गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 147
स्थूल द्रव्य , शरीर तो सचेतन सत्ता की शक्ति का ही पुंजीभूत कर्म है, चेतना की इन्द्रिय - शक्ति द्वारा क्रियान्वित होने वाले चेतना के परिर्तनशील संबंधों को काम में लाने के लिये साधन के तौर पर यह उपयोग में लाया जाता है । यथार्थ में स्थूल द्रव्य कहीं भी चेतना से खाली नहीं है; क्योंकि एक - एक अणु और छिद्र - रंध्र में कोई संकल्पशक्ति, कोई बुद्धि कार्य कर रही है, यह बात अब आधुनिक सायंस को भी मजबूरन स्वीकार करनी पडी़ है। परंतु यह संकल्पशक्ति या बुद्धि उस आत्मा या ईश्वर की है जो इसके अंदर विद्यमान है, यह किसी जड़ छिद्र या अणु का अपना , अपने से ही उपजा हुआ पृथक संकल्प या विचार नही है। स्थूल में अंतर्लीन विराट् संकल्प और बुद्धि एक से एक रूपों में से होकर अपनी शक्तियों का विकास करते रहते हैं और अंत मे पृथ्वी पर मनुष्य के अंदर पहुंचकर पूर्ण भागवत शक्ति के ज्यादा से ज्यादा पास पहुंच जाते हैं और यहीं इनको, इनकी बहिर्गत और रूपगत बुद्धि में भी, पहले - पहले अपनी दिव्यता का कुछ - कुछ धुंधला - सा आभास मिलता है।
परंतु यहां भी एक सीमा होती है , यह प्राकटय भी अभी अपूर्ण है और इसलिये निम्नतर रूपों को भगवान् के साथ अपने तादात्म्य का ज्ञान नहीं हो पाता। क्योंकि प्रत्येक सीमा में बाह्म जगत् की क्रिया की एक सीमा बधी होती है और उसके साथ - साथ उसकी बाह्म चेतना की भी एक सीमा लगी रहती है जो जीव के स्वभाव का निरूपण करती और एक - एक जीव के अंदर आंतरिक भेद उत्पन्न कर देती है। अवश्य ही भगवान् इस सबके पीछे रहकर कर्म करते हैं और इस बाह्म अपूर्ण चेतना और संकल्प के द्वारा अपनी विशेष अभिव्यक्तियों का नियमन करते हैं, किन्तु, जैसा कि वेद में कहा गया है, वे अपने - आपको गुहा में छिपाये रहते हैं। गीता इस बात को यूं कहती है कि “ईश्वर सब प्राणियों के हिद्देश में वास करते हैं और सबको माया से यंत्रारूढ़वत् चलाते रहते हैं।”1 हृदेश में छिपे हुए भगवान्, अहमात्मक प्राकृत चेतना के द्वारा जिस प्रकार कर्म करते हैं, वही जगत् के प्राणियों के साथ ईश्वर की कार्य - प्रणाली है। जब ऐसा ही है, तब हमें यह मानने की क्या अवश्यकता है कि , वे किसी रूप में, यानी प्राकृत चेतना में भी सामने आकार प्रकट होते और प्रत्यक्ष में अपने विरूद्ध चैतन्य के साथ कार्य करते हैं? इसका उत्तर यही है कि यदि भगवान् इस तरह आते हैं तो मनुष्य और अपने बीच के परदे को फाड़ने के लिये आते हैं जिस परदे को अपनी प्रकृति में सीमित मनुष्य उठा तक नहीं सकता ।गीता कहती है कि जीव साधारणतया जो अपूर्ण रूप से कर्म करता है उसका कारण यह है कि वह प्रकृति की यांत्रिक क्रिया के वश मे होता है और माया के रूपों से बंधा रहता हैं।
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