गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 117
सिद्धि का साधक योगी इस प्रकार जो यज्ञ करता है उसमे दी जाने वाली आहुति द्रव्यमय हो सकती है , जैसे भक्त लोग अपने इष्ट देव को पूजा चढ़ाते हैं; अथवा यह यज्ञ तपोमय से भी हो सकता है, अर्थात् आत्म - संयम का वह तप जो किसी महत्तर उद्देश्य की सिद्धि के लिये किया जाये; अथवा राजयोगियों और हठयोगियों के प्राणायाम जैसा कोई योग भी हो सकता है । अथवा अन्य किसी भी प्रकार का योग - यज्ञ हो सकता है। इन सबका फल साधक के आधार की शुद्धि है; सब यज्ञ परम की प्राप्ति के साधन हैं। इन विविध साधनों में मुख्य बात, जिसके होने से ही ये सब साधन बनते हैं, यह है कि निम्न प्रकृति की क्रियाओं को अपने अधीन करके, कामना के प्रभुत्व को घटाकर उसके स्थान पर किसी महती शक्ति को प्रतिष्ठित करके अहमात्मक भोग को त्यागकर उस दिव्य आनंद का आस्वादन किया जाये जो यज्ञ से, आत्मोत्सर्ग से, आत्म – प्रभुत्व से, अपने निम्न आवेगों को किसी महत्तर ध्येय पर न्योछावर करने से प्राप्त होता है।
जो यज्ञाविशष्ट अमृत भोग करते हैं वे ही सनातन ब्रह्म को लाभ करते हैं, यह ही विश्व का विधान है, यज्ञ के बिना कुछ भी हासिल नहीं हो सकता , न इस लोक में प्रभुत्व प्राप्त हो सकता है, न परलोक में स्वर्ग की प्राप्ति की हो सकती है – “जो यज्ञ नहीं करता उसके लिये यह लोक भी नहीं है, परलोक की तो बात ही क्या, इसलिये ये सब यज्ञ और अन्य अनेक प्रकार के यज्ञ ब्रह्म के मुख में विस्तृत हुए हैं- उस अग्नि के मुख में जो सब हव्यो को ग्रहण करता है। ये सब कर्म में प्रतिष्ठित उसी एक महान् सत् के साधन और रूप हैं, जिन साधनों के द्वारा मानव- जीव का कर्म उसी तत्व को समर्पित होता है। मानव - जीव का बाह्म जीवन भी उसी तत् का एक अंश है और उसकी अंतरतम सत्ता उसके साथ एक है। ये सब साधन या यज्ञ ‘कर्मज’ हैं, सब भगवान् की उसी एक विशाल शक्ति से निकले , उसी एक शक्ति द्वारा निद्र्दिष्ट हुए हैं जो विश्वकर्म में अपने - आपको अभिव्यक्त करती और इस विश्व के समस्त कर्म को उसी एक परमात्मा परमेश्वर का क्रमशः बढ़ता हुआ नैवेद्य बनाती है जिसकी चरम अवस्था, मानव - प्राणी के लिये आत्म- ज्ञान की या भागवत चेतना की या ब्राह्मी चेतना की प्राप्ति है। “ऐसा जानकर तू मुक्त होगा” -परंतु यज्ञ के इन विभन्न रूपों में उतरती - चढ़ती श्रेणियों हैं, जिनमें सबसे नीची श्रेणी है द्रव्यमय यज्ञ और सबसे ऊंची श्रेणी है ज्ञानमय यज्ञ ।
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