गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 115
इन श्लोकों के बाद ही गीता ने यज्ञ के अर्थ की विशद व्याख्या की है और वहीं जिस भाषा का प्रयोग किया गया है उससे इस विषय में कोई संदेह नहीं रह जाता कि यहां यज्ञ संबंधी वर्णन रूपकात्मक है और इस शिक्षा के द्वारा जिस यज्ञ को करने के लिये कहा गया है वह यज्ञ आंतिरिक है। प्राचीन वेदिक पद्धति में सदा ही दो तरह का अर्थ रहा है, एक भौतिक और दूसरा मनोवैज्ञानिक ,एक बाह्म और दूसरा रूपकात्मक, एक यज्ञ बाह्म अनुष्ठान और दूसरा उसकी सब विधियों का आंतरिक आशय। परंतु प्राचीन वैदिक योगियों की गूढ़ रहस्यमयी रूपकात्मक भाषा को जो सर्वथा यथावत् , अदभुत, कवित्वमय और मनोवैज्ञानिक थी , इस समय तक लोग भूल चुके थे, इसलिये गीता में उसी के स्थान पर वेदांत और पश्वत्कालीन योग के भाव को लेकर व्यापक , सर्वसामान्य और दार्शनिक भाषा का प्रयोग किया गया है। यज्ञ की अग्नि भौतिक अग्नि नहीं है, प्रत्युत ब्रह्मग्नि अथवा ब्रह्म की और जानेवाली ऊर्जा , आभ्यंतर अग्नि , यज्ञपुरोहित - स्वरूप अंतःशक्ति है जिसमें आहुति दी जाती है । अग्नि है आत्म- संयम या विशुद्धि इन्द्रिय - क्रिया अथवा राजयोग और हठयोग में समान रूप से प्रयुक्त प्राणयाम - साधन की प्राणशक्ति,अथवा अग्नि है आत्म - ज्ञानाग्नि, आत्मार्पणरूप यज्ञ की अग्निशिखा।
यहां बताया गया है कि यज्ञ शिष्ट (यज्ञ से बचा हुआ भाग) जो भक्ष किया जाता है वही अमृत है; हम देखते है कि यहां भी कुछ - कुछ वेदों की रूपकात्मक भाषा है , जिसमें सोमरस को अमृत का भौतिक प्रतीक कहा जाता था- अमृत स्वयं वह दिव्य और अमरत्व देने वाला आनंद है जो यज्ञ से प्राप्त होता, देवताओं को चढ़ाया जाता और मनुष्यों द्वारा पान किया जाता है। इस यज्ञ में मनुष्य के (भौतिक या मनोवैज्ञानिक किसी भी शक्ति का कोई भी कर्म हव्य है जो उसके ) द्वारा शरीरिक अथवा मानसिक क्रिया के रूप में देवताओं के लिये ,अथवा देवातिदेव के लिये , आत्मा के लिये विश्वसंचालक शक्तियों के लिये अपनी ही उच्चतर सत्ता के लिये अथवा अथवा मानवजाति और सर्वभूतों की अंतरात्मा के लिये उत्सर्ग की गयी हर क्रिया हव्य है। यज्ञ का यह विस्तृत विवरण ही यज्ञ की एक ऐसी विशाल और व्यापक व्याख्या देता हुआ चलता है जिसमें यह स्पष्ट रूप से घोषणा की गयी है कि यज्ञ की क्रिया , यज्ञ की अग्नि , यज्ञ की हवि, यज्ञ का होता और भोक्ता, यज्ञ का ध्येय और यज्ञ का उद्देश्य , सब कुछ ब्रह्म ही है। अर्पण ब्रह्म है, हवि ब्रह्म है, ब्रह्म के द्वारा ब्रह्माग्नि में ही अर्पित है , बह्मकर्म में समाधि के द्वारा ब्रह्म ही वह है जिसे पाना है । तो यह वही ज्ञान है जिससे युक्त होकर मुक्त पुरूष को यज्ञकर्म करना होता है । ब्रह्म और पुरूषः प्राचीन काल में इन महान् वेदांत - वाक्यों में इसी ज्ञान की घोषणा हुई थी। यह समग्र एकत्व का ज्ञान है; यह वह एक है जो कर्ता , कर्म और कर्मोद्देश्य के रूप से तथा ज्ञाता, ज्ञान और श्रेय के रूप से प्रकट होता है।
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