेजी के साथ भरने लगा। फलत: उस समय खान के भीतर जो 372 मजदूर काम कर रहे थे वे सब खान के भीतर ही प्रवाह में फँस गए और किसी प्रकार निकाले न जा सके। इस दुर्घटनाएँ से पहले 1973 में जितपुर में 40 मजदूर मर गए थे। हजारीबाग के प्योरी खान में हुई दुर्घटना 238 मजदूर मरे थे। 1958 में चनाकुटी में एक दुर्घटना हुई थी जिसमें 176 लोग मरे थे।
खनन इंजीनियरी के आधुनिक विकास के फलस्वरूप इन दुर्घटनाओं तथा अन्य सभी समस्याओं को कम करने के यथासाध्य सभी प्रकार के प्रयास किए जाते हैं। दुर्घटना की स्थिति में आपत्कालीन खनन सैन्य दल, जो पूर्ण रूप से सुसज्जित रहता है, धन और जन की रक्षा में अपूर्व सहयोग देता है। प्रत्येक खनन क्षेत्र मे इस सेवा के लिये केंद्रों की व्यवस्था रहती है। चासनाला की दुर्घटना में पानी के निकास के लिये अनेक देशों ने पंपादि यंत्र भेेजकर सहायता की।
खानों का काम सुचारु रूप से संचालित होता रहे इसके लिये देशों की सरकारें कानून बनाती है। इन कानूनों में कर्मचारियों की सुरक्षा उनके स्वास्थ्य, खनन में उपयुक्त विधियों का उपयोग तथा अन्य संबंधित विषय रहते हैं। श्रमिकों के कल्याण के लिये भी प्रत्येक देश में, और लंबे समय से भारत में भी, योजनाएँ कार्यान्वित की जा रही हैं, जिससे उनके सुख, सुविधा और सुरक्षा के साधनों में वृद्धि हो।
टीका टिप्पणी और संदर्भ