गंध और स्वाद
गंध और स्वाद
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3 |
पृष्ठ संख्या | 346 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | राम प्रसाद त्रिपाठी |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1976 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | विजयप्रताप सिंह |
गंध और स्वाद भोजन का स्वाद हमारी जिह्वा पर ही नहीं वरन् नाक अर्थात् गंध पर भी निर्भर करता है। नाक बंद करके भोजन करने पर उसका स्वाद वही न होगा जो नाक खुली रहने पर भोजन करने में होता है। भोजन के स्वाद में वस्तुत: कितना भाग जिह्वा का है और कितना नाक का, यह कहना कठिन है। पर तथ्य यह है कि नाक और जिह्वा दोनों के सहयोग से स्वाद और गंध के इस घनिष्ठ संबंध के कारण ही इनकी चर्चा एक साथ की जा रही है।
गंध
प्रत्येक गंधयुक्त पदार्थ से गंध के छोटे छोटे अणु निकालकर वायु में मिश्रित हो जाते हैं। श्वासक्रिया के समय यह वायु नासिकारध्रं में प्रवेश करती है और नासिकारध्रं के एक विशेष भाग घ्रााण क्षेत्र (Olfactoy area) में पहुँचती है। वहाँ पहुँचकर यह वायु इस क्षेत्र में विस्तरित हो जाती है। गंध अणुओं के विस्तार के कारण गंध अनुभव करने में कुछ विलंब होता है। इसी समय श्वास खींचने की प्रतिवर्त (reflex) क्रिया अचानक उत्पन्न होती है। कुछ समय तक लंबी श्वास खींची जाती है और इसके बाद कुछ मुहूर्तों के लिए श्वास लेने की क्रिया रूक जाती है। इसका परिणाम यह होता है कि नासिकाकोष्ठ में संवहन धाराएँ (convection currents) उत्पन्न होती हैं। इसका कारण यह है कि बाहर की वायु ठंड़ी होती है और नासिका के अंदर की गरम। परिणाम यह होता है कि गंध की शक्ति बढ़ जाती है। इस प्रकार की गंधयुक्त वायु नासिका की श्लेष्मा (mucous) में मिश्रित होकर घ्रााणक्षेत्र पर रासायनिक प्रभाव डालती है। यह रासायनिक क्रिया मस्तिष्क से संबंधित प्रथम कपालतंत्रिका (Cranial nerve number one) पर वैद्युतिक प्रभाव डालती है। यह वैद्युतिक प्रभाव प्रथम तंत्रिका से होकर मस्तिष्क के घ्रााणक्षेत्र में पहुँचता है और वहाँ मस्तिष्क द्वारा गंध का अनुभव होता है।
किसी भी सूखे पदार्थ को जिससे गंध के अणु नहीं निकलते, सूंघने से गंध का अनुभव नहीं होता। किंतु जब उसमें नमी आ जाती है और रासायनिक क्रिया होती है तब उसकी गंध अणुओं द्वारा हवा में फैल जाती है और उस पदार्थ को सूंघने से उसमें एक प्रकार की गंध का अनुभव होता है। छोटे छोटे जानवरों में, जैसे कुत्ता, बिल्ली, श्रृगाल तथा मक्खी आदि में, गंध अनुभव करने की शक्ति बहुत तीव्र होती है। इनका खाद्य पदार्थ कहाँ है, इसे ये लोग बहुत दूर रहकर भी जान जाते हैं। गंध के द्वारा ये लोग अपने दुश्मन की स्थिति का भी पता लगा लेते हैं। इन लोगों की प्रेमचर्या (courtship) में भी गंध सहायक है।
भित्तिका (Septum) द्वारा नासिका दो भागों में विभक्त है। बीच में भित्तिका है और उसके दाहिनी और बाईं ओर नासिकारध्रं हैं। नासिका के पीछे की ओर नासिकारध्रं मुंह के अंदर ग्रसनी (Pharynx) के पास पहुँचकर पुन: दो छिद्रों में विभक्त हो जाता है, जिन्हें बाह्य छिद्र और आंतरिक छिद्र कहते हैं।
नासा अंत:गुहा (Nasal cavity) की प्राकृतिक बनावट बहुत विस्तृत तथा सुंदर है। इसमें तीन दराजें तथा तीन नासामार्ग (Meatus) हैं। नासिका की अंत:गुहा संपूर्ण रूप से श्लेष्मल कला (membrane) द्वारा आच्छादित है। ऊपरी नासामार्ग के पश्चाद्भाग में घ्रााणक्षेत्र (Olfactory area) है। नासिका के अंदर का संपूर्ण भाग गंध अनुभव करने के काम में नहीं आता। छोटा सा घ्रााणक्षेत्र ही गंध अनुभव करने का मुख्य कार्य करता है। श्लेष्मल कला से सदैव श्लेष्मा निकलती रहती है। सर्दी जुकाम होने पर इसके निकलने की मात्रा बहुत बढ़ जाती है, जिससे नासिकारध्रं बंद हो जाता है और श्वास लेने में कठिनाई होती है। किसी भी प्रकार की सुगंध या दुर्गंध अनुभव करने की शक्ति ऐसी स्थिति में नहीं रहती। इसका मुख्य कारण यही है कि घ्रााणक्षेत्र बंद हो जाता है। जब बहुत जोरों से श्वास खींची जाती है और गंधयुक्त वायु का प्रवेश घ्रााणक्षेत्र में होता है तब गंध का अनुभव अवश्य होता है।
प्रत्येक पदार्थ की अपनी विशेष सुगंध या दुर्गंध होती है। किस प्रकार की गंध किस वस्तुविशेष की है, इसे पहचानने के लिए मस्तिष्क को विगत अनुभव की आवश्यकता होती है। बारंबार कोई गंध विशेष मस्तिष्क को क्यों न मिले, वह अपने विगत ज्ञान के कारण उसे प्रत्येक बार पहचान लेता है। गंध के सूक्ष्मतम प्रभेद की पहचान भी मस्तिष्क में स्थित इसी घ्रााणक्षेत्र द्वारा होती ह
स्वाद
इसे अनुभव करने के लिए जीवजंतुओं के शरीर में जिह्वा मुख्य अंग है। जिह्वा मुंह के अंदर एक मासपेशी है। इसका ऊपरी भाग श्लेष्मल कला से आच्छादित है। यह मस्तिष्क तंत्रिका (cranial nerves) संख्या पाँच, सात, नौ और बारह से संबंधित है। ये तंत्रिकाएँ जिह्वा में परिपूर्ण रूप से विस्तृत हैं। रक्तसंचालन की भी उचित व्यवस्था संपूर्ण जिह्वा में है।
स्वाद अनुभव करने का गुण जिह्वा के ऊपर के भाग की श्लेष्मल कला में है। यह श्लेष्मल कला जिह्वा के अग्रिम ऊपरी भाग, पृष्ठ भाग, एवं नीचे के भाग में छोटे छोटे प्रक्षेपणों (projections) के रूप में होती है। ये प्रक्षेपण देखने में लाल रंग के अंकुरकों (Papillae) के समान दिखाई देते हैं। ये अंकुरक तीन प्रकार के होते हैं-सूत्राकार (Filiform), कवकरूप (Fungiform) और प्राचीरयुक्त (Vallate)। सूत्राकार अंकुर जिह्वा के अग्रिम दो तिहाई भाग पर होते हैं और जिह्वा के अगल बगल तथा एकदम अग्र भाग में रहते हैं। प्राचीरयुक्त अंकुर जिह्वा के पश्च भाग में होते हैं। आईने के सामने जिह्वा को बाहर निकालने पर जिह्वा के पश्च भाग में छह से लेकर बारह तक बड़े बड़े दाने देखे जा सकते हैं। वे एक विशेष प्रकार के अंकुर हैं। इनके प्रत्येक दाने में छोटे छोटे गड्ढे होते हैं। इस प्रकार का अंकुर खाली आँख से देखने पर भले ही छोटे छोटे दाने की तरह दिखाई देता हो, किंतु वास्तव में यह एक छोटे स्तंभ के समान है जिसके चारों ओर किले की तरह खाई बनी हुई है। सूक्ष्मदर्शी यंत्र द्वारा देखने पर अंकुर की स्तंभ जैसी बनावट के चारों ओर तराखे हुए प्याज जैसे आठ से लेकर बारह तक की संख्या में जो अंश दिखाई देते हैं उन्हें स्वादकलिका (Taste bud) कहते हैं। विभिन्न प्रकार के जीवजंतुओं में यह संख्या विभिन्न होती है। मनुष्य में इसकी संख्या लगभग नौ हजार होती है और साँड़ में चौंतीस हजार से भी अधिक है। सूत्राकार अंकुर में कलिका नहीं होती। कवक रूप में प्राचीरयुक्त अंकुरों में कलिकाओं का बाहुल्य है। कलिका में खाई की ओर एक बहुत ही सूक्ष्म छिद्र होता है और प्रत्येक कलिका मस्तिष्क की सातवीं और नवीं तंत्रिकाओं से संबंधित रहती है। इन दोनों तंत्रिकाओं में विकार आ जाने से जीव जंतुओं में स्वाद अनुभव करने की शक्ति नष्ट हो जाती है।
स्वाद अनुभव करने की विधि यह है कि खाद्य पदार्थ जब मुंह के अंदर जाता है तब वह लाला रस में, जो मुंह के अंदर स्थित लाला ग्रंथि से निकलता है, मिश्रित हो जाता है। जब खाद्य पदार्थ लालारस में मिलकर विलयन बन जाता है। तब वह अकुंर की खाई में प्रवेश कर जाता है और कलिका के छिद्र के अंदर पहुँच जाता है। कलिका के अंदर रासायनिक क्रिया होती है जिससे तंत्रिका के अंतिम भाग में विद्युत् की तरंग उत्पन्न होती है। यह विद्युत्तरंग तंत्रिका द्वारा मस्तिष्क के उस विशेष भाग में पहुँचती है जहाँ स्वाद अनुभव करने की शक्ति है। इस प्रकार स्वाद का अनुभव वास्तव में मस्तिष्क करता है। किसी विशेष खाद्य पदार्थ के विशेष स्वाद को पुन: पहचानने के लिए मस्तिष्क अपना पूर्व का अनुभव स्मरण करता है और इस प्रकार अपने विगत स्वाद के ज्ञान के आधार पर उपस्थित स्वाद की पहचान कर पाता है।
जिह्वा के विभिन्न भाग में विभिन्न स्वाद की कलिकाएँ विस्तारित हैं। मीठा और नमकीन अनुभव करने की कलिकाएँ जिह्वा के अग्रभाग में है। खट्टा अनुभव करने की कलिकाएँ जिह्वा के पार्श्व में हैं, अर्थात कवक रूप अंकुर की कलिकाओं में हैं। कड़वा स्वाद अनुभव करने की कलिकाएँ जिह्वा के एकदम पश्चात् भाग, अर्थात प्राचीरयुक्त अंकुर की कलिकाओं में हैं। अज्ञान के कारण साधारणत: मनुष्य किसी कड़वी दवा का प्रयोग करते समय मुँह खोलकर दवा को जिह्वा के पश्च भाग में डाल देता है। इसे निगलने में वह शीघ्रता करता है, किंतु इस सावधानी पर भी कड़वाहट का स्वाद मिल ही जाता है, क्योंकि इस स्वाद का कारण तो जिह्वा के पश्च भाग और गले (घाँटीढ़ाँपन Epiglottis) में रहता है।
स्वाद अनुभव करने की शक्ति जिह्वा की कलिकाओं के अतिरिक्त मुंह के अन्य भागों में भी होती है, जैसे गाल, तालू और गले में। किंतु इन सब स्थानों में कलिकाओं की संख्या बहुत कम रहती है। खट्टे स्वाद का अधिक अनुभव करने के लिए मनुष्य जिह्वा को तालू से दबाता है और इस तरह खठाई का अधिक अनुभव होता है।
स्वादों के प्रकार
मुख्यत: चार प्रकार के स्वादों का अनुभव हमें होता है: मीठा, खट्टा, नमकीन और कड़वा। किसी किसी प्रकार के खाद्य पदार्थ में इन चारों स्वादों का मिश्रण रहता है। किंतु जिह्वास्थित कलिकाओं को इन्हें पहचानने में कठिनाई नहीं होती। नासिका भी स्वाद अनुभव करने में सहायता पहुंचाती है। अदरक का स्वाद जिह्वा द्वारा पहचानने के पहले ही नासिका में गंध चली जाती है और स्वाद का अनुभव हो जाता है। रक्त में जब रासायनिक पदार्थ का अधिक संचालन होता है तब भी स्वाद का अनुभव होता है, जैसे जब पित्त की मात्रा बढ़ जाती है तब मुंह में कड़वाहट का अनुभव होता है।
स्वाद अधिक या कम अनुभव करना अंकुर की कलिकाओं पर निर्भर करता है। बच्चों में कलिकाओं की संख्या अधिक होती है और वृद्धावस्था में कम। आयु की वृद्धि के साथ साथ जिह्वा में स्वाद अनुभव करने की शक्ति अग्रिम भाग से घटते घटते पश्च भाग, अर्थत् प्राचीरयुक्त अंकुरों की कलिकाओं में रह जाती है।
जब मनुष्य रक्त के रोगों से, विशेषत: रक्तहीनता के रोग (Anaemia) से पीड़ित रहता है, तब स्वाद की कमी का अनुभव करता है। ऐसी स्थिति में जिह्वा स्थित अंकुरों की संख्या कम हो जाती है, जिह्वा चिकनी हो जाती है और सुस्वादु से सुस्वादु भोजन खाने पर भी वह स्वादिष्ट नहीं लगता। किसी किसी जन्मजात (Conjenital) रोगी मनुष्य की जिह्वा में कलिकाएँ बचपन से ही अनुपस्थित रहती हैं और किसी प्रकार का भोजन करने पर भी किसी स्वाद का अनुभव नहीं होता। जब मस्तिष्क की सातवीं और नवीं तंत्रिकाओं में विकास आ जाता है तब भी स्वाद का अनुभव नहीं होता। कभी कभी मेनिन्जाइटिस (meningitis) रोग होने पर भी स्वाद अनुभव करने की शक्ति नष्ट हो जाती है किसी किसी व्यक्ति को जब मस्तिष्क की अग्रपालि (Frontal lobe) में अर्बुद (tumour) हो जाता है तब वह साधारण स्वाद के बदले विकृत स्वाद का अनुभव करता है। मतिविभ्रम रोग (Hallucination) से पीड़ित रहने पर मनुष्य विचित्र विचित्र स्वाद का अनुभव करता है।
मानव शरीर की वृद्धिके लिए सुस्वादु भोजन के रस में वृद्धि होती है और पाचन क्रिया में सहायता मिलती है। जीव जंतु अधिकांशत: ऐसे खाद्य पदार्थ खाना अस्वीकार करते हैं जो प्रकृति के अनुकूल न हो, स्वादिष्ट न हों या शरीर के लिए किसी प्रकार से हानिकारक हों।
टीका टिप्पणी और संदर्भ