गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 110
गीता की यज्ञ संबंधी परिकल्पना का वर्णन दो अलग- अलग स्थलों में हुआ है;- एक तीसरे अध्याय में और दूसरा चैथे अध्याय में; पहला वर्णन ऐसा है कि यदि हम उसी को देखें तो ऐसा मालूम होगा कि गीता केवल आनुष्ठानिक यज्ञ की बात कह रही है ; दूसरा वर्णन उसी को बहुत व्यापक दार्शनिक अर्थ का प्रतीक बनाता है और इस प्रकार उसका अभिप्राय ही एकदम बदलकर उसे आंतरिक और आध्यात्मिक सत्य के एक ऊंचे क्षेत्र में ला बैठता है। पूर्वकाल में यज्ञ के साथ प्रजाओं की सृष्टि करके प्रजापति ने कहा , वृद्ध लाभ करो , यह तुम्हारी सब इच्छाओं को पूर्ण करने वाला हो। इससे तुम लोग देवताओं का पोषण करो और देवता तुम्हारा पालन- पोषण करें; परस्पर पालन - पोषण करते हुए तुम लोग परम श्रेय को प्राप्त होओगे। यज्ञ से पुष्ट होकर देवता तुम्हें इष्ट - भोग प्रदान करेगें; जो उनके दिये हुए भोगों को भोगता है और उन्हें नहीं देता , वह चोर है । जो श्रेष्ठ पुरूष यज्ञ से बचे हुए अन्न का भक्षण करते हैं जो अपने ही लिये रसोई बनाते हैं । अन्न से प्राणी उत्पन्न होते है, अन्न वर्षा से होता है, वर्ष यज्ञ से हाती है, यज्ञ कर्म से उत्पन्न होता है ; कर्म को यह समझो कि ब्रह्म से उत्पन्न होता है और ब्रह्म की उत्पत्ति अक्षर से है; इसलिये सर्वगत ब्रह्म यज्ञ में प्रतिष्ठित है। इहलोक में जो कोई इस प्रकार चलाये हुए चक्र के पीछे नहीं चलता, उसका जीवन पापमय है, वह इन्द्रियों में रमता है; हे पार्थ , वह व्यर्थ ही जीता है।“ इस प्रकार यज्ञ की आवश्यकता बतलाकर- अवश्य ही हमें आगे चलकर यह देखना है कि यहां यज्ञ का जो वर्णन है जो प्रथम दृष्टि में कर्मकांड - संबंधी परंपरागत मान्यता और आनुष्ठानिक हवन करने की आवश्कता का ही निर्देश करता हुआ प्रतीत हेाता है उसे हम लोग और किस व्यापक अर्थ में ग्रहण कर सकते हैं- श्रीकृष्ण आगे यह बतलात हैं कि इन कर्मो की अपेक्षा उस आत्मा में स्थित पुरूष श्रेष्ठ है। “जिस पुरूष की रति आत्मा में ही है, जो आत्मा से ही तृप्त है , आत्मा में ही संतष्ट है, उसके लिये ऐसा कोई कर्म नहीं जिसका करना आवश्यक हो। उसे न तो कृत कर्म से कुछ पाना है न अकृत कर्म से कुछ लेना है ; उसे किसी इच्छित वस्तु की प्राप्ति के लिये इन सब भूतों पर निर्भर नहीं करना है।“ ये दो विभिन्न आदर्श है, दोनों मानों अपने मूलगत परस्पर - पार्थक्य और विरोध को लिये हुए खड़े हैं।
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