गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 166
यही बात अवतार के कर्म का स्वरूप निश्चित और निर्धारित करती है। बौद्धमताव - लंबी साधक अपनी मुक्ति के विारोधी तत्वों से बचने के लिये धर्म , संघ और बद्ध , इन तीन शक्तियों की शरण लेते है। ईसाई मत में भी ईसाई जीवन - चर्या , गिरिजाघर और स्वयं ईसा है। अवतार के कार्य में ये तीन बातें अवश्य होती है। अवतार एक धर्म बतलाते हैं , आत्मा - अनुशासन का एक विधान बतलाते हैं , जिससे मनुष्य निम्नतर जीवन से निकलकर उच्चतर जीवन में संवर्द्धित हों। धर्म में , सदा ही , कर्म के विषय में तथा दूसरे मनुष्य और प्राणियों के साथ साधक का क्या संबंध होना चाहिये इस विषय में एक विधान भी रहता है , जैसे कि अष्टांग - मार्ग अथवा श्रद्धा , प्रेम और पवित्रता का धर्म अथवा इसी प्रकार का और कोई धर्म जो अवतार के भागवत स्वभाव में प्रकट हुआ हो। इसके बाद , चूंकि मनुष्य की प्रवृत्ति के सामूहिक और वैयक्तिक पहलू होते हैं , जो लोग एक ही मार्ग का अनुसरण करते हैं उनमें स्वभावतः एक आध्यात्मिक साहचर्य एकता स्थापित हो जाती है, इसलिये अवतार एक संघ की स्थापना करते हैं, संघ अर्थात् उन लोगों का सख्य और एकत्व जो अवतार के व्यक्तित्व और शिक्षा के कारण एक सूत्र में बध जाते हैं। यही त्रिक ‘‘ भागवत , भक्त और भगवान् ” के रूप से वैष्णव धर्म में भी है। वैष्णव - धर्मसम्मत उपासना और प्रेम का धर्म ही भागवत है , उस धर्म का जिन लोगों में प्रादुर्भाव होता है उन्ही का संघ - समुदाय भक्त कहता है , और जिन प्रेमी और प्रेमास्पद की सत्ता और स्वभाव में यह प्रेममय भागवत धर्म प्रतिष्ठित है और जिनमें इसकी पूर्णता होती है वही भगवान् हैं। अवतार त्रिक के इस तृतीय तत्व के प्रतीक हैं, वह भागवत व्यक्त्त्वि , स्वभाव और सत्ता हैं जो इस धर्म और संघ की आत्मा हैं , और वे इस धर्म और संघ को अपने द्वारा अनुप्राणित करते हैं , उसे सजीव बनाये रखते हैं तथा मनुष्यों को आनंद और मुक्ति की ओर आकर्षित करते हैं। गीता की शिक्षा में , जो अन्य विशिष्ट शिक्षाओं और साधनाओं की अपेक्षा अधिक उदार और बहुमुखी है , ये तीन बातें भी बहुत व्यापक अर्थ में प्रयुक्त हुई है। यहां की एकता सबको अपने साथ मिला लेने वाली वह वैदांतिक एकता है जिसके द्वारा जीव सबको अपने अंदर और अपने - आपको सबके अंदर देखता और सब प्राणियों के साथ अपने - आपको एक कर लेता है। इसलिये सब मानव संबंधों को उच्चतर दिव्य अभिप्राय में ऊपर उठाना ही धर्म है। यह धर्म भगवान् की खोज करने वाला साधक जिस समाज में रहता है, उस समग्र मानव - समाज को एक सूत्र में बांधने वाले नैतिक, सामाजिक और धार्मिक विधान से आरम्भ होता है और उसे ब्राह्यी चेतना द्वारा अनुप्राणित करके ऊपर उठा देता है ; वह एकता , समता और मुक्त निष्काम भगवत्परि - चालित कर्म का विधान देता है , ईश्वर - ज्ञान और आत्म - ज्ञान का वह विधान देता है जो समस्त प्रकृति और समस्त कर्म को अपनी ओर खींचता और आलोकित करता है
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