गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 122

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
गीता-प्रबंध
13.यज्ञ के अधीश्वर

यज्ञमय संसार में अहंकारविमूढ़ जीव मानों ऐसा है जैसे कोई चोर या लुटेरा हो इन देवी शक्तियों का दिया हुआ सब कुछ लेता तो है, पर बदले में कुछ देने की नीयत नहीं रखता। वह जीवन के वास्तविक अभिप्राय से वंचित रह जाता है और चूंकि वह अपने जीवन तथा कर्मो का उपयोग यज्ञ के द्वारा अपनी सत्ता को उदार, विशाल और उन्नत बनाने में नहीं करता, इसलिये वह व्यर्थ ही जीता है । जब व्यष्टिभूत जीव अपने सब व्यवहारों में दूसरों में स्थित आत्मा के महत्व को उतना ही अनुभव करने और मानने लगता है जितना कि वह अपने अहंकार की ताकत और आवश्यकताओं को मानता है, जब वह अपने सब कार्यो के पीछे विश्व - प्रकृति को अनुभव करने लगता और विश्वदेवताओं के रूप में उस अखंड अनंत एक की झलक पाता है , तब वह अहंजन्य अपनी सीमा को पार करने और अपने आत्म- स्वरूप को पा लेने के रास्ते पर आ जाता है। वह एक ऐसे धर्म को , एक ऐसे विधान को जानने लगता है जो उसकी कामनाओं के विधान से भिन्न होता है, उसकी कामनाओं को उस विधान के ही अधिकाधिक अधीन और अनुगत होना चाहिये । अब तक जहां उसकी सत्ता मे केवल अहंकार ही अहंकार दिखाई देता था, वहां अब समझ और नैतिकता विकसित हो जाती है।
वह अपने अहंकार की मांग की अपेक्षा दूसरों की आत्माओं की मांग को अधिक महत्व देने लगता है; अब अहंकार और परोपकार के बीच के संघर्ष को स्वीकार करता और अपनी परोपकारवृत्ति को बढ़ाकर अपनी चेतना और सत्ता का विस्तार करता है। वह प्रकृति और प्रकृति में स्थित दैवी शक्तियों को अनुभव करने लगता और यह मानता है कि मुझे इनका भजन - पूजन करना चाहिये, इनकी आज्ञाओं का पालन करना चाहिये , क्योंकि इन्हीं के द्वारा और इन्हीं की उपस्थिति और महत्ता को अपने विचार , संकल्प और प्राण में संवर्धित करने से में अपनी शक्ति , ज्ञान और सत्कर्म को तथा इनसे प्राप्त होने वाले तुष्टि - पुष्टि को बढा़ सकता हूँ। इस प्रकार वह जीवन - विषयक अपने जड़ प्राकृतिक और अहमात्मक भाव में धार्मिक और अतिभौतिक भाव को जोड़ देता और सांत से होकर अनंत में ऊपर उठ जाने के लिये तैयारी करता है। परंतु यह केवल एक बीच की और बहुत दिनों तक रहने वाली अवस्था है । यह अवस्था अभी भी कामना के विधान और उसके अहंकार की आवश्यकता और धारणा की प्रधानता के तथा उसकी सत्ता और कर्मो पर उसकी प्रकृति के नियंत्रण के अधीन है, यद्यपि यह कामना संयत और नियत्रित है, यह अहंकार परिमार्जित है और यह प्रकृति के सवत्वगुण के द्वारा अधिकाधिक मात्रा में सूक्ष्मीभूत और प्रकाशमान है। पर यह सब क्षर , सांत व्यष्टि बुद्धि के क्षेत्र में, अवश्य ही उसके बहुत अधिक व्यापाक क्षेत्र में , होता है। वास्तविक आत्मज्ञान और फलतः सच्चा कर्ममार्ग इसके परे है ; क्योंकि ज्ञानयुक्त होकर किया जाने वाला यज्ञ ही सबसे श्रेष्ठ है और वही आदर्श कर्म को लाता है।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:गीता प्रबंध